अहिंसा अर्थात् सबके प्रति भगवद्भाव

August 2000

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अहिंसा के निषेधपरक अर्थ से हम ज्यादा परिचित है। मन, वचन और कर्म से किसी को भी किसी प्रकार कष्ट नहीं देना अहिंसा का लक्षण है। जब कोई सबके प्रति वैर-भाव से मुक्त हो जाता है, तो यह लक्ष्मण चरितार्थ होता है। अहिंसा की यह पूर्ण स्थिति है। व्यवहार में इसे साधते चलेंगे, तो पग-पग पर इतनी सावधानियां बरतनी पड़ेगी कि शेष क्रियाकलाप अधूरे छूट जाएंगे। मसलन सुबह बिस्तर से उठें, तो आसपास यह देखे कि काई कीट-पतंग न हो। घर के लोगों को कुछ कहने से पहले देखें कि वे किसी और काम में व्यस्त तो नहीं है। स्वजन, परिजन किसी व्यसन का मजा लेने में जुटे है, तो उन्हें इसलिए नहीं टोकें कि उन्हें असुविधा होगी या मजा किरकिरा हो जाएगा ।

कुछ संप्रदायों ने अहिंसा के निषेधपरक अर्थ को अत्यधिक महत्व देकर साधना के दूसरे पक्षों को अनदेखा सा कर दिया हैं रोशनी नहीं करने, मुँह पर पट्टी बाँधकर रहने, वाहनों में नहीं बैठने, बीमार पड़ने पर औषधि उपचार नहीं लेने जैसे विषयों पर इतना जोर दिया गया कि अहंकार, मात्सर्य, दर्प, क्रोध जैसे विकार अछूते ही छूट गए।

भगवान् बुद्ध के बाद उनका धर्म पूर्वी एशिया और वहाँ से पुरे विश्व में फैलने लगा । बुद्ध ने मूलतः करुणा का संदेश दिया बौद्ध धर्म की मान्यताओं के अनुसार अहिंसा करुणा का ही एक रूप है बुद्ध के अनुयायियों ने व्यवहार में अहिंसा को उतारने के लिए करीब ग्यारह सौ नियम बनाए। बौद्ध विहारों में इनके पालन पर जोर दिया जाता है , लेकिन दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि बौद्ध भिक्षु दूसरों को कष्ट नहीं पहुंचाते।

अहिंसा एक भव है और वह पुरी तरह जगा लिया जाए, तो दूसरों को कष्ट नहीं देने की स्थिति सिद्ध होती हैं वह भाव जागा हुआ हो, व्यवहार में किसी को कष्ट पहुँचने पर भी अहिंसा का आदर्श बाधित नहीं होता । पौराणिक चरित्रों में अवतारी सत्ताओं ने अपने लीलाओं से असुरों का वध किया। अधर्म, अन्याय का पक्ष लेने वालों को पराभूत किया और भक्त दिखाई देने वाले पात्रों को भी कष्ट पहुँचाया। उनके संबंध में कोई नहीं कहता कि उन्होंने हिंसा की । विचार करें , तो कुछ उपदेश उनके अपने कृत्यों के विपरित भी जाते हैं। उदाहरण के लिए, भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को लड़ने के लिए तैयार करने का संदेश है। उसी उपदेश में अहिंसा के ज्ञान का साधन, दैवी संपदा और सात्विक तप में सम्मिलित किया गया है ।

विधेयात्मक अर्थों में विचार करें तो अहिंसा का संदेश जीवन का संदेश जीवन का सम्मान है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह विश्व में व्यक्त हुई परमात्मसत्ता के प्रति श्रद्धा-समर्पण हैं साधकों से अपेक्षा की जाती है। साधकों से अपेक्षा की जाती है कि वे संसार को अपने इष्ट आराध्य की प्रतिमा अभिव्यक्ति समझें और तदनुकूल व्यवहार करें । भाव जगत् में यह मान्यता स्थिर कर लेने के बाद व्यक्ति जो भी कुछ करता है, वह इष्ट-आराध्य की सेवा आराधना बन जाता है।

संपर्क में आने वाले प्रतीक, व्यक्ति या वस्तु में भगवद्भाव का अर्थ यह नहीं है कि दिखाई देते ही उनकी चरण-वंदना की जाए, पूजा स्तुति करें और अर्घ्य-पात्र आसन आदि दें । भगवद्भाव एक दीपक की तरह धारण किया जाता है ओर उसके प्रकाश में संबंध निभाए जाते हैं, औरों से व्यवहार किया जाता है । एक बार किसी के प्रति भगवद्भाव अपना लिया जाए, तो उसके प्रति बुरा व्यवहार करना असंभव हो जाता है।

(जहाँ तक बने, जिस किसी से व्यवहार करना पड़े उसमें भगवद्भाव करना।

माता,पिता, गुरु और वृद्धजनों को प्रतिदिन प्रणाम करें । चरणस्पर्श से उनका अभिवादन करें , घर से दूर हों तो मन से प्रणाम किया जाए। जान-बूझकर किसी का अहित नहीं करना। )

शिष्टाचार के भारतीय तौर-तरीकोँ में भी भगवद्भाव का ध्यान रखा जाता था। अब भी लोग मिलते हैं, तो राम- राम “हरे कृष्ण” जय श्री राधे” या प्रणाम”आदि संबोधनों से अभिवादन करते हैं। जब राम-राम कहा जाता है, तो वह केवल प्रभु का स्मरण ही नहीं हैं। स्मरण गौण है, वस्तुतः अभिवादन करते हुए संपर्क में आए व्यक्ति के भीतर विराजमान् अपने इष्ट या ईश्वर की झाँकी ली जाती है। दिन में एक बार आप किसी के सामने नतमस्तक हो जाएँ तो उसके प्रति कटु व्यवहार की आशंका कम हो जाती हैं। ऐसा नहीं कि कटुता आ नहीं सकती। विषम स्थितियों में यह दुर्घटना हो सकती है, लेकिन प्रणाम किए जा चुके व्यक्ति के प्रति दुर्व्यवहार की आशंका सामान्य स्थितियों की तुलना में बहुत कम रह जाती है।

‘प्रणाम “नमस्कार” नमस्ते ‘ आदि अभिवादन सूचक शब्दों में आदर ही नहीं है, झुकना भी है। यह झुकना किसी आतंक या चापलूसी के कारण नहीं, वरन् सामने आए व्यक्ति में देखी जा रही भागवत् चेतना के प्रति नमन है। निकट संबंधों में अभिवादन के समय चरणस्पर्श का प्रचलन भी रहा है। यह व्यवहार अत्यंत घनिष्ठ और आयु स्थिति में पूज्य स्तर के संबंधों में किया जाता है।

माता, पिता, गुरु, ताऊ,ताई ,चाचा चाची, बड़े भाई बहन और दादा दादी के चरण छूने का विधान रहा हैं। वृद्धजन यदि एक ही आवासीय परिसर में हों, तो मन से प्रणाम करने की प्रेरणा दी जाती हैं जिन परिवारों में ये संस्कार दिए जाते हैं,वहाँ के सदस्यों में दूसरों का अहित करने , कष्ट देने और निरादर करने के दोषों का अभाव है यह व्यवहार मात्र सामान्य शिष्टाचार ही नहीं हैं उद्देश्य अपने भीतर भगवद्भाव जगाना है। अपने आसपास के वरिष्ठ वयोवृद्ध जनों में यदि पूज्य भाव आ जाए, तो दूसरों के प्रति भगवद्भाव रखना आसान हो जाता है।

नहीं, यह नहीं सोचिए कि जिस किसी के भी संपर्क में आना पड़े,उसमें भगवद्भाव किया जाए, तो व्यावहारिक जीवन में कठिनाई होगी । अनीति, अन्याय करने वालों का प्रतिकार नहीं किया जा सकेगा। क्योंकि वे भी भगवद्भाव से भावित दिखाई देंगे । इस तरह की आशंकाएँ मानसिक उलझनें भर है। आरंभ कर दिया जाए, तो उलझनें अपने आप सुलझने लगती हैं।यशोदा अपने बाल-गोपाल के हाथ बाँध देती थी, घर में बंद कर ताला लगा देती थी यह सब करते हुए गोविंद के प्रति उनके मन में भगवद्भाव की कहीं कमी नहीं आती थी।

गलत रास्ते पर जा रही संतान को माता-पिता डांटते डपटते हैं। दुत्कारते-फटकारते हुए भी अभिभावकों के मन में वैर-प्रतिशोध का भाव नहीं रहता । संपर्क में आने वाले व्यक्ति यदि अनीति-अन्याय कर रहे हों ,तो उनका प्रतिकार करने के लिए भगवद्भाव आड़े नहीं आएगा । संभावना तो यह है कि उस स्थिति में प्रतिकार ज्यादा सक्षम होगा। क्योंकि तब आप वैर, प्रतिशोध, क्रोध, अमर्ष आदि विकारों से ग्रस्त नहीं होंगे। ये भाव प्रतिकार का पैनापन कम कर देते हैं, उसमें लगने वाली ऊर्जा को विकार खुद चट कर जाते हैं। तब अनीति-अन्याय का सही मायने में प्रतिकार हो सकेगा ।

देखा गया है कि क्रोध, वैर और आवेश में किए गए प्रयोगों का बल क्षीण हो जाता है। इन भावों से बचकर प्रयोग करने के कारण ही गिने-चुने सुरक्षाकर्मी आवेश में उबल रही भीड़ को कुछ ही मिनटों में तितर-बितर कर देते हैं। इस तरह के जागतिक उदाहरण वैर और आवेश से रहित प्रतिकार की सामर्थ्य समझाने के लिए पर्याप्त हैं। इनके बाद किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि भगवद्भाव के कारण लोकव्यवहार में कोई असुविधा होगी।

किसी को कष्ट नहीं पहुँचाने के लिए बहुत बारीकियों में जाना जरूरी नहीं है। न ही कोई मानसिक व्यायाम जरूरी है कि दर्द से कराह रहे किसी पशु को जीवित रहने दें या कत्लगृह में भेजकर उसे कष्टों से मुक्ति दिला दें। महात्मा गाँधी ने एक बार किसी बछड़े को जहर का इंजेक्शन दिलाकर शारीरिक कष्ट से मुक्ति दिला दी थी । काका कालेलकर आदि विद्वानों ने गाँधी जी के निर्णय को बुद्धिमत्तापूर्ण ठहराया था । आचार्य विनोबा भावे ने आपत्ति की थी, बछड़ा कितना ही कष्ट उठा रहा हो, उसके जीवन का निर्णय लेने का हमें क्या अधिकार ? जीवन-चेतना यदि असमर्थ हो रही है, तो खुद जाएगी और परमात्मा यदि उसे जीवित नहीं रखना चाहता है, तो वह स्वयं प्राण हर लेगा। गाँधी जी ने विनोबा के तर्क को स्वीकार किया था और अपनी गलती मानी थी। यह बात अलग है कि उन्हीं विनोबा भावे ने अन्न-जल त्याग कर इच्छामृत्यु का वरण किया। उनके इस कृत्य की भी लोगों ने आलोचना की, लेकिन ज्यादातर ने इस निर्णय को सराहा है।

इन प्रसंगों की चर्चा इसलिए है कि व्यवहार के आधार पर हिंसा, अहिंसा की बारीकियाँ निश्चित नहीं की जा सकतीं, सिर्फ इतना ही ध्यान रखना पर्याप्त है कि जान-बूझकर किसी का अहित हो जाए, उसके लिए प्रायश्चित और क्षतिपूर्ति के विधान हैं। उनका पालन किया जा सा है, लेकिन यह बहुत दूर की बातें है। अहिंसा के सामान्य साधक को भाव, आचार और व्यवहार से ऊपर बताई गई तीन बातों का ध्यान रखना ही काफी हैं। इतना भर कर लिया जाए, तो पतंजलि की परिभाषा के अनुसार अहिंसा की वैसी प्रतिष्ठा हो जाती है, जिसमें साधक के समीप आकर प्रत्येक प्राणी मित्रवत् व्यवहार करने लगता है।


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