आत्मा का आहार है - प्रार्थना

August 2000

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अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में निरंतर प्रगति करने के लिए प्रार्थना का महत्वपूर्ण स्थान हैं। श्रद्धासिक्त समर्पचा इसी का नाम हैं । प्रार्थना करना जिन्हें आ है वे योग, जप , तप आदि जैसे कष्टसाध्य उपक्रमों के बिना ही ईश्वर से वार्तालाप करने की सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक प्रणाली है, जिसमें न किसी मंत्र की , छंद की आवश्यकता पड़ती है और न किसी कर्मकाँड की । वह तो हृदय की, अंतःकरण की निश्छल पुकार है, जो सीधे परमात्मा तक पहुँचती हैं और बदले में प्रार्थी को कृतकृत्य करके छोड़ती है।

प्रार्थना का अर्थ है कि में अकेला हूँ । अकेला होकर भी बिलकुल असहाय हूँ। यदि परमसत्ता का सहारा न मिले तो मुझसे कुछ भी न हो सकेगा । इस तरह प्रार्थना असहाय अवस्था की बोधक हैं। प्रार्थना पुकार है अस्तित्व के प्रति कि तेरा सहारा चाहिए, तेरा हाथ चाहिए, प्रत्युत्तर भी इसी का मिलता है। इस संदर्भ में तीन हजार वर्ष पूर्व राजा डेविड ने एक प्रार्थना-पुस्तक लिखी है, जिसके आरंभ में ही बताया है, मेरी ताकत जवाब दे रही है। आँखों में अँधेरा छाने लगा है।तब मैं प्रार्थना करने बैठा हूँ हृदय से मानो ध्वनि उठती है, तुम्हें परास्त नहीं होना चाहिए। तुम उठकर फिर से चलने लगोगे । इस दुनिया में हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तुम्हें सँजोया गया हैं हर कठिनाई आने वाली सफलता का नया सोपान है। जीवन जलती हुई एक दीपशिखा है, जो स्वयं जलकर दूसरोँ को प्रकाश देती हुई अपने मन के अँधेरे का भी विनाश करने में संलग्न है। यह रोशनी दिव्य चेतन सता ने प्रदान की है। तुम इसका अपने विकास के लिए उपयोग करो और अपने अनुगामियों के लिए साहस की धैर्य की विरासत छोड़कर जाओ।

ईश्वर प्रेम का स्वरूप है, बुद्धि का स्वरूप है। वह सर्वभूतमय है। ईश्वर का ज्ञान शाश्वत है, जिसके लिए एकाग्रता, विश्वास भी गहन ऊर्जा ओर तीव्रतर ललक की आवश्यकता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि जब ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, सर्वत्र संव्याप्त है, अपरिमित है, सर्वज्ञ है, तो फिर अपनी प्रार्थना के द्वारा हम उसको सूचना क्यों देते हैं? वस्तुतः हमें जो कुछ स्रष्टा से प्राप्त हुआ है, उसके लिए प्रार्थना के द्वारा उस सर्वशक्तिमान् के प्रति हम अपनी कृतज्ञता प्रदर्शन करना उत्तम होता है । ऐसा करने से हमें उच्चस्तरीय दैवी अनुदान एवं वरदानों की प्राप्ति संभव हो सकेगी।

यदि हम वास्तविक रूप से उस महान् सता के प्रति अपने जीवन, सत्य ओर फिर भी हम कृतज्ञता का प्रदर्शन करते हैं, ता यह हमारा दिखावा मात्र है, ढोंग है। जब तक हमारे हृदय में सत्य और प्रेम नहीं होगा, तो हम जीवन की नीरसता को छिपा नहीं सकेंगे। ईश्वर की आज्ञाओं पर चलना ही सच्ची प्रार्थना और पूजा हैं। उसकी आज्ञा मानना ही उसके प्रति प्रेम है।

(अपने अहं को गलाकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत उच्छृंखल मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है। गहन अंतस्तल से निकली हुई प्रार्थना, जिसमें आलपरिवर्तन की आस्था जुड़ी हुई हो , भगवान् का सिंहासन हिला देती हैं ऐसी प्रार्थना के परिणाम ऐसे अद्भुत होते हैं, जिन्हें चमत्कार कहने में कुछ हर्ज नहीं हैं।)

प्रख्यात मनोवेत्ता डॉ0 एमेली केडी के अनुसार, प्रार्थना मात्र परमात्मा को धन्यवाद देने, कोरी कृतज्ञता व्यक्त करने या उससे कुछ याचना करने की प्रक्रिया का नाम नहीं है, वरन् यह वह मनःस्थिति है, जिससे व्यक्ति शंका ओर संदेहों के जाल-जंजाल में से निकलकर श्रद्धा की भूमिका में प्रवेश करता है। अपने अहं को गलाकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत-उच्छृंखल मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है। इसमें यह संकल्प भी जुड़ा रहता है कि भावी जीवन परमेश्वर के निर्देश के अनुसार पवित्र और परमार्थी बनाकर जिया जाएगा । ऐसी गहन अंतस्तल से निकली हुई प्रार्थना , जिसमें आत्मपरिवर्तन की आस्था जुड़ी हुई हो , भगवान् का सिंहासन हिला देती है। ऐसी प्रार्थना के परिणाम ऐसे अद्भुत होते हैं, जिन्हें चमत्कार कहने में कुछ हर्ज नहीं हैं।

घटना सोलहवीं शताब्दी की हैं। मुगल सम्राट बाबर का पुत्र हुमायू बीमार पड़ गया। चिकित्सकों-वैद्यों ने अनेकों उपाय-उपचार किए, फिर भी उसका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ा ही गया। हुमायू की यह दशा देखकर युद्ध की थकावट एवं चिंता के कारण पहले से ही अस्वस्थ बाबर और भी अधिक चिंतित हो उठा, संकट की इस घड़ी में भी उसकी धर्मनिष्ठा, आत्मविश्वास एवं संकल्प-दृढ़ यथावत् बनी हुई थी। उसने संकल्प किया कि वह अपने प्राण के बदले, जीवन के बदले ईश्वर से हुमायू की प्राणरक्षा की भीख माँगेगा।

कहते हैं कि संकल्पी होकर बाबर ने हुमायू के पलंग की तीन बार परिक्रमा की और आँखें बंद करके एकाग्रचित्त हो पूर्ण समर्पित भाव से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर। यदि मेरे प्राण के बदले में हुमायू स्वस्थ हो सका है और जीवित रह सका है, मैं इसे उस पर निछावर करने को पूर्णरूपेण प्रस्तुत हूँ। हुमायू का सारा रोग मेरे ऊपर आ जाए और वह पूर्ण स्वास्थ्य हो जाए।” ईश्वर की लीला विचित्र है। वह अपने उपासक की करुण पुकार को अवश्य सुनता है। हुआ भी यही। अगले ही दिन से हुमायू क्रमशः स्वास्थ्य होने लगा और धर्मनिष्ठा पिता का स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगा। ईश्वर ने उसकी पुकार जो सुन ली थी। यह इतिहास-प्रसिद्ध घटना है कि उसके बाद ही 26 दिसंबर सन् 1560 को बाबर का आगरा में निधन हो गया।

शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान् भाव के भूखे हैं। उनके निकट भावना का महत्व सर्वोपरि है। श्रद्धा, विश्वास एवं भावना की गहना ही प्रार्थना का फलवी बनाते हैं। छाँदोग्योपनिषद् में उल्लेख है, “यदेव श्रद्धया जुहोत तदेव वीर्यवत्तरं भवे” अर्थात् श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही फलवती होती है। अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और श्रद्धापूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम भी होगा। इसलिए शब्दों को रटने की, चिह्न−पूजा करने की अपेक्षा समुचित श्रद्धा के साथ प्रार्थना की भावनाओं को अंतः करण में बैठा अनुभव करते हुए ईश्वर के सम्मुख अपने मनोभाव प्रस्तुत करना चाहिए। भगवान् जब सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है, तो वह अपने रोम-रोम में भी समाया हुआ है। साँसों के साथ थिरकता हुआ वह बाहर आता और बाहर जाता रहता है। हृदय समेत समस्त नस-नाड़ियों में उसी की धड़कन और रक्त में उसी की गरमी काम कर रही है। प्राण−चेतना और भावना के रूप में वही तो अपनी प्रेरक शक्ति बना बैठा है। ऐसे अभिन्न हृदय मित्र से, स्वजन-स्नेही से जी खोलकर बातें करने में संकोच ही क्यों होना चाहिए उसके साथ जी खोलकर बातें करने में भय ही क्या है प्रार्थना यदि भावनापूर्ण है तो वह बिना पूजा-साधना के भी उतनी ही प्रभावशाली हो सकी है। जितनी कि विधि-विधान के साथ किए गए नियमित उपासना-साधना की।

प्रार्थना एक प्रकार का प्रायश्चित है। अध्यात्मशास्त्रों में जितने प्रकार के प्रायश्चों का उल्लेख है, उन सब में प्रार्थना सबसे अधिक शक्तिशाली है। प्रार्थना के द्वारा हम अपने अहंकार, पाप, कषाय-कल्मष एवं दुखों के अंधकार को छिन्न-भिन्न कर सकते हैं और अंतर्मन में छिपी हुई दुर्भावनाओं, दुराग्रहों एवं समस्त कमजोरियों का मूलोच्छेदन कर सकते हैं। मन का साधने एवं शिक्षित करने की सबसे पहली सीढ़ी प्रार्थना है। अपने किए हुए दुष्कर्मों के लिए पश्चाताप करना और दुबारा किसी तरह से पापकर्म में संलिप्त न होने के लिए संकल्पशक्ति की अभिवृद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना सुधार का प्रथम सोपान है। दूसरा सोपान आत्मसुधार का है।

ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने में प्रार्थना से बढ़कर और कोई साधना-मार्ग नहीं है। सूर, तुलसी, मीरा, तुकाराम, समर्थ रामदास, चैतन्य महाप्रभु, नरसी भगत आदि संत-महात्माओं की प्रार्थनाएं प्रख्यात हैं। श्रद्धा-भक्ति से ओत-प्रोत होकर हृदय की गहराई से विश्वासपूर्वक थोड़े समय के लिए भी की गई प्रार्थना उतना ही प्रतिफल प्रदान करती है जितना कि योगी, यती, तपस्वी लंबे समय तक कष्ट-साध्य साधना-तपश्चर्या के द्वारा प्राप्त करे हैं। सच्ची प्रार्थना से अंतरात्मा के गहनतर भाग से एक आंतरिक दिव्य चैतन्य प्रकाश प्रस्फुटित होता है, जिस के लिए शास्त्रों में कहा गया है, “तमेव भान्तमनुमति सर्व तस्य भासा सकलं विभा” अर्थात् यही वही गूढ़ आँतरिक प्रकाश है, जो जगत् के समस्त चराचर प्राणियों को आलोक प्रदान करता है। प्रार्थना असय से सय की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने वाली दिव्य प्री है। इसके द्वारा हम ईश्वर से अपना संबंध जोड़कर महान् विभूतियों के स्वामी बन सके है और समस्त आधि-व्याधियों, कष्ट-कठिनाइयों एवं रोग-शोकों से मुक्ति पा सकते हैं।

योग-शास्त्र में यम-नियमों के नाम से जिन दस अनुबंधों का निर्देश दिया गया है, उनमें सभी धर्मशास्त्रों, सत्प्रेरणाओं, मानवीय गुणों और आध्यात्मिक भावों का समावेश हो जाता है। कर्मकाँड और विधि-विधान की बारीकियों में नहीं जाना पड़े, इन आदर्शों के याद किसी धर्म−संप्रदाय की आवश्यकता नहीं रह जाती। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, शैच संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्राणिधान को साध लिया जाए, तो समूचा धर्म-अध्यात्म सध गया। यह मानने की जरूर नहीं है, इसे प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सका है। मनीषियों ने इन दस गुणों अथवा भावों को सार्वभौम धर्म कहा है।

जिस ग्रंथ में इनका उपदेश किया गया, उस पातंजलि योगसूत्र में धार्मिक कर्मकाँडों का विस्तार नहीं है, उनका प्रतिपादन भी नहीं है। योगसूत्र मनुष्य की प्रवृत्ति, आँतरिक स्थिति और संभावनाओं के तालमेल के साथ दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति का मार्गदर्शन करता है। कोई विधि-व्यवस्था नहीं देता। समाजशास्त्र, राजनीति, भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान, चिकित्सा, मौसम, कृषि विज्ञान, नक्षत्र-विद्या और उत्खनन, निर्माण आदि विज्ञानों में सिद्धाँत-नियम बदलते रहते हैं। इन विद्याओं में आए दिन नई खोजें होती हैं। नए निष्कर्ष सामने आते हैं। उनके कारण प्रचलित मान्यताएँ बदलनी पड़ती है, लेकिन गणित के नियमों में कहीं कोई फेर-बदल नहीं किए जाते। कारण कि वे ध्रुव सत्य है। योगसूत्रों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है।

अध्यात्म-दर्शन की स्थापनाओं और अनुभूतियों-अभिव्यक्तियों में अंतर हो सकता है। भारतीय दर्शन की मान्यताएं ईसाई या इस्लाम की दार्शनिक अवधारणाओं से भिन्न हो सकती है। भारतीय दर्शन में ही वेदाँत, भक्ति, शैव, शाक्त आदि दार्शनिक धाराओं में अंतर है। उनकी स्थापनाएँ एक-दूसरे से विरुद्ध होंगी, लेकिन योग सिद्धाँतों और सूत्रों का किसी दार्शनिक विचार से कोई विरोध नहीं है, वे सार्वभौम हैं। उन्हें सभी देश-कालों में सिद्ध किया जा सकता है। सिद्ध कर लिया जाए, तो चेतना को सर्वोच्च लक्ष्य तक विकसित किया जा सका है।

यम-नियमों के रूप में जिन आदर्शों का निर्देश दिया गया है, वे कर्मकाँड प्रधान नहीं है। उनका सिद्धाँत ऐसा नहीं है कि पालन करने के लिए बारीकियों का ध्यान रखना पड़ेगा। सभी गुण आँतरिक हैं। उनके प्रति श्रद्धा जगा ली जाए, तो व्यवहार में उतारने के लिए सावधानी और सजगता रखना भर पर्याप्त है। अहिंसा, सत्य आदि यम-नियम व्यवहार से सिद्ध होने लगे, तो आत्मिक प्रगति अबाध रूप से होने लगती है।

दस गुणों या आदर्शों को बोलचाल की भाषा में व्रत कहा जाता है। योगसूत्र के ऋषि ने इन्हें दो वर्गों में बाँटा है, यम और नियम। वर्गीकरण का उद्देश्य उनका सूक्ष्म और स्थूल रूप है। उन्हें आंतरिक और व्यवहार में दिखाई देने वाले बाहरी व्रत भी कह सकते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को विभिन्न संप्रदायों में पंच महाव्रतशील और धर्म के रूप में भी निरूपित किया है। इन व्रतों के प्रति निष्ठा और धारणा पर जोर दिया जाता है निष्ठा जमा ली जाए , संकल्प कर लिया जाए, अपनी आस्था में इन व्रतों को सामेट लें, तो व्रत अस्सी प्रतिशत सिद्ध हो जाते हैं। बीस प्रतिशत भाग व्यवहार में अपने आप प्रकट होने लगता है। समुद्र में तैरने वाले हिमखंडों की तरह इन व्रतों का तीन-चौथाई हिस्सा आँतरिक चेतना में स्थिर होता है। स्मरण रहे व्यवहार में दिखाई देने वाले स्वरूप का आंतरिक स्थिति के बिना कोई आधार भी नहीं है।

शौच, संतोष,तप स्वाध्याय और ईश्वर-प्राणिधान के पाँच व्रतों को नियम की संज्ञा दी गई है। योगशास्त्र को व्यवस्थित विज्ञान का रूप देते हुए महर्षि पतंजलि के इन निर्धारणों का स्वरूप आँतरिक और बाह्य दोनों हैं। आस्था क्षेत्र में जिस गहराई तक ये स्थिर होते हैं, उसमें कई गुना विस्तार बाह्यजगत में होता है।

विभिन्न आचार्यों-उपदेशकों ने यम -नियमों को शुष्क शास्त्रीय ढंग से ही समझाया है। अध्यात्म और योग के प्रति प्रगाढ़ रुचि हो तो संकेत रूप में समझाया गया शास्त्र और सिद्धाँत भी पर्याप्त है। लोग उसे अपनी लगन से ही ग्रहण कर लेंगे। लेकिन चारों ओर प्रमाद व्याप्त हो , लौकिक जीवन में इतनी ज्यादा उलझनें और आपाधापी हो कि उनसे सिर उठाने की फुरसत ही न मिले,तो महाव्रतों का व्यावहारिक स्वरूप स्पष्ट करना जरूरी है। यम-नियमों को, दस महाव्रतों को चित, बुद्धि -व्यवहार में किस तरह उतारा जाए, यह बताए बिना समाधान नहीं होता ।

सामान्य अर्थों में दस महाव्रत गूढ़ नहीं है। शब्दकोश में अथवा योगदर्शन की साधारण टीकाओं में देखकर इनके अर्थ समझे जा सकते हैं, बहुत सरल है। उदाहरण के लिए टीकाओं में लिखा मिलेगा कि अहिंसा का अर्थ है, प्राणिमात्र को मन, वचन और कर्म से किसी भी प्रकार कष्ट नहीं देना। सत्य अर्थात् जैसा देखा, सुना और समझा गया है, उसे उसी रूप में प्रकट कर देना। चोरी नहीं करने का नाम अस्तेय है। इस व्रत में दूसरों के स्वत्व पर मन में रुझान भी नहीं आने देना चाहिए। जननेंद्रियों का संयम ब्रह्मचर्य है। ममत्व-बुद्धि से पदार्थों के संग्रह का नाम परिग्रह हैं। वस्तुओं में ममत्व का भाव न रखा जाए और न ही उन्हें इकट्ठा किया जाए । यह अपरिग्रह हुआ। पाँच यमों के बाद पाँच नियमों का विवेचन भी इस शैली में किया गया है। शौच का अर्थ है, शरीर ,मन और आसपास के क्षेत्र की स्वच्छता । जो मिल जाए उससे अधिक की कामना नहीं करें यह संतोष हुआ । अपने धर्म का पालन करने के लिए कष्ट सहने का अभ्यास तय कहा गया हैं। स्वाध्याय का अर्थ है, भक्ति,ज्ञान वैराग्य में रुचि जगाने वाले शास्त्रों और ग्रंथों का अध्ययन। दसवें व्रत या अंतिम नियम के रूप में ईश्वर का स्मरण, चिंतन और ध्यान करना ईश्वर-प्राणिधान है।

दस व्रतों के साँकेतिक अर्थों ने साधकों के मन में उलझनें खड़ी की है। जिन दिनों डेढ़-दो घटे प्रतिदिन शास्त्र-चिंतन किया जाता था, चर्चाएं चलती थीं और विद्वज्जनों की गोष्ठियाँ होती थी, उन दिनों एक दो पंक्ति में की गई परिभाषाएँ पर्याप्त थी। लेकिन आज ये परिभाषाएँ जटिल ही हैं । व्यवहार -क्षेत्र में इनसे कोई सहायता नहीं मिलती, इसलिए पढ़-सुनकर लोग नाक भौं ही सिकोड़ते हैं। उनके प्रति श्रद्धा जागने के स्थान पर उपेक्षा के भाव ही आते हैं। आठ-दस रुपये में मिलने वाली टीकाओं से खीझकर कुछ आलोचकों ने तीखी टिप्पणियाँ की है। उनके अनुसार इस तरह की पुस्तकें आठ-दस रुपये में भगवान् तक पहुँचने का टिकट है । भगवान् तक पहुँचने का कोई टिकट नहीं हो सकता, इसलिए छलावा हैं।

ये नियम सिर्फ आँतरिक अनुशासन ही नहीं है, लौकिक जीवन में सफलता , समृद्धि और यश भी इनसे प्राप्त किया जा सकता है। महाभारतकार ने जिस धर्म को मोक्ष का ही नहीं अर्थ और काम को भी सिद्ध कराने वाला विज्ञान बताया है, वह इन व्रतों में गुँथा हुआ है। सही भी है, जो चाबी ईश्वर या मोक्ष जैसे परम पुरुषार्थ का द्वार खोलती है, वह लौकिक जीवन के द्वार कैसे छोड़ देगी। यह जीवन परमात्मसत्ता का प्रारंभिक परिचय ही तो है। अहिंसा , सत्य , अस्तेय आदि व्रतों की तुलना उन संख्याओं से की गई है, जिनके मिलाने पर नंबर से संचालित ताले और द्वार खल जाते हैं। जरूरी है कि इनका उपयोग और बारीकियाँ समझी जाएँ।

दसों महाव्रतों को क्रम से समझने के लिए व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयों को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए, कहना आसान है कि प्राणिमात्र को किसी भी प्रकार कष्ट नहीं दिया जाए। यह स्थिति है जिसे प्राप्त करना हैं। लेकिन इसे व्यवहार में कैसे उतारें । दैनिक जीवन में पग-पग पर इस व्रत की अवहेलना होती है। सुबह जल्दी उठकर काम पर जाना हो, तो परिवार के लोगों को कष्ट पहुँचाने के रूप में ही व्रत टूटने लगता है। दफ्तर या कारोबार में कोई निर्णय लेना पड़े,तो उससे कुछ लोगों को सुविधा होगी और कुछ को कष्ट । इन विरोधाभासों का क्या समाधान है? दस महाव्रतों का शाब्दिक या साधारण अर्थ मानने पर इस तरह के कितने ही प्रश्न खड़े होंगे।

अपने आसपास की परिस्थितियों ओर आवश्यकताओँ के अनुरूप दस महाव्रतों का निर्वाह किस तरह हो सकता है, यह मंथन जरूरी है। मंथन किया जाए, तो संजीवनी विद्या की वह सिद्धि हो सकती है जिसमें अपना, दूसरों का और पूरे समाज का हित है। सभी को प्रसन्न और संतुष्ट नहीं किया जा सकता , यह सही है, लेकिन यह भी सही है कि दूसरों को खिन्न और रुष्ट किए बिना स्वयं प्रसन्न रहा जा सकता है। आत्मिक प्रगति का यह राजमार्ग दस महाव्रतों के चिंतन-मनन से खुलता है अखंड ज्योति के पन्नों पर क्रम से इस विषय में पथ के प्रदीप प्रस्तुत है।


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