साधना और सिद्धि का सहन मार्ग -मर्यादा

August 2000

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सोवियत संघ को विघटित हुए करीब बीस वर्ष हो गए। राज्य राष्ट्रों के इस महासंघ का विघटन एक प्रयोग की विफला के रूप में इतिहास में दर्ज किया जाएगा। प्रसंग विफलता के रूप में इतिहास में दर्ज किया जाएगा। प्रसंग उस देश की एक पुरी पीढ़ी क एक छत्र नायक रहे ब्रेझनेव से संबंधित है। वे जब भारत आए तो राजधानी में विभिन्न विशिष्ट लोगों ने उनसे मुलाकात की । रामकथा के प्रसिद्ध विद्वान् और वाचक पंडित कपींद्र जी भी उनसे मिलें। उन्होंने ब्रेझनेव को रामचरितमानस भेट की ओर कहा कि इस ग्रंथ में जहाँ राम है वहाँ साम्यवाद रख देना ।सीता के स्थान पर ‘शक्ति’ और असुर के स्थान पर पूँजीपति फिर आपको इस ग्रंथ की महत्ता का पता चलेगा।

पता नहीं ब्रेझनेव ने मानस को पढ़ा या नहीं , लेकिन 1992 में दिल्ली के विज्ञान भवन में हुए एक कार्यक्रम में रूस से आए मानस के एक विद्वान् प्रो0 पोदिल्मीर चेन्स्की ने उस प्रसंग का उल्लेख किया। कहा कि मानस रूसी युवकों को रास आ रही हैं। वे लोग भी मानस का अध्ययन कर रहे है, जो अध्यात्म की ओर उन्मुख हुए है। प्रो0 चेन्स्की ने कहा कि कपींद्र मुनि जी का सुझाव साम्यवादी आस्थाओं वाली पीढ़ी को अपील कर रहा हैं।

रामकथा का मूल आधार वाल्मीकि रामायण है। उसकी उपादेयता और महत्व है। विश्व में जहाँ भी रामकथा का विस्तार हुआ, उसका स्त्रोत रामायण को माना जा सकता है। दशरथ जातक, प्रसन्न राघव ,योग वसिष्ठ और अध्यात्म रामायण आदि ग्रंथों का भी विधा-विभूति और संस्कार की दृष्टि से महत्व है, लेकिन गोस्वामी तुलसी दास ने इस कथा को विलक्षण ढंग से युगीन संदर्भ दिया। तुलसी की रामकथा किसी भी समय, परिस्थिति और समस्या में उपचार की तरह सामने आती है।

गोस्वामी तुलसीदास होते तो रामकथा को सार्वकालिक बना देने का श्रेय देने पर संकोच के साथ किनारे हो जाते। वे कहते, “मो सम कौन कुटिल खलकामी।” मैं तो दृष्ट , कुटिल और लंपट हूँ , यह भी कह सकते थे । कहते कि राम नाम का प्रताप है, जिसने मुझ काँच के टुकड़े को हीरा बना दिया अथवा मैथिलीशरण गुप्त की भाषा का उपयोग करते तो कहते कि “राम तुम्हारा नाम स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए यह सहज संभाव्य है। “ गोस्वामी तुलसीदास अपने समय की चुनौतियों और समस्याओं को अच्छी तरह समझते थे। वे उनसे जूझने का प्रयत्न भी कर रहे थे। लोकसभा में रामकथा की रचना, रामलीला का प्रवर्तन, कथावाचन का नवोन्मेष आदि विधाओं का उपयोग उन्होंने अपने समय के ठूटते हुए मानस को संबल देने के लिए किया।

रामकथा उनसे पहने भी प्रचलित थी , लेकिन संस्कृत में ही । भाषा (लोक भाषा) में उसे कहना, सुनना , लिखना हेय समझा जाता था । रामचरित का मंचन भी होता था, लेकिन समाज के श्रेष्ठी वर्ग के लिए ही। जनसाधारण को उससे न तो प्रेरणा मिलती थी और न ही दिशा, क्योंकि वह उन्हें सुलभ ही नहीं थी । कथा उपदेश भी भव्य अट्टालिकाओं और महलनुमा मकानों में ही संपन्न होते थे।गोस्वामी जी ने रामकथा के इर्द-गर्द खींची गई इन रेखाओं को मिटाया और उसे सार्वजनीन बनाया।

उन दिनों सामंती राज था। शासक और शासित में अलंघ्य खाई थी और उसे सिर्फ शासक वर्ग ही अपनी लिप्सा- लालसा के अनुसार पाट सकता था। लोगों को लूटना-खसोटना हो तब , सिर्फ दो ही स्थितियों में शासक जनता के बीच जाते थे। शिक्षा, संपन्नता, रोजगार और सुरक्षा की दृष्टि से कहीं कोई आश्वासन नहीं था। अपने धर्म और कुल, जाति , समुदाय की परंपराओं को निभाने की भी रंचमात्र छूट नहीं थी। तुलसी ने उन विषम परिस्थितियों में रामकथा को संबल बनाया और उसमें आश्रय ग्रहण करने की प्रेरणा दी । लोगों ने उस आश्रय को ग्रहण भी किया।

मध्यकाल के अंधकार युग से आज तक रामचरित मानस उस आश्रय के रूप में प्रतिष्ठित है। रामधारी सिंह दिनकर ने तुलसी की इस लोक सिद्धि का उल्लेख करते हुए ‘संस्कृति के चार अध्याय ‘ में लिखा है, उनका स्थान हिंदू संस्कृति के रक्षक, त्राता ओर उद्धारकर्ता के रूप में है। उतर भारत में किसी को यह जानने की अधिक चिंता नहीं। है कि नैतिक विषयों पर धर्मशास्त्रों का क्या कहना है? वहाँ की जनता प्रत्येक विषय पर केवल तुलसीदास की राय जानना चाहती है । ऐसा सम्मान केवल वही कवि पा सकता है, जिसका हृदय जनता के हृदय से बिलकुल एकाकार हो।

तुलसीदास की रचनाएँ भक्ति-साहित्य की श्रेणी में आती है। एक ही ग्रंथ ‘ मानस ‘ऐसा है, जिसमें ज्ञान भक्ति कर्म का समन्वय हुआ है, जिसमें ज्ञान-भक्ति कर्म का समन्वय हुआ है और इन साधना मार्गों से उन्होंने समाज को संस्कार हुआ है ओर इन साधना-मार्गों से उन्होंने समाज को संस्कार की प्रेरणा भी दी है। समर्थकों का कहना है कि वे अपने समय के शासकों से तनिक भी रुष्ट नहीं थे। उनके साहित्य में तत्कालीन शासन-व्यवस्था के प्रति कही भी रोष या आक्रोश नहीं है। लेकिन यह अधूरा सत्य है। कोई भी साहित्यकार अपने समय की परिस्थितियों से अछूता नहीं रहता। तुलसी ने कलियुग वर्णन के रूप में तो तत्कालीन समाज की विसंगतियों को उजागर किया है, दो मंत्र उद्धत करने ओर एकाध ग्रंथ पढ़कर विद्वान् बने लोगों के दंभ को भी आड़े हाथों लिया है। तुलसी का स्वर क्राँतिकारियों की तरह जोश खरोश से भरा नहीं था, लेकिन वे समय , समाज और व्यवस्था की विसंगतियों के प्रति समान रूप से चिंतित थे।

पर्याप्त प्रमाण मिलता है कि तुलसी ने अपने मित्र टोडरमल से कहकर वाराणसी , प्रयाग और अयोध्या में हो रहे कई उत्पातों को रोका था। ये उत्पात समाज-व्यवस्था को नियंत्रित करने वालों द्वारा ही मचाए जाते थे। प्रसिद्ध है कि टोडरमल तुलसी दास के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। उनके सहयोग से ही गोस्वामी जी ने राम जन्मभूमि स्थल के दक्षिण द्वार के पास बैठकर रामकथा कही थी । उनके कुछ विरोधियों ने मानस को नष्ट करने की चेष्टा भी की , चुराने के लिए चोर भेजे। जनश्रुति है कि चोर जब उनकी कुटिया में घुसने लगे तो दो धनुर्धारियों को पहरा देते देख वापस चले गए । ये धनुर्धारी राम ओर लक्ष्मण ही थे । अपने इष्ट को पहरा देते देख उन्हें कष्ट नहीं होने देने के लिए गोस्वामी जी ने मानस की प्रति राजा टोडरमल के यहाँ रखवा दी। धनुर्धारियों के पहरा देने की बात पर मतभेद हो सकते हैं।, कि विरोध का समाहार करने के लिए गोस्वामी जी को टोडरमल, रहीम, आचार्य मधुसूदन आदि प्रभृतिजनों ने सहायता की थी ।

जनश्रुति तो यह भी है कि अकबर भी गोस्वामी तुलसी दास से मिला था, लेकिन इसका कोई आधार नहीं हैं । कुद्ध लोगों ने तुलसी को सम्राट् अकबर से मिलने की पेशकश की थी। कहते हैं कि उन्होंने स्पष्ट इनकार कर दिया। इस विषय में यह दोहा प्रख्यात है -

हम चाकर रघुवीर के, पट्यो लिख्यौ दरबार। तुलसी अब का होहिगे नर के मनसबदार॥

तुलसी की यह पंक्तियाँ सम्राट् अकबर या व्यक्ति-विशेष की अवज्ञा नहीं, बल्कि राजसत्ता की अवज्ञा है। तुलसीदास परंपराओं और प्रचलित मान्यताओं का अंध विरोध करने के पक्ष में कतई नहीं थे। उनका मानना था कि विरोध के लिए विरोध नहीं करना चाहिए। उनके सच को जानने-समझने वाले मनीषियों को भी लोक-संग्रह के लिए को ही सही उन परंपराओं का निर्वाह करना चाहिए।

परंपराओं और लोक की आस्थाओं पर प्रहार करने वालों को गोस्वामी जी ने आड़े हाथों लिया है। ब्रह्मा की सता निर्गुण -निराकार मानी गई है। उस स्वरूप को पकड़ने वाले साधक कम ही होते हैं। निर्गुण निराकार के ध्यान की विधि भी सामान्यजनों के बस की बात नहीं , प्रारंभिक या सगुण उपासकों की उपेक्षा करने, कोसने वाले कोई संन्यासी सगुण को हेय बयाने और कोरा अलख निरंजन उच्चारने में ही अपनी शान समझते हैं। ऐसे लोगों को तुलसीदास ने बुरी तरह फटकारा है। एक दिन कोई साधु अलख निरंजन का घोष करता हुआ तुलसी दास की कुटिया पर आ गया । वह लगा धनुष - बाण लिए राम कि मूर्ति की आलोचना करने और अलख ब्रह्म की महिमा गाने। गोस्वामी जी ने यह दोहा कहा-

हम लखि लखहि हमार लखि हम हमार के बीच। तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जप नीच ॥

जाना विद्वान् लोगों को यह सिखाते रहे है कि मंदिर में जाना व्यर्थ है , जप-तप व्यर्थ है , तीर्थयात्रा और व्रत-उपवास में कोई सार नहीं है, साकार की उपासना करना मूढ़ता है। जो साकार की उपासना करते हैं, वे परम लक्ष्य से भटक जाते हैं। भारतीय धर्म साधना की धारा में रहकर ही उसकी मान्यताओं को पानी पी पीकर कोसने वालों के गोस्वामी जी कट्टर विरोधी थे। कबीर, दादू आदि संतों ने साकार उपासना और वेद-शास्त्रों की जमकर निंदा की थी। जायसी , कुतुबन , मंझन और उस्मान आदि सूफी संतों ने कहानी, उपाख्यान आदि से वैसा ही प्रतिपादन किया । गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे संतों के निदावाद की जमकर आलोचना की । उन्होंने कहा है-

साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखाना । भगत निरुपर्हि भगति कलि निंदहि बेद पुरान॥

एक स्थान पर वे नाथ पंथियों की आलोचना भी करते हैं। नाथ पंथियों और गोरख पंथियों ने योगमार्ग के प्रति लोगों की रुचि तो जगाई , उसका प्रचार भी किया , लेकिन उनके मतवादों से भक्ति की अवहेलना हुई । योगतंत्र और शरीर साधनाओं में ऊर्जावान चित, स्तर मनःस्थिति और सुदृढ़ मनोभूमि चाहिए । सौ में एकाध साधक ही यह स्थिति अर्जित कर पाते हैं। इसलिए जनसामान्य भक्तिमार्ग अपनाकर ही आत्मिक विकास कर सकता है। नाथ पंथियों और योग मार्गी सिद्धों के प्रभाव को क्षोभ से याद करते हुए गोस्वामी जी ने कहा, “ गोरख जगाए योग, भक्ति भगाए लोग।”

गोस्वामी जी भारतीय धर्म-परंपरा के नैष्ठिक प्रहरी थे, लेकिन हिंदू और इस्लाम दोनों ही धर्मों के लोग उनका सम्मान करते थे। अब्दुर्रहीम खानखाना से उनकी मित्रता विख्यात थी। रहीम ने मानस के संबंध में कुछ पद भी रचे और कहा यह काव्य हिंदुओं के लिए वेद और मुसलमानों के लिए कुरान है। ‘हिंदुआन को वेदासम, तुरुकहि प्रगट कुरान।’

अपने समय और समाज को प्रभावित करने की क्षमता से संपन्न होते हुए भी गोस्वामी जी को विनय जैसा स्वभाव सिद्ध था। संत नाभादास के यहाँ हुई समष्टि (भंडारे) में वे जूते रखे जाने की जगह बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। आचार्य मधुसूदन सरस्वती ने वेदाँस का उपदेश सुनने इसलिए नहीं बुलाया कि उन्होंने भाषा में रचना की। गोस्वामी जी फिर भी पहुँचे और उन्हें प्रणाम किया। उनकी विनय से प्रभावित होकर आचार्य ने मानस का अध्ययन किया। जो साधना व्यक्ति को इतना विनम्र बना दे, उससे परिचय पाकर उन्होंने कहा, काशी रूपी आनंदवन में तुलसीदास चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कविता रूपी मंजरी बड़ी ही सुँदर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।

आश्रम-धर्म के प्रति गोस्वामी जी की निष्ठा अनन्य थी। पत्नी की फटकार सुनकर उन्होंने हालाँकि घर-गृहस्थी छोड़ दी थी। आश्रम-धर्म का अतिक्रमण करते हुए वे संन्यासी हो गए। बाद में पत्नी को छोड़ देने का क्षोभ उन्हें हमेशा सालता रहा। रत्नावली जीवन के उत्तरार्द्ध में उनकी कुटिया के पास कुछ दिन रही भी। जनश्रुति है कि उनका देहाँत कुटिया के पास ही हुआ। संन्यासी होने के कारण अंतिम संस्कार में उन्होंने भाग नहीं लिया, लेकिन प्रबंध जरूर कराया। तुलसी ने किसी रचना में नहीं कहा कि पत्नी की फटकार सुनकर संन्यासी हो जाने का उन्हें पछतावा है। प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नगर ने उनके जीवन-क्रम का विश्लेषण करते हुए यह जरूर कहा कि उन्हें रत्नावली के त्याग का दुःख रहा। इसी कारण उन्होंने राम द्वारा सीता के निर्वासन की कथा अपनी रचना में शामिल नहीं की। सीता के निर्वासन में प्रेम, समर्पण, उत्सर्ग और लोकशिक्षण के कई तत्व खोजे जाते हैं। लेकिन गोस्वामी जी को इस प्रसंग में पत्नी के प्रति बरती गई अपनी निष्ठुरता की याद आ जाती है और भीतर से हूक उठती है कि मेरे इष्ट-उपास्य ऐसे नहीं हो सकते।

गोस्वामी जी के जीवन-प्रसंगों में धर्म-प्रशंसा और अध्यात्म-दर्शन का प्रबल प्रतिपादन पग-पग पर होता है। वे मूर्तिमान धर्म थे। रचनाओं में उसी प्रेरणा प्रत्येक पद और छंद में व्यक्त हुई है। सर्वपल्ली डॉ0 राधाकृष्णन ने उनके एक पद को भारतीय धर्म-संस्कृति और साधना का प्रतिनिधि कहा है। यह पद है -


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