युगगीता-25 - लोकशिक्षण के लिए समर्पित हों जागृतात्माओं के कर्म

August 2000

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(तृतीय अध्याय के अंतर्गत कर्मयोग की युगानुकूल विवेचना)

‘इदं न मम्’ के भाव से किए गए कर्म ही जीवन को यज्ञीय बनाते हैं, यह व्याख्या योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा समझाई जा रही है। कर्मयोग नामक इस तीसरे अध्याय के अंतिम महत्वपूर्ण कर्मयोग प्रधान छह श्लोकों (11 से 16 तक) में मूलतः जो बात समझाई गई है, वह बड़े मार्के की है। भगवान् कहते हैं, यज्ञ प्रक्रिया से, देवों के अनुदान से उपलब्ध भोगों को जो पुरुष बिना बाँटे स्वयं भोग लेता है, वह चोर ही है। जो बिना यज्ञीय भाव से जीवन जिए स्वयं के लिए अपनी रसोई पकाते व खाते हैं, वे वास्तव में पाप को ही खो है। यही श्रीकृष्ण का आध्यात्मिक साम्यवाद है, जो बताता है कि सहकारी-सामूहिक प्रयासों से प्राप्त धन या सामग्री का समान रूप से वितरण होना चाहिए। इसका संग्रह नहीं होना चाहिए। उपभोक्ता प्रधान भोगवादी आज के जीवन में सारी बेचैनी-अशाँति यज्ञीय जीवन न जी पाने के कारण है। उपभोग शब्द यज्ञ से उलटा है एवं प्रकृति में जब भी शोषण प्रधान उपभोग होता है, प्रकृति सभी को सामूहिक दंड देती है, आज भी दे रही है। कर्मकाँड प्रधान यज्ञ व दर्शन प्रधान यज्ञ में अंतर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं। एवं बताते हैं कि यज्ञ तो जीवन की हर श्वास में होना चाहिए। स्वार्थ से परे चल परमार्थ की राह सबकी बने, यही प्रभु की इच्छा है। तेरहवें श्लोक में पहुँचते-पहुँचते योगेश्वर वेदाँत की पराकाष्ठा पर पहुँचकर अर्जुन को बताते हैं कि यज्ञ की अग्नि ब्रह्माग्नि है। इसके पश्चात् के दो श्लोकों में भगवान् बताते हैं कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है। यज्ञ रूपी एक महान् चक्र को वे विश्वरुवस्था के रूप में बता रहें है। एवं अन्न, वृष्टि, सभी प्राणी किस तरह उत्पन्न होते हैं, यह समझा रहे हैं,। जब वे वृष्टि शब्द प्रयुक्त करते हैं, तो उसका अर्थ है, प्राणपर्जन्य। यह जिस यज्ञ से जन्म लेता है वह निःस्वार्थ कर्म के एक विराट् चक्र के रूप में गतिशील है। आज हम जिस विराट् बारह वर्षीय महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति कर रहे हैं, यह भी उसी सामूहिक कर्म का ही एक रूप हैं, जिसे श्रीकृष्ण इस श्लोक में समझा चुके हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने महाविनाश को टालने के लिए ही यह नवसृजन का कार्य हमसे कराया। प्रतिभाओं की सिद्धि का महायज्ञ भी यही है। आइए इस अंक में उस श्लोक की व्याख्या से आरंभ कर आगे बढ़ें।

इस अध्याय के सोलहवें श्लोक में भगवान् पार्थ से कहते हैं, “जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल आचरण नहीं करता, अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पुरुष पापमय जीवन ही बिताता एवं एक प्रकार से व्यर्थ ही जीता है। “ यहाँ अर्जुन को और उसके माध्यम से हम सबको परमात्मा-परब्रह्म के रूप में श्रीकृष्ण की सत्ता समस्त मानवजाति को एक चुनौती दे रही है कि यदि मनुष्य स्थिति कर्म चक्र की विधा के विरुद्ध चलेगा, तो उसका परिणाम आत्मघाती-विनाशकारी होगा। प्रकृति मात्र एक नियम, एक विधि-व्यवस्था का नाम है। वह किसी मनुहार से प्रसन्न होने वाली नहीं है, वह तो मात्र नियमन-कंट्रोल जानती है एवं उसके लिए कर्त्तव्यपरायणता-प्रकृति के साथ सामंजस्य, पारस्परिक सहकार की जीवन-साधना सबसे पहली शर्त है। आज हम प्रकृति की विभिन्न शक्तियों का संरचनात्मक नियोजन कर चाहे बाँध बनाकर, चाहे विभिन्न स्रोतों से उसका दोहन कर जनसाधारण जीवन को सुखी-समुन्नत बनाने का प्रयास कर रहे हैं। विगत डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास विज्ञान की प्रगति का, प्रकृति के संसाधनों के दोहन व सुनियोजन का इतिहास है। किंतु जो भी इकॉलाजिकल अनुशासन प्रकृतिचक्र के विरुद्ध खड़ा होने की हिम्मत करेगा, वह उस महान् कर्मचक्र द्वारा निर्दयतापूर्वक कुचल दिया जाएगा, यह एक कड़ाई के साथ दी जा रही चेतावनी है, जो भगवान् के श्रीमुख से निकली है। मनुष्य जन्म मात्र भोगवादी जीवन, उपभोग प्रधान जीवन जीने के लिए नहीं है। जब तक हमारे कर्मों में यज्ञभावना का समावेश नहीं होगा, सहकारी कर्म के सार्वभौमिक सिद्धाँतों को हम महत्व नहीं देंगे, हमारा अस्तित्व खतरे में ही रहेगा। मानव सुख से धरती पर रह इसे स्वर्ग समान बना सके, इसी के लिए श्रीकृष्ण का यह शाश्वत संदेश इस श्लोक में मुखरित हुआ है।

आज के इस वैज्ञानिक युग में आश्चर्य भी होता है कि स्पष्ट सुनियोजित विधि-व्यवस्था बनाने के बाद भी मनुष्य को असफलता का मुँह देखना पड़ता है। अहंकेंद्रित इच्छाओं में टकराहट क्यों देखी जाती है। भवबंधनों से छुड़ाने वाले एक चिकित्सक के रूप में योगेश्वर कहते हैं कि मनुष्य की असफलता का कारण है उसका मात्र इंद्रियों में रमण करना।

“इंद्रियारामः” शब्द जो सोलहवें श्लोक में आया है, बड़ी खूबसूरती से यहाँ रखा गया है। इसका अर्थ होता है, एक तुच्छ कामातुर व्यक्ति, एक ऐसा असंयमी जिसके लिए मानो नरकीटक का, नरपशु का जीवन ही सब कुछ है। मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की बात तो बहुत दूर है, वह सम्मानपूर्वक श्रेष्ठ जीवन भी नहीं जी पाता। विषय-वासनाओं से युक्त व्यक्ति पापमय जीवन ही बिताता है, ऐसा वासुदेव का मत है एवं ऐसा जीवन व्यर्थ का ही जीवन है, जिसे वह भोगते-भोगते किस तरह काटता है (मोघं पार्थ स जीवति) पूरा श्लोक सबको पुनः याद दिलाने के लिए इस प्रकार है-

एवं प्रवर्तित चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

परमपूज्य गुरुदेव ने इसी श्लोक में उद्धृत तथ्यों ‘प्रज्ञा अभियान’ के संयुक्त विशेषाँक (नवंबर, दिसम्बर 1982) में बड़े स्पष्ट ढंग से लिखा है ‘नरपामर और नरमानव की विभाजन रेखा’ शीर्षक से एक लेख में। इसमें पूज्यवर लिखते हैं, “नरपामर और नरमानव की विभाजन रेखा” शीर्षक एक लेख में। इसमें पूज्यवर लिखते हैं, “नरपामर का अर्थ है, पशुवृत्तियों में निरत पेट-प्रजनन की सीमा में सीमाबद्ध स्वार्थांधता। नरमानव का अर्थ है, वह व्यक्ति जिसे पारिवारिकता और सामाजिकता के साथ जुड़े हुए अनुबंधों के प्रति विश्वास और परिपालन का सहास है।” (पृष्ठ 4), आगे वे पृष्ठ 12 पर इसी अंक में लिखते हैं।, “प्रकृति से तो नरपामर, नरवानर, नरमानव, नरपिशाच और नरनारायण सभी के अंग-अवयव एक जैसे होते हैं, किंतु अंतर एक ही समझ में आता है, जब उनकी प्रकृति की जाँच की जाती है। “

उपर्युक्त दो उद्धरणों में मानवी-गरिमा का हवाला देकर वही बात कही गई है, जो सोलहवें श्लोक के उत्तरार्द्ध में भगवान् ने समझाई है। वे लिखते हैं, “मानव गरिमा का क्षेत्र असाधारण महत्व का है। उसे अपनाने वाले स्वयं जलयान की तरह उफनती नदी को चीरते हुए उस पर जा पहुँचते हैं। इतना ही नहीं, वे असंख्यों को अपने ऊपर लादकर पार करने में भी समर्थ हुए है। नरपशुओं के भाग्य में यह सौभाग्य कहाँ “कितना सटीक विवेचन है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह स्रष्टा के बनाए नियमों के अनुरूप संयमशील-कर्मनिष्ठ जीवन जिए, यज्ञमय उसके कर्म हों, न उसके कृत्य से किसी को चोट पहुँचे, ने वह अपना ही अहित करें। मानव-देह धारण कर स्वच्छंद कामवासना का पाशविक जीवन जीना हमारे घोर पन का सूचक। मानव-समुदाय की महानता पर एक कलंक है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा मानव व्यर्थ ही जीवन जीता है। धरती पर भारभूत होकर रहता है। अगला श्लोक और भी महत्व लिए हुए कहा गया है।

यस्त्वारतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते॥

अर्थात् “ जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करता है और आत्मा में ही तृप्त रहता है तथा आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उसके लिए तो करने को कोई भी कर्त्तव्य शेष नहीं है।”

यहाँ श्रीकृष्ण एक अपवाद की बात कहते हैं एवं अर्जुन को बताते हैं कि कर्म के इस विधान में छूट एक ही शर्त पर मिल सकती है। यह वह छूट है जिसमें मनुष्य बड़ी उच्चस्थिति में जाकर संपादन करने योग्य कर्म अपने लिए शेष नहीं रखता। जहाँ वे कहते हैं कि कर्म सभी को करने ही पड़ेंगे, कर्म से कोई बच नहीं सकता, वहाँ यह भी बताते हैं इस अपवाद भरी स्थिति में वह व्यक्ति जो आत्मज्ञानी स्तर का है, विषय-वासनाओं के पतन शीघ्र लाने वाले जीवन से ऊपर उठ गया है और अपने अंदर विराजमान् चैतन्य भावातीत परमात्मा की सत्ता के प्रति जाग्रत् हो चुका है, उसी में वास करता रहता है, उसी की अनुभूतियों में सतत् रमण करता है, उसके लिए सचमुच कोई भी कर्त्तव्य शेष नहीं है। यह वह व्यक्ति है जिसे जागृतात्मा-देवमानव-देवपुरुष की संज्ञा दी जा सकती है।

यह कोई आसानी से उपलब्ध होने वाली सिद्धि नहीं है, यह भलीभाँति समझ लिया जाना चाहिए। नैष्कर्म्य की सिद्धी अनायास ही नहीं मिल जाती। आत्मा में आत्म रूप से ही स्थित जाग्रत-महामानव किसी साँसारिक कर्त्तव्य से नहीं बँधता, यह बात इस श्लोक में वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य को भलीभाँति समझाई है। क्रमशः उच्चतर सीढ़ी चढ़ाते हुए भगवान् अपने शिष्य के माध्यम से हम सबको अपने अहंकार को मार ऊपर उठना सिखा रहे हैं। पहले अहं भावनाएँ यह दावा कराती थीं कि कर्म हमारे हैं, वासनाओं के वशीभूत हम कर्म करते थे, किंतु अब सिद्धी ऊँचे स्तर पर हमें चैतन्य ब्रह्म के साक्षात्कार की स्थिति तक ले आई है। अब अहंकार मर गया, तो कर्म हमारे नहीं रहे, प्रकृति के, यज्ञ की अधीश्वर सत्ता के हो गए। ऐसी स्थिति में हम मुक्त पुरुष बन जाते हैं, केवल अकर्म में ही नहीं, कर्म में भी। परंतु इसे स्पष्टतः समझे बिना आगे बढ़ना गीता भावोपदेश के साथ अन्याय करना होगा। इसके लिए अगले दो श्लोक व उनका अर्थ भी पहले पढ़ लें तो ठीक रहेगा।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥

तस्मादसक्त सततं कार्य कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरर्न्कम परमाप्नोति पूरुषः॥

अर्थात् “ऐसे महापुरुषों का (आत्मा में रमण करने वाले, तृप्त रहने वाले संतुष्ट व्यक्ति का, जिसका वर्णन सत्रहवें श्लोक में किया गया) इस विराट् विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है अर्थात् उसे कुछ प्राप्त करना नहीं होता, न वह अपेक्षा रखता है तथा कर्म न करने से भी उसकी कोई हानि नहीं होती, वह घाटे में नहीं रहता। न ही ऐसा जाग्रत् महापुरुष किसी वस्तु के लिए स्वार्थ रूप में उस पर आश्रित है। (3/18)। इसलिए हे अर्जुन! तुझे अपने सभी कर्मों का संपादन बिना किसी आसक्ति के करना चाहिए, क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करने वाला मनुष्य ही परम पद को, परमात्मा को प्राप्त होता है।” (3/11)

फिर पूर्व के श्लोक पर चलकर इन दोनों श्लोकों के गूढ़ अर्थों को समझने का प्रयास करें, तो ठीक रहेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं, “आत्मतृप्तश्च मानवः” जो आत्मा में ही तृप्ति की अनुभूति कर लेता है, उसकी विषय प्रधान भौतिक जगत् में किसी प्रकार की कामना शेष नहीं रह जाती। वह तो जाग उठा है, उसकी विषय प्रधान भौतिक जगत् में किसी प्रकार की कामना शेष नहीं रह जाती । वह तो जाग उठा है, जागृतात्मा है, उसे अब स्वप्न पदार्थों की लालसा नहीं सताती। सांसारिक भोग्य पदार्थ की कामनाएँ उसे अब व्यथित नहीं करतीं। इस प्रकार आत्मरतिरेव, आत्मतृप्तश्च, आत्मन्येवयसंतुष्टः ऐसे महापुरुष के लिए कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जो उसके लिए कर्त्तव्य शेष है, ऐसा कहा जा सके। इतनी घोषणा करने के बाद येगाचार्य सद्गुरु श्रीकृष्ण अपने शंकालुचि वाले शिष्य अर्जुन की भ्राँयों को जो जन्म लेने वाली है, निर्मूल करते हुए तुरंत कहते हैं, कहते ही नहीं, उसके न पूछे गए प्रश्न का उत्तर भी अनायास ही दे देते हैं, वह (महापुरुष) जानता है कि कुछ प्राप्त करने की कामनाएँ या कर्म न करने से होने वाली हानि से बचने की कामनाएँ ही हमें कर्मों की ओर प्रेरित करती हैं। आत्मा में ही संतुष्ट रहने वाले व्यक्ति को जो तृप्ति प्राप्त होती है, उसके कारण उसे कर्म द्वारा न तो कुछ प्राप्त करना ही शेष रह जाता है, नहीं कुछ खोना ही। (नैव तस्य कृतेनार्थ-नाकृतेनेह कश्चन)

हम सभी समाज में जीते हैं। हमारे सभी कर्मों के पीछे किसी-न-किसी की सहायता भी एक भूमिका रखती है। ऐसे में हम जो इन झूठे संबंधों को साथ लेकर जी रहे है, कई अतिरिक्त कर्त्तव्यों से जुड़ जाते हैं। किंतु जाग्रत् स्तर पर पहुँची आत्मा अपने अंदर की पूर्णता से तृप्त होकर किसी भी व्यक्ति पर, किसी भी पदार्थ के लिए स्वार्थ रूप में आश्रित नहीं होती। ऐसे ज्ञानी बड़े दुर्लभ होते हैं, परंतु यह सिद्धि इतनी विलक्षण है कि इसके बाद उसके हर कर्म भगवत् कर्म बन जाते हैं।

अर्जुन संभवतः इस उच्चस्तरीय दर्शन को न समझा सका हो, इसलिए भगवान् कहते हैं। कि कर्त्तव्य -कर्म तो सभी को करना चाहिए, पर बिना किसी आसक्ति-भाव के। अहंकार भाव की स्थिति में बैठे हम सभी अर्जुनों को अपने लिए एि जाने योग्य कर्मों को करने की रीति-नीति भगवान् बता रहे है, बिना फल की कामना के, बिना किसी प्रकार की आसक्ति के। (तस्माद् असक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर)।

ये कर्त्तव्य-कर्म क्या है जीवनचर्या के साथ दैनंदिन किए जाने वाले कर्म तथा विशिष्ट दायित्व आने पर विशेष अवसरों पर युगधर्म की पुकार पर किए जान वाले कर्म। आसक्तिरहित होने का अर्थ है, अपना अहंकार और अहंकेंद्रित कामनाओं दोनों को ही मूलतः समाप्त कर देना। इस तरह की जीवन जीने की शैली सीखते ही मानवी मन में संव्याप्त वासनाएँ समाप्त हो जाती है, हृदय शाँति व आनंद से भर जाता है इस शाँत मन में ही वह परमात्मसत्ता के दर्शन कर पाता है। क्या आसक्तिरहित होकर मात्र लोककल्याण के भाव से कर्म कर पाना संभव है परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी इसका उत्तर देती है। वे लिखते हैं, “साधु-ब्राह्मणों देव समुदाय से पूछना पड़ेगा कि वे व्यक्ति सुविधाओं में कटौती करके सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन की सेवा-साधना के लिए क्यों अपने को समर्पित करते हैं ऋषिगण भी विलासियों की रह साधन-सामग्री उपार्जित कर सके थे। फिर क्यों उन्होंने गरीबों जैसा बाना पहना इसका उत्तर भी उस समाधान के साथ जुड़ा हुआ है, जिसमें दबाने की तुलना में खिलाने के जायके को अत्यधिक स्वादिष्ट पाया जाता है। “ नाचते हुए शब्दों की तरह लिखा उपर्युक्त कथन भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है।

स्वार्थ के लिए हमारे कर्म न हों, परमार्थ के लिए समर्पित हमारे कर्म हों। आसक्तिरहित होकर कर्म करने से व्यक्ति परमपद प्राप्त करता है। असक्तः ह्माचरर्न्कम परमाप्नोति पूरुषः) इस कथन को योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले श्लोक में उद्धृत कर उदाहरण के साथ सिद्ध भी करते हैं।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसड्ग्रहमेवापि सम्पश्यर्न्कतुमहंसि॥ (3/20)

अर्थात् “जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। अतः लोकसंग्रह (लोकशिक्षण-मार्गदर्शन) को देखते हुए भी तुझे कर्म करना चाहिए।”

जनक राजा होते हुए भी विदेह कहलाते थे। उन्हें किसी लौकिक पदार्थ से कोई आसक्ति नहीं थी। ऐसे ही ज्ञानीजनों ने सदैव परम सिद्धि प्राप्त की है। ऐसे ही व्यक्ति अपने आचरण से लोकशिक्षण कर पाते हैं, जन-जन को मार्गदर्शन दे पाते हैं। निष्कर्म भगवान् के लिए किया गया कर्म है। यह कैसे किया जाता है, इसके लिए भगवान् को जनक से श्रेष्ठ कोई उदाहरण मिल भी कैसे सकता था। वही उन्होंने दिया है। जनक उत्कृष्ट कोटि के साधक भी थे, जिज्ञासु भी व मिथिला देश के राजा भी। अपने निर्वाह के लिए खेती करके अन्न उपजाते थे। राज्य का एक पैसा भी नहीं लेते थे। उनके दो गुरु थे। एक थे अष्टावक्र और दूसरे याज्ञवल्क्य। अष्टावक्र ज्ञानी थे एवं याज्ञवल्क्य योगी। अष्टावक्र गीता में उनके व जनक बीच संवाद की चर्चा आती है। एक बार मिथिला में सत्संग का आयोजन हुआ। अधिष्ठा थे महर्षि व्यास। सभी ज्ञानी-तपस्वी आए थे। प्रवचन दिए जा रहे थे। देह-माया-वेदाँत-परब्रह्म सभी विषयों पर तर्क सम्मत उक्तियों के साथ चर्चाएँ हो रही थीं। इस बीच महर्षि व्यास ने उठकर कहा कि बिना जनक के सभी फीकी है। उनके आने बाद ही अगला सत्र करेंगे। सभी ज्ञानी ऋषि-मुनियों को लगा कि एक साधारण राजा जनक के लिए व्यास जी सत्र क्यों रोक रहे हैं। एक सामान्य गृहस्थ राजा के लिए ऋषिगण क्यों रुकें। वे व्यास जी से जूझ पड़े। कहने लगे, आप हममें व राजा में अंतर नहीं समझते। महर्षि धैर्य रखते हुए बोले, ऋषिगणों! जनक को आने दीजिए। उनके आचरण से आपको पता लग जाएगा कि क्यों हमने उन्हें विशिष्ट माना है।

जनक आए। चूंकि देरी से आए थे, सब से क्षमा माँगी। जैसे ही वह आकर बैठे, महर्षि व्यास ने योगबल से चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर दी। चारों तरफ आग देखकर ऋषिगण दौड़े, किसी के कोपीन-अंगवस्त्र आदि सूख रहे थे, उन्हें बचाने भागे। व्यास ऋषि बोले, भाई! आप सब दौड़ क्यों रहे हैं। वह शरीर तो एक दिन समाप्त होना ही है, आत्मा कभी मरती नहीं और हम अभी आत्मज्ञान की बातें कर रहे थे। आप सब इन लौकिक पदार्थों के लिए, अपनी शरीर रक्षा के लिए क्योंकर दौड़ रहे हैं। ऋषिगणों ने देखा कि जनक नहीं दौड़े, अपने स्थान से नहीं हटे। महर्षि व्यास ने कहा कि आप जनक की बात सुन ले एक क्षण रुककर। आपको समाधान मिल जाएगा। जनक ने कहा-”मिथिलायाँ प्रदीप्तियाँ न में दहयति किंचन “ मिथिला जल रही है, मैं नहीं जल रहा हूँ। सारे मिथिला में आग लग जाए, तो भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा। राजकाज की व्यवस्था मैं करके आया हूँ। सारे मिथिला में आग लग जाए, तो भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। राजकाज की व्यवस्था मैं करके आया हूँ। काम कोई न कोई करता ही रहेगा। भगवान् ने आग लगाई है, वह मात्र शरीर को ही तो कष्ट देगी। भगवान् देखेगा कि मुझे क्या करना है। योगबल से लगी आग बुझ गई। सभी ऋषि जान गए कि जनक विदेह क्यों कहे जाते हैं, विशिष्ट क्यों है। अनासक्त कर्मयोग का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अपने शिष्य के सम्मुख भगवान् ने प्रस्तुत किया है।

बिना आसक्ति के प्रभु की पूजा मानकर हम सभी अपने कार्यों को संपादित करें जैसे जनक करते थे, वह आदेश ईश्वर का है। जनकादयः में उन्होंने जनक जैसे कई औरों का भी संकेत किया है यथा प्रहलाद, अंबरीश, इक्ष्वाँक, अश्वपति आदि। जनक को मॉडल मानकर उनका नाम मात्र ले लिया है। यह महर्षि वेदव्यास के काव्य की पराकाष्ठा का प्रतीक है कि वे किस तरह श्रेष्ठजनों के उदाहरणों से जन-जन को शिक्षण पहुँचाना चाह रहे हैं। अर्जुन युद्ध करे या न करे, भगवान् उससे कह रहे है। कि उसे लोकसंग्रह के लिए लोक-शिक्षण के लिए, अपने लिए निर्धारित मानवी गरिमा के अनुरूप, युगधर्म निमित्त तय कर्मों को संपादित करना चाहिए। समाज का पिछड़ा तबका मार्गदर्शन ऐसे लोकनायकों से ही पाता है। समाज का शिक्षित प्रबुद्ध प्रतिभावान् तबका यदि कर्त्तव्यपथ से हट जाएगा, तो समाज का क्या होगा। “लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन” लोक-शिक्षण के लिए युगानुकूल समस्याओं को हल करने के लिए जीवन जीने की कला का शिक्षण देने के लिए सुलझे हुए व्यक्तित्व वाले महामानवों की आवश्यकता है। धरती पर जीने जो भी आया है, उसे कर्म करना ही होगा, कर्मों की सुगंधि फैलानी होगी एवं शिक्षण हेतु जीना होगा। ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तिगत कर्म भी समाज पर एक अमिट प्रभाव छोड़ते हैं। इसलिए वे अर्जुन के माध्यम से सभी जागृतात्माओं को एक उद्बोधन दे रहे हैं, वे लोकहित के लिए निरंतर तपते रहे, कर्म करते रहे। अर्जुन असमंजस में भी है कि मेरे व्यक्तिगत कर्मों का और लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। मैं क्या करा हूँ इससे लोक को क्या मतलब एवं लोक क्या करता है, उससे मुझे क्या मतलब यहाँ भगवान् अंतर करना चाह रहे हैं, अर्जुन जैसी विभूति में तथा अन्य अनेकानेक शिश्नोदर परायण जीवन जीने वालों में। वे बाना चाह रहे है उसी भूमिका विशिष्ट हैं। जैसा आचरण श्रेष्ठजनों का-जागृतात्माओं का होता है, वैसा ही अनुसरण करता हुआ समाज ढलता चला जाता है।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि श्रेष्ठ आत्माएँ, सद्गुरु, अवतार वास्तव में लोकशिक्षण के लिए ही, डिमाँस्ट्रेशन देने के लिए ही आते हैं। युगानुकूल समस्याओं का वे स्वयं जीवन में जीते हुए समाधान सबके लिए प्रस्तुत करते हैं। इसी बात को परमपूज्य गुरुदेव अपनी लेखनी से प्रज्ञा-अभियान के अक्टूबर-नवंबर 1981 के अंक में इस रह लिखते हैं, “इन दिनों सबसे बड़ी कठिनाई एक ही है, जीवन के अंतरंग-बहिरंग क्षेत्रों में आदर्शों को ओतप्रोत किए हुए व्यक्तित्वों का उदाहरण भरा मार्गदर्शन। उपदेशकों की धूम है। अखबारों में नाम छपने, लोकसेवी के रूप में क्ष्याति मिलने पर व्यापार पनपाने जैसे कितने ही प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देते हैं, जिनका लोभ संवरण करते नहीं बनता। ऐसे विषय समय में जागरुकों का अग्रगमन समय की सबसे बड़ी, सबसे प्रमुख आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के लिए प्राणवान् प्रज्ञापरिजनों को ही अपना उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। वे जागेंगे, तो अन्य भी जागेंगे।” (पृष्ठ 24)। इस उद्धरण से लोकसंग्रह वाले परमसत्ता के उपदेश को समझा जा सकता है। इसी से संबंधित और भी विस्तार से चर्चा आगे के इक्कीसवें श्लोक के साथ अगले अंक में।


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