पति को पुत्र बना लेने का आशीष

August 2000

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सामान्य अर्थों में विवाह का उद्देश्य एक-दूसरे का वरण, निर्वाह, साथी-सहचर बनकर रहना और संतान का जन्म देना, उसका पालन-पोषण और विकास करना है। शरीर और मन की निजी आवश्यकताओं को साथी-सहचर के माध्यम से पूरा करते हुए सभ्यता ओर समाज के क्रम को आगे बढ़ाना पारिवारिक जीवन की सफलता है। विभिन्न सभ्यता-संस्कृतियों ने परिवार के संबंध में अलग अलग तरह से इसी मान्यता का प्रतिपादन किया है। अभिव्यक्ति और व्याख्या का स्वरूप भिन्न हो सकता है, लेकिन स्वर एक ही है,स्त्री पुरुष साथ रहें, उल्लास मनाएँ, वंश-परंपरा को आगे बढ़ाएँ और एक दूसरे की आवश्यकता सुविधा का निर्वाह करें।

विवाह के सामान्य उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ही दुनियाभर की सभ्यताओं ने नवदंपत्ति के लिए आशीर्वाद या शुभकामनाएँ रची है। उनमें सुखी रहें, धन धान्य बढ़े ,यशस्वी बनने जैसे भावों के अलावा यह भाव भी अनिवार्य और मुख्य होता है कि बहुत सी संतानों का जन्म दो, सौभाग्यवती रहो और दोनों एक दूसरे से प्रसन्न- दूसरे से प्रसन्न-संतुष्ट रहो । बहुत सी संतानों को जन्म देने का आशीष जिन दिनों दिया जाता था, उन दिनों आबादी कम थी और चुनौतियाँ बहुत अधिक थी। युद्ध , अकाल, महामारी, प्राकृतिक विपदा और असुरक्षा के माहौल में व्यक्ति किसी भी समय जीवन से हाथ धो बैठ सकता था । असमय और अकस्मात् मृत्यु की घटनाएँ आज जितनी होती है, बीस गुना ज्यादा घटनाएं सौ साल पहले तक होती थी। पचास वर्ष पहले तक भारतीय परिवारों में दस बारह बच्चों का जन्म होता था। उनमें से दो तीन ही पचास साठ साल तक जी पाते थे। आज स्थिति भिन्न है चार पाँच बच्चे जन्म लेते हैं, तो लगभग सभी जी जाते हैं । इसलिए आज के समय में बहुत सी संतानों को जन्म देने का आशीर्वाद नहीं दिया जाता, परिवार सीमित रखने और बच्चों को सुयोग्य नागरिक बनाने का आशीर्वाद दिया जाता है। आशय यह कि परिवार की कल्पना में संतान अब भी अनिवार्य रूप से शामिल है।

विवाह, परिवार और संतान की कल्पना में स्त्री-पुरुष के संबंधों का स्वरूप पूरे जीवन में एक ही स्तर पर चलता है। किन्हीं सभ्यताओं में पुरुष की सता प्रमुख है, तो किन्हीं में स्त्री की । पितृसतात्म या मात्सतात्मक सभ्यताओं के अलावा घरों में भी स्थिति और स्वभाव के अनुसार पति या पत्नी में से किसी एक की सता मुख्य होती है। सामान्यतः शारीरिक स्थिति,स्वभाव और कठोर प्रकृति के कारण पुरुषों का प्रभाव ही ज्यादा रहता है। लेकिन चर्चा यह नहीं हैं। विवाह के समय वर वधू की जो स्थिति होती है, वह आपसी संबंधों और घरेलू सामाजिक परिवेश में थोड़े बहुत अच्छे बुरे बदलाव के साथ हमेशा चलती रहती है । यानी पति पत्नी दोनों एक दूसरे से अनुशासित और बच्चों के संदर्भ में माता पिता है । स्वजन संबंधियों से भी उनका रिश्ता, निश्चित प्राय है। संबंधों में दूरी , निकटता , मधुरता और कड़वाहट आती जाती रहती है, मूल आधार में कोई परिवर्तन नहीं आता ।

(वैदिक दृष्टि स्त्री की परिणति मातृत्व में मानती है। पुत्री , बहन , पत्नी , मित्र आदि संबंध स्त्री हृदय में खिलने वाले भावों के पड़ाव कह सकते हैं। सभ्यता और संस्कृति उसे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में देखती है। निजी जीवन में वह पत्नी , सखी ,सहचर के रूप में ज्यादा पसंद की जाती है। प्रेम,त्याग सेवा और उत्सर्ग के भाव पत्नी या सहचर की भूमिका में ही पूरी तरह खिलने लगते हैं।)

वेदों ने पति-पत्नी के संबंधों की सफलता का अलग मानदंड निश्चित किया है । विवाह के समय ऋषि नवदंपत्ति के लिए दिए जाने वाले आशीर्वाद में न केवल यह कामना व्यक्त करते हैं , बल्कि दिव्य शक्तियों से प्रार्थना भी करते हैं कि वर वधू इस भावना की चरितार्थ करें । ऋग्वेद में विवाह के समय वधू को आशीर्वाद दिया गया है, ‘दशास्याँ पुत्रन धेहि पतिमेकादशं कृधि ‘ (10.85,45) अर्थात् हे इंद्रदेव ! इस स्त्री को दस पुत्र हों , जिससे पति इसका ग्यारहवाँ पुत्र होवे ।

दस पुत्रों को जन्म देने का अर्थ मातृत्व का विकास है। वैदिक दृष्टि स्त्री की परिणति मातृत्व में मानती है। पुत्री , बहन ,पत्नी , मित्र आदि संबंध स्त्री हृदय में खिलने वाले भावों के पड़ाव कह सकते हैं। सभ्यता और संस्कृति उसे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में देखती है। निजी जीवन में वह पत्नी , सखी सहचरी के रूप में ज्यादा पसंद की जाती है। प्रेम, त्याग ,सेवा और उत्सर्ग के भाव पत्नी या सहचरी की भूमिका में ही पूरी तरह खिलने लगते हैं। समझा लिया जाता है कि कोई स्त्री पत्नी के रूप में सफल सिद्ध हुई , तो उसका व्यक्तित्व सार्थक हुआ। अन्य क्षेत्रों में वह कितनी ही उन्नति कर ले, गृहिणी या पत्नी के रूप में कहीं भी चूकी तो वह नाकाम है।

यह दृष्टि अधूरी है और स्त्री को दासी , रमणीय, पशुधन समझने वाली स्थिति की ओर धकेलती है। स्त्री की सार्थकता गृहिणी और पत्नी मात्र बने रहना ही मान लिया जाए, तो सभ्यताएँ ठहर जाती है। उनका विकास रुक जाता है। उदाहरण के लिए, अपने देश में एक समय क्रूर, कर्कश, निरक्षर, असभ्य और निष्ठुर स्त्री को भी सिर्फ पतिव्रता होने के आधार पर ही आदरणीय मान लिया जाता था। उसकी तुलना में सभ्य, सुसंस्कृत, शिक्षित और सहृदय महिलाओं को भी इसलिए हेय बता दिया जाता था कि उनमें खुलापन है, लोगों से मेल-जोल बढ़ाने और समाज में आने जाने से उन्हें कोई उनकी यौन-शुचिता पर अँगुली उठा दे तो कुलटा, व्यभिचारिणी , कलंकिनी और पतिता जैसे कितने ही आरोप मढ़ दिए जाते । गलतफहमी से भी स्त्री के शील पर किसी ने संदेह कर लिया, तो उसकी सभी उपलब्धियाँ और सेवाएँ नकार दी जातीं। यदि वह किसी के लिए स्वार्थ साधने लायक स्थिति में ही तो ठीक, अन्यथा समाज में उसका कोई स्थान नहीं रह जाता ।

स्त्री की भूमिका पत्नी, गृहिणी या रमणी तक ही सीमित मान लेने का दुष्परिणाम यह हुआ कि वे संतान को जन्म देने में तो समर्थ हुई , उनका विकास नहीं कर सकीं। उनके पास मातृत्व देने और हृदय से सत्पात्र को अनुशासित करने जैसी क्षमता नहीं रही। ऋषि जब यह आशीर्वाद देते हैं। कि इस स्त्री के दस पुत्र उत्पन्न हों और पति ग्यारहवां पुत्र बने तो उसमें मातृत्व का ही आह्वान है। मंत्र का भाव यह है कि मातृत्व परिपक्व हो । परिपक्वता की कसौटी यह है कि संतान को देखकर तो वात्सल्य भाव आए ही, पति भी संतान की तरह दिखाई दे। यह कसौटी प्रचलित मान्यताओं से मेल नहीं खाती ।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से पारिवारिक जीवन का उद्देश्य परस्पर सहयोग, स्नेह ,सेवा और अवलंबन है।जीवन का क्रम अबाध चलता रहें, देश, समाज में योग्य नागरिक विकसित हों और व्यक्ति क्योंकि मरणधर्मा है, इसलिए उसकी शृंखला बनी रहे । जीवधारी अथवा व्यक्ति का अभाव न हो । इसलिए परिवार आवश्यक हैं । समाजशास्त्र के अलावा एक जैविक दृष्टि भी है, जिसके अनुसार एक दूसरे की शारीरिक मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोग विवाह करते हैं। घर बसाते और वंश चलाते हैं। बहुतों की दृष्टि में विवाहित जीवन का उद्देश्य यौन इच्छाओं की संयत पूर्ति और निष्ठा या सुरक्षा का आश्वासन भी हैं।

पारिवारिक जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा भिन्न हैं। उसमें जैविक और सामाजिक आवश्यकताएँ तो पूरी होती हैं । लेकिन अध्यात्म वहीं तक सीमित नहीं हैं। उस आस्था को ग्रहण कर लिया जाए, तो जैविक, सामाजिक आधार गौण हो जाते हैं। अध्यात्म ही प्रमुख हो जाता है। किसी पक्ष की उपेक्षा होनी हो तो जैविक और सामाजिक पक्ष की ही बारी आती है। मान्यता और व्यवहार में स्थापित होने के बाद आध्यात्मिक भाव की उपेक्षा नहीं हो सकती । ऋषि ने अपनी शुभकामना आशीर्वाद में अध्यात्म भाव को ही वरेण्य माना है।

पति पत्नी के संबंधों में यौन-सुख ही महत्वपूर्ण है। यदि वंश-वृद्धि ही आधार है, तो उसके लिए धर-गृहस्थी बसाए बिना प्रकृति की प्रेरणा से संसार के क्रम को चलाते रहते हैं। परिवार को समाज-संस्था की नींव समझा जाए और उसके तकाजों से सभ्यता के विकास का दावा किया जाए तो भी बात गले नहीं उतरती । सभ्यता और प्रगति का जो सुख इन दिनों लोग भोग रहे है, वह परिवार का अतिक्रमण करने वाली प्रतिभाओं और जातियों के कारण ही संभव हो सका है। जिन आविष्कारों ने मनुष्य के श्रम को घटाया, सुविधाओं के नए नए रूप खोजे और आँतरिक दृष्टि से समृद्ध करने वाले चिंतन को नए आयाम दिए, वे घरेलू किस्म के व्यक्तियों का पुरुषार्थ नहीं है। वैसे आविष्कार घर परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त या उनकी उपेक्षा करने वाली प्रतिभाओं से ही संभव हो सके है।

वैज्ञानिक प्रगति या विज्ञान की नई नई खोजें पश्चिमी देशों में ही संभव हुई हैं। सत्रहवीं अठारहवीं शती में हुई औद्योगिक और वैचारिक क्राँतियों ने सभ्यता के वर्तमान स्वरूप की नींव रखी। वे क्राँतियाँ ब्रिटेन, फ्राँस और पुर्तगाल आदि देशों में हुई । इन सभी देशों में परिवार संस्था भारत की तरह सुदृढ़ साँचे में ढली और अविचल नहीं है । वहाँ ढीले ढाले परिवार हैं। लोग विग्रह या टकराव का नारकीय होने की हद तक झेलते रहने के बजाय अलविदा कहना पसंद करते हैं। यदि समाज की प्रगति और विकास को सिर्फ परिवार संस्था के आधार पर ही संभव मानें तो पश्चिमी देशों के स्थान पर भारत को भौतिक दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न होना चाहिए था। ब्रिटेन की नहीं भारत की प्रभुता इतनी विस्तीर्ण होनी चाहिए थी कि उसके राज्य में सूरज नहीं डूबता।

अध्यात्म की दृष्टि से विवाह न तो निजी जीवन को सुखद सरल बनाने के लिए आवश्यक है और न ही समाज की स्थिरता के लिए। वह मनुष्य की अंतर्निहित संवेदना को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए है। रतिसुख, संतति, सुरक्षा, स्थिर जीवन और स्वजन संबंधियों का निर्वाह संवेदना को पूर्णता तक पहुँचाने के कुछ पड़ाव है। इन्हें यात्रा के साथ निभ जाने वाली दूसरी आवश्यकताएँ भी कह सकते हैं। वैदिक ऋषि के अनुसार ये लक्ष्य तक पहुँचने वाली सीढ़ियों है। इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन इन पर निर्भर भी नहीं हुआ जा सकता ।

दस पुत्रों को जन्म देने और पति को ग्यारहवाँ पुत्र बना लेने वाले आशीर्वाद को तंत्र ने भी अपनाया है। वेद मंत्रों की नैतिक, मनोवैज्ञानिक और आदर्शवादी व्याख्या करने वालों के अनुसार मंत्र का आशय कामभावना का अतिक्रमण है। विवाह का उद्देश्य यौन -जीवन में संयम-संतुलन रखते हुए कामभाव का परिमार्जन करना और उससे मुक्त हो जाना है। रागात्मक संबंधों में यदि काम की प्रधानता न हो तो वे एक दूसरे की देखभाल, सुख-सुविधाओं की चिंता करने और उसकी व्यवस्था बनाने के रूप में ही निभते हैं। शरीर असमर्थ हो जाए, थक जाए निष्क्रिय हो जाए, तो भी कामभाव का लोप नहीं होता । शरीर के असमर्थ हो जाने पर वह और विकृत हो जाता है। साठ-पैंसठ साल के बाद कई वृद्धजनों के व्यवहार में अश्लील टिप्पणियाँ घृणित और कुत्सित रूप में व्यक्त होती है। उसका कारण मन के स्तर पर पड़ने वाले दबाव ही है। अध्यात्मविद् कहते हैं कि गृहस्थधर्म का भलीभाँति पालन किया गया हो तो उसकी परिणति कामभाव से मुक्ति के रूप में ही होगी।

तंत्र की मान्यता है कि कामभाव का सही उपयोग किया जाए, मूलाधार केंद्र में बैठी कुँडलिनी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाया जाए, यौन संबंधों के रतिसुख को साक्षी भाव से देखे और उसका अतिक्रम कर जाएँ, तो ऋषि का आशीर्वाद फलीभूत होता है । ऋषि ने वधू को आशीर्वाद दिया है कि वह दस पुत्रों की माँ बने और ग्यारहवाँ पुत्र उसका पति हो । इसी आशीर्वाद में पुरुष के भी कामभाव से मुक्त होने की कामना है। पत्नी यदि माँ बन जाएगी , तो पति में भी स्त्री के प्रति मातृत्व का भाव विकसित होगा। नैसर्गिक दृष्टि से संतान का संबंध माँ से ही होता है। स्थूल दृष्टि से पिता एक सामाजिक आवश्यकता भर है। स्थूल दृष्टि से माँ के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। वह शरीर और समाज की दृष्टि से भी संतान की जाननी अभिभावक है। मंत्र में स्त्री का उल्लेख कर उसी मातृत्व को प्रतिष्ठा दी गई है।

कुँडलिनी जागरण, चक्रवेधन, योगिनी , भैरवी आदि साधनाओं में कामभाव का प्रत्यक्ष का परोक्ष उपयोग किया जाता है । उस तरह के प्रयोग उलझनों से भरे हुए है। दक्षिणमार्गी साधनाओं में साधक सहज सामान्य जीवन जीते हुए भी ऋषि की शुभकामना-आशीर्वाद या दिव्य शक्तियों से प्रार्थना को पुरी कर सकता है। इस युग में भी कई विभूतियों ने पत्नी को माँ के रूप में देखने या पति को पुत्र बना लेने वाली सिद्धियाँ हस्तगत की है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने विवाहित जीवन आरंभ करते ही पत्नी को महाशक्ति के रूप में देखा। उन्होंने संतान की कभी कामना नहीं की । लीलाप्रसंग में किसी ने उनसे पूछा भी सही कि माँ (शारदामणि) के मन में कभी संतान की इच्छा नहीं हुई। परमहंस ने कहा, माँ से ही पूछो न बाबा । मुझसे पूछते हो तो यही उतर है कि मैं उसका ही शिशु हूँ। महात्मा गाँधी जीवन के उत्तरार्द्ध में कस्तूरबा को माँ कहने लगे थे। उनसे प्रेरणा लेकर कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और साधकों ने अपने दाम्पत्य जीवन से कामभाव को विदा कर दिया। वे पत्नी को माँ और पति को पुत्र समझने लगें। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आवेश में भी यह व्रत लिया। वे अध्यात्म की उन ऊँचाइयों तक भले न पहुँचे हों , लेकिन औसत स्तर से ऊपर उठे है। मन को मारकर लिए गए व्रत ने बाद में परेशान भले ही किया हो, लेकिन उन कठिनाइयों को जीवन में होने वाली दूसरी कठिनाइयों के साथ रखकर देखें तो वे भारी नहीं थी ।

शास्त्रों और साधकों ने शक्ति की कामना स्त्री और माँ के रूप में की है। कोई भी साधक महाशक्ति को पत्नी या पुत्री के रूप में नहीं देखता । शक्ति के प्रति यह भाव जीवन-चेतना के सामान्य-स्वाभाविक आवेगों को पार कर संवेदना के उस क्षीरोदधि को पा लेने का भाव है जहाँ ममता, वात्सल्य, अनुग्रह और करुणा ही व्याप्त है। विविधता है, तो इन्हीं के तरल सघन रूपों में अन्यथा सर्वत्र एक स्नेहिल भाव है। वह भाव समर्पण और उसकी समुद्र समाना बूँद में जैसी सिद्धि तक पहुँचाता है।


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