तंत्र को न तो गर्हित समझे और न ही बनाएँ

August 2000

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विभिन्न साधनाएँ बिना गुरु के भी संपन्न की जा सकती हैं। उन्हें करने में कोई झंझट नहीं है। नाम−जप, स्तुति पाठ, स्मरण, कीर्तन आदि का क्रम चलाने में सतत् मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है। ये साधनाएँ एक बार गुरु से सुनकर, दीक्षा लेकर कहीं भी चलाई जा सकती हैं। तंत्र के संबंध में ऐसा नहीं है। उस मार्ग पर चलते हुए मार्गदर्शन और संरक्षण की सतत् आवश्यकता है। उसके बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ा जा सकता, क्योंकि तंत्र-साधना करते हुए साधक का विकास तीव्रगति से होता है। सहज सामान्य विकास अपने ढंग से चलता रहता है, वहाँ कोई जोखिम नहीं। लेकिन तंत्र एक विशिष्ट विधा हैं उसके अनुभव से गुजरते हुए सतत् देखभाल चाहिए।

तंत्रमार्ग के आचार्यों ने इस अंतर को दैनंदिन व्यायाम और शरीर-सौष्ठव की साधना करने वालों के विशेष प्रयोगों-अभ्यासों से समझाया है। सामान्य स्वास्थ्य के लिए सुबह टहलना, आधा घंटा दौड़ लेना, कुछ आसन आदि कर लेना और आहार-विहार में संयम रखना पर्याप्त है। जिन्हें शरीर को सुदृढ़, महाबली बनाना हो, उन्हें योग्य-समर्थ पहलवानों, उस्तादों की देख−रेख में घंटों नियमित व्यायाम करना पड़ता है। घंटों प्रतिदिन वर्षों तक अभ्यास करने के बाद वे कड़ी प्रतिद्वंद्विता में टिकी रहने वाली सामर्थ्य अर्जित कर पाते हैं। उस सामर्थ्य को स्थिर रखते हैं। तंत्र-साधना अपने भीतर विद्यमान् दिव्य शक्ति के विशिष्ट जागरण, आहान और अर्जन की विधान है। उसे गुरु अर्थात् समर्थ मार्गदर्शक के साथ संपन्न किया जा सकता है। अपने आप किए गए प्रयास या प्रयोगों में लाभ के साथ हानि की संभावना भी है, बल्कि नुकसान का जोखिम ही ज्यादा है।

तंत्र को अध्यात्म जगत् का व्यावहारिक विज्ञान कहा गया है। विज्ञान का क्षेत्र सिद्धाँत की दृष्टि से सभी के लिए खुला है। किसी के लिए प्रतिबंध या निषेध नहीं है। लेकिन व्यवहार में हर किसी को इतनी छूट नहीं दी गई है कि जो भी चाहे स्थिति, योग्यता और अवसर का विचार किए बिना उसमें घुसपैठ कर जाए। योग्यता और मार्गदर्शन उस क्षेत्र में प्रवेश करने की पहली शर्त है। प्रवेश के बाद इस कसौटी पर निरंतर खरे उतरते रहना पड़ता है। विज्ञान की सिद्धि से कितने ही चमत्कारी और उपयोगी यंत्र उपलब्ध है। उसे हर कोई जब चाहे छूने-छेड़ने नहीं लगता। जब तक कोई जानकार अनुभवी मास्टर उनका उपयोग सिखा नहीं देता तब तक मंत्रों को छेड़ने की हिम्मत नहीं होती। किस स्विच या बटन को दबाने से यंत्र किस तरह काम करने लगेगा, यह जानकारी यह यंत्र का विज्ञानी अथवा याँत्रिक ही दे सकता है। तंत्र की विधियाँ भी रोजमर्रा काम आने वाली सामान्य और विशिष्ट मशीनों तरह ही जटिल हैं। जो प्रयोग नहीं जानते, उनके लिए विधियाँ हानिप्रद ही है। बिना योग्य गुरु के सिखाए और उनका संरक्षण प्राप्त किए, इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।

गुरु या मार्गदर्शक की अनिवार्य आवश्यकता होते हुए भी आचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है, धर्म या अध्यात्म के क्षेत्र में तंत्र ही आज के युग में सबसे ज्यादा उपयोगी और सुलभ है। जिस प्रकार व्यवहार जगत् में आज विज्ञान का युग हैं, उसी प्रकार अध्यात्म जगत् में तंत्र का युग हैं। यह सबके लिए खुला है। कोई भी इस क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है। प्रवेश के बाद विधिवत् उपयोग किया जाए, तो व्यक्ति द्रुतगति से आत्मकल्याण की दिशा में बढ़ता रह सकता है।

तंत्र को सार्वकालिक और सब के लिए उपयोगी मानने वाले विद्वानों का एक वर्ग इस वैदिक मार्ग से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। उनके अनुसार ‘वैदिक कर्मों’ के अनुष्ठान में शूद्र तथा क्षत्रिय दोनों का अधिकार नहीं है, परंतु तंत्र में दोनों के लिए छुट है। वेद-शास्त्रों ने तीन वर्णों को ही अधिकार दिया हुआ है, लेकिन आगम ने अपने द्वार सबके लिए खोल दिए। यहाँ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है, जाति-पाँति के आधार पर साधक को अयोग्य नहीं ठहराया जाता। साधक की पात्रता में जन्म, वंश, शरीर का भेद नहीं किया जाता। विशिष्ट योग्यता का निर्धारण सिर्फ गुरु ही करता है। उसकी अपनी कसौटियाँ हैं।

आचार्य बलदेव के अनुसार, तंत्र युगधर्म भी है। आज के युग में वह जितना सुलभ और व्यवहार्य है, उतना किसी भी युग में नहीं रहा। कलियुग में मनुष्य की आत्मशक्ति और आँतरिक स्थिति पिछले युगों की तुलना में क्षीण ही रहती है। जितना त्याग, तप, तितिक्षा और धैर्य प्राचीन-काल में संभव था, उतना आज कहीं नहीं दिखाई पड़ता। बाह्य और आँतरिक शुद्धि की भी यही दशा है। वैदिक कर्मों का अनुष्ठान जिस त्याग, तप पर आश्रित था, उसका नाम भी आज कहीं नहीं दिखाई पड़ता। आज के युग अर्थात् कलियुग में उनका यथेष्ट आचरण संभव ही नहीं रह गया है। तंत्र में उसकी आवश्यकता इतनी अनन्य और प्रगाढ़ स्तर पर होती भी नहीं है। इसलिए तंत्र को आज की युग-साधन कह सकते हैं।

तंत्र में क्या सचमुच साधन-शुचिता और तप-तितिक्षा की बहुत आवश्यकता नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि शरीर, मन और बुद्धि की पवित्रता-निर्मलता इस मार्ग में उतनी ही अपेक्षित है जितनी योग अथवा भक्तिमार्ग में। अंतर सिर्फ इतना है कि पवित्रता और निर्मलता पर इतना ज्यादा जोर नहीं दिया गया कि साधक उसी में अटक कर रह जाए। विभिन्न साधना-पद्धतियों में तीन-चार बार नहाने, वस्त्र बदलने, घंटों तक विधि-विधान से पूजा करने, दूसरों का छुआ, बनाया, लाया हुआ आहार नहीं लेने जैसे कितने ही प्रतिबंध है। कुछ विधि-निषेध तो इतने कड़े है। कि उनका पालन करते रहने में ही साधक उलझ जाता है, विकास के लिए वह साधना-उपासना की दिशा में बढ़ नहीं पाता। उदाहरण के लिए, वैष्णव मत में दीक्षित कुछ साधक दूसरों की छाया पड़ जाने से ही आहार और जल को दूषित हुआ मान लेते हैं। वे छायाविष्ट अन्न या जल को ग्रहण नहीं करते। पूजा-पाठ से पहले किसी से छू जाएँ या छाया अविष्ट हो जाएँ, तो नहाते हैं। पहने हुए वस्त्र को बदलते और फिर पूजा-पाठ करते हैं।

तंत्र ने इन विधि-निषेधों की बहुत ज्यादा परवाह नहीं की। यहाँ तक स्वीकार किया कि जीवन अपने सभी रूपों में स्वीकार्य है। वह उत्कृष्ट स्तर का हो, माध्यम हो, सामान्य हो अथवा निम्न-निकृष्ट हो। व्यक्ति की आँतरिक स्थिति जैसे भी है, उसे तिलाँजलि दिए बिना उसका अतिक्रमण किया जा सकता है। यह नहीं कि व्यक्ति पहले अपनी आँतरिक स्थिति का परिष्कार करें, उसे संस्कारित करें और फिर आत्मिक विकास की दिशा में पग बढ़ाएँ।

जहाँ हैं, वहीं से अपनी यात्रा आरंभ करने की छूट देने के कारण ही तंत्र में सभी आचार-विचार के लोग मिल जाते हैं। सात्विक, संस्कारी और शुद्ध लोग भी इस मार्ग पर है और मद्य-माँस का सेवन करने वाले तामसी प्रकृति के लोग भी। क्योंकि तंत्र ने जीवन के सभी रूपों और अभ्यासों को मान्यता दी, इसलिए यह सत् रज और तम तीनों ही प्रवृत्ति वालों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सका है।

लोगों ने इस मान्यता या स्वीकृति का अनुचित लाभ भी उठाया। इस छूट को अपनी कामना, वासना और उच्छृंखलताओं की ओट बनाया। शुभ-अशुभ दोनों के स्वीकार के कारण लोग दुराचार-व्यभिचार के मार्ग पर भी बढ़े, बल्कि उन्हीं में रम गए। तंत्र की मार्गदर्शक सत्ता का निर्देश था कि जिस कीचड़ में धँसे हो, वहीं से आगे बढ़ो। कीचड़ से सने हो, इसलिए अपने आपको निःश्रेयस को प्राप्त करने के लिए कृतसंकल्प बनो। विपर्यय यह हुआ कि लोगों ने अतिक्रमण का आहान अनसुना कर दिया और कामना-वासना के दलदल को ही साधना-स्थल मान लिया। यह भी हुआ कि लोग इस छूट या सुविधा का लाभ उठाकर अपने दोष-दुर्गुणों और लिप्साओं को हवा देने लगे।

मध्यकाल में वामाचार के नाम पर जिस तरह की उच्छृंखलताएं हुई, उसके अवशेष आज भी देखे जा सकते है। मीन, माँस, मद्य, मैथुन और मुद्रा के पंचमकारों को प्रचलित अर्थों में ही मुक्त का मार्ग बताने वाले आचार्यों की आज भी भरमार है। पंचमकारों की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, आहार-विहार में किसी प्रकार का संयम रखने की आवश्यकता नहीं है। उस स्तर पर शुद्धि की परवाह किए बिना जो जी में आए खाते-पीते रहो। यौन-शुचिता और संयम भी आवश्यक नहीं है। इतना ही पर्याप्त है कि बताई हुई विधि का बिना सोचे-समझे पालन करते रहो, जो उपाय बताए गए हैं, उन्हें अपनाने में अपनी बुद्धि का उपयोग मत करो। अध्यात्म-मार्ग में बुद्धि-विवेक की सर्वथा तिलाँजलि दे देनी चाहिए।

नए आचार्यों की ये शिक्षाएँ भोगवादी प्रवृत्ति के लोगों को बहुत रास आती है। उन्हें उच्छृंखल भोगवाद का अनुकरण करते हुए अपनी मुक्ति का लाभ सहज ही मिलता दिखाई देता है। नई व्याख्याओं के कारण वे परम आश्वस्त रहते हैं। इसी तरह की विडंबना मध्यकाल में भी हुई और लोगों ने अपनी भोग-लिप्सा को तंत्र, गुहा विद्या, वाममार्ग की आड़ में खुलकर खेलने का मौका दिया। इस प्रयत्न का विरोध भी हुआ आचार्यों और मनीषियों ने सिर्फ इन स्वेच्छाचारी पद्धतियों के कारण ही तंत्र को वेद-विरुद्ध अथवा अवैदिक करार दे दिया।

समालोचकों ने वेद-शास्त्रों में भी तंत्र के उपदेश ढूँढ़ निकाले है। तंत्रमार्ग में जिस शक्ति की आराधना की जाती है, वह सबसे पहले वेदमंत्रों द्वारा ही आराधी गई है। ऋग्वेद के वागम्भृणि सूक्त (10/145) में जिस शक्तितत्त्व का प्रतिपादन किया गया है, तंत्रशास्त्र उसी का विकास हैं। स्वामी विष्णुतीर्थ ने भी इस प्रतिपादन के पक्ष में विशद विवेचना की है। उनके अनुसार आगे चलकर तंत्र-शास्त्र का जितना भी विस्तार हुआ वह वागम्भृणी सूक्त का ही भाष्य है। बृहदारण्यक (6/12) और छाँदोग्य (5/8) में जिस पंचाग्नि विधा का उपदेश दिया गया , वह तंत्र की ही आधारभिति है। छाँदेग्य उपनिषद् (3/1-10) में ही मधु-विधा का उपदेश भी दिया गया है। स्वामी विष्णुतीर्थ के अनुसार वह भी तंत्र की ही व्याख्या हैं।

जिस कारणों से तंत्र को अवैदिक ठहराया गया , वह उसका भोगवादी स्वरूप है। शिव-पार्वती से लेकर आचार्य शंकर के आख्यानों में तंत्र के जो सिद्धाँत या प्रयोग दिए गए उनमें भोगवाद कहीं नहीं हैं। इस विद्या के आधारग्रंथों को छान लेने पर कहीं पुष्टि नहीं हुई कि तंत्र किसी भी तरह की भोगलिप्सा को छूट देता है। सिद्धाँत रूप में जहाँ भोग की चर्चा हुई, लोलुप विद्वानोँ ने उसे ही तोड़े-मरोड़कर अपने पक्ष में कर लिया । विकृति अथवा अनर्थ का कुल इतना ही कारण हैं।

विपर्यय अथवा अनर्थ के कारण एक समय ऐसा भी आया जब साधना और विद्या की धारा ही अवरुद्ध हो गई । श्री अरविंद ने इस अनर्थ को रेखाँकित करते हुए लिखा हैं, तंत्र में विशेषकर उसके वाममार्ग में ऐसी बातें आ गई, जिनके कारण अच्छे-बुरे का , पाप-पुण्य का कोई विचार नहीं रह गया। इतना ही नहीं स्वभाव नियत सद्धर्म के स्थान पर अनियंत्रित कामाचार, असंयत सामाजिक व्यभिचार और दुराचार को मानो एक पंथ मिल गया । तथापि तंत्र असल में एक बड़ी चीज थी, बड़ी बलवती योगपद्धति थी । इसके दक्षिण और वाप दोनों ही मार्ग बड़ी गंभीर अनुभूति के फल थे। उनमें एक ज्ञान का मार्ग है और दूसरा आनंद का ।

जिस आचार्यों ने भोगवाद के दलदल से बाहर आने के लिए प्रेरित किया, उनके कथन का अनर्थ किया गया । उनका आशय था कि उस मलीनता के कारण ग्लानि में डूब जाना उचित नहीं है। ग्लानि से उबरो। जिस मलीनता में डूबें रहकर तुम अपने उद्धार के प्रति निराश हो चले हो , वह भी परमात्मा की ही लीला हैं । इस आश्वासन का अनर्थ यथास्थिति बनाए रखने में किया गया।इसे युग का प्रवाह कहे कि आश्वासन को भी सिद्धांत मान लिया। अनर्थ यथास्थिति बनाए रखने में किया गया। इसे युग का प्रवाह कहे कि आश्वासन को भी सिद्धाँत मान लिया । अनर्थ प्रायः पांचवीं से दसवीं शताब्दी तक चला। उन दिनों भगवान् बुद्ध के अनुयायी तंत्र के वामाचारी प्रयोगों में अग्रणी भूमिका निभा रहें थे मध्यम मार्ग के नाम पर स्वाद और यौनसुख के आग्रह ने बौद्ध मठों को विलास के अड्डे बना दिया।

शिक्षाओं के अनर्थ का एक उदाहरण बुद्धचरित में इस प्रकार मिलता है। एक भिक्षु को अपनी चर्या में पूरे दिन घूमते रहने पर भी कुछ नहीं मिला। वह अपने संघाराम में लौट रहा था कि रास्ते में उसके पात्र में माँस का एक टुकड़ा गिरा। माँस का टुकड़ा ऊपर उड़कर जा रही चील के मुँह से छूटकर गिरा था। उस दिन सायंकालीन गोष्ठी में इस घटना की चर्चा हुई नियम था कि पात्र में जो भी आए उसे ग्रहण करना है, तिरस्कार नहीं करना हैं। दूसरे, भिक्षु क्षुधा से त्रस्त भी था। व्यवस्था दी गई कि अनायास ही मिले माँस का उपयोग किया जा सकता है,। व्यवस्था यह सोचकर दी गई थी कि यह अवसर अपवाद रूप है, अन्यथा कहाँ किसी पक्षी के मुँह का टुकड़ा गिरता है ओर कौन भिक्षा में माँस देता है।

अपर्द्धम की तरह दी गई इस व्यवस्था का दुरुपयोग हुआ और बौद्ध धर्म में माँस का प्रयोग बढ़ने लगा । बुद्ध के दस शीलों में एक शील मद्य-माँस का त्याग भी हैं। दूसरों का दिया अथवा अनायास सामने आया माँस का त्याग भी है। दूसरों का दिया अथवा अनायास सामने आया माँस ग्रहण किया जा सकता है । इस आपर्द्धम ने सामान्य धर्म का रूप ले लिया और लोग पशुओं को पहाड़ की चोटी तक दौड़ाकर ले जाने लगे । ताकि वे गिरकर मर जाएं और उनका माँस खाया जा सके। आश्चर्यचकित कर देने वाला तथ्य है कि दक्षिण एशिया के बौद्ध देश इस समय माँस के प्रमुख निर्यातक देशों में है। निर्यात करने वाले व्यापारी खुद पशुओं का वध नहीं करते, दूसरों से कराती है।

तंत्र के संबंध में भी यही अनर्थ हुआ है, अन्यथा शरीर को भगवान् का दिया हुआ साधन मानकर उसके द्वारा मोक्षमार्ग पर ले जाने वाली यह विद्या विकृत नहीं हुई होती । तंत्र के संबंध में फैली भ्रांतियों का निराकरण होना चाहिए। भ्राँतियों के बादल छटे तो ही तत्र का तेजस्वी आलोक अध्यात्म जगत् के विज्ञान को उद्घाटित कर सकेगा।


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