अपनों से अपनी बात - महाकाल की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया अब अंतिम स्थिति में

August 2000

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प्रस्तुत वेला जिससे हम गुजर रहे हैं, बड़ी विषमताओं एवं उलट-फेर की संभावनाओं से भरी हुई है। महाकाल की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया, जिसकी घोषणा परमपूज्य गुरुदेव ने 1965-66 में इन्हीं दिनों बड़ी तेजी से संपन्न होने के विषय में की, आरंभ हो चुकी है। देवाधिदेव तंत्राधिपति महादेव का ताँडव नृत्य आरंभ हो चुका है। उनकी भृकुटि चढ़ी हुई है उन सभी पर जो इन दिनाँक अनीति, शोषण, आतंक तथा पतन-पराभव लाने हेतु जुटे हुए है। प्रलयंकारी नाद के साथ उनका डमरू बजने लगा है। निष्कलंक प्रज्ञावतार की सत्ता ने शंखनाद कर दिया है कि अब परिवर्तन की वेला आ पहुँची। रण संग्राम के चरमसीमा रोमाँच वाला समय है यह। लोगों को, जनमानस को याो अपना चिंतन, अपनी आस्थाओं को आमूलचूल बदलना होगा या फिर निज के अस्तित्व को बड़ी निर्ममतापूर्वक मिटते स्वयं देखना होगा। इन दिनों मिशन के गीतों में एक गीत बड़ा लोकप्रिय है, “महाकाल की चली सवारी, चलो साथ हो जाएँ, यह परिवर्तन की वेला है युगपरिवर्तन लाएँ।” इसी गीत में एक पंक्ति है, “परिवर्तन का चक्र जल रहा सभी बदल जाएँगे, जो न बदल पाएँगे, अपने आप कुचल जाएँगे” यह पंक्ति जिस बात की घोषणा कर रही है, उसका संकल्प स्रष्टा के श्रीमुख से गीता के ग्यारहवें अध्याय में प्रकट हुआ है।

भगवान् कहते हैं, “कालोडस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो-लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।” अर्थात् “मैं लोकों का नाश करने वाला बना हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।” भगवान् के इस स्वरूप को समझना आज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में बड़ा अनिवार्य है। सृष्टि के आरंभ से अब तक अनेक बार ऐसे अवसर आए हैं, जिनमें विनाश की विभीषिका सामने आई, लगा सर्वनाश होकर रहेगा। असुरता की परंपरा है, अनीति को भड़काना वह अनौचित्य का माहौल बनाना। परमपूज्य गुरुदेव मई 1989 की अखण्ड ज्योति, पृष्ठ 2 में लिखते हैं, “वृत्रासुर, भस्मासुर, महिषासुर, हिरण्यकशिपु, रावण, कंस, दुर्योधन आदि नाम तो हैं ही, उनका अपना समुदाय भी रहा है, जिसमें अनेकों ने उन्हीं के स्तर की अवाँछनीयता को उग्र-उद्धत बनाने में योगदान दिया, किंतु आतंक की चरम सीमा तक पहुँचते-पहुँचते ऐसी व्यवस्था बनी कि अनाचार का शमन करने वाले साधन उभरे, तनकर उठ खड़े हुए और जो आतंक प्रलयंकर दीखता था, वह अपनी मौत मर गया।”

आज का विनाश और कुछ नहीं, मानवी दुर्बुद्धि का प्रतिफल है। मनः स्थिति में अवाँछनीयता भर जाने पर परिस्थिति भी विपन्न स्तर की बनती जाती है। जो बोया है, वह काटना तो पड़ेगा ही। सीधे मार्ग पर चलने वाला झाड़ियों में क्यों भटके भ्रष्ट चिंतन और दृष्ट आचरण ही प्रकाराँतर से दैत्य-दानव को भूमिका निभाता है। गुँबज में अपनी ही आवाज प्रतिध्वनि बनकर लौटती है। आज की सभी छोटी-बड़ी परिस्थितियाँ हमारे अपने द्वारा ही आमंत्रित हैं। क्रम उलट दिया जाए, तो प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने में देर नहीं लगेगी। समय-समय पर अनेक बार यही होता रहा है।

एक सबसे बड़ी क्राँति जो पिछले दिनों हुई है, उसे सूचना जगत् की क्राँति कहा जा पिछले दिनों हुई है, उसे सूचना जगत् की क्राँति कहा जा सकता है। विज्ञान के इस आविष्कार ने मानव-मानव की दूरी मिटा दी है। हम सब एक-दूसरे के अति समीप ‘साइबर स्पेस’ में ग्लोबल गाँव में रह रहे हैं। सूचनाओं का आदान-प्रदान अब इतनी तेजी से उपग्रहों के माध्यम से होता है कि कभी विश्वास नहीं होता कि यही मनुष्य आज से पचास वर्ष पूर्व किस तरह जी रहा था। विज्ञान जगत् की इलेक्ट्रानिक्स कंप्यूटर सेमींकंडर्क्टस के क्षेत्र में हुई क्राँतियों ने मनुष्य को सुख-सुविधा के साधन सुगमतापूर्वक उपलब्ध करा दिए हैं पहले कार्य लंबे समय में संपन्न होते थे, पर अब वे कहीं अधिक जल्दी होने लगे हैं। पहले कृषि-विस्तार से लेकर रीति-रिवाजों, साँस्कृतिक मान्यताओं में मंथर गति से बहुत धीमा परिवर्तन हुआ करता था, पर अब ऐसी बात रही नहीं। विचारधाराएँ बड़ी तीव्र गति से व्यापक बनी हैं। हजारों वर्षों में संपन्न होते रहने वाले कार्य अब कुछ दशकों में ही विकसित परिवर्तन हो रहे हैं, यह माना जा सकता है। ऐसा लगता है कि जिन ऋषि-सिद्धियों की चर्चा की जाती है, वे मनुष्य को सहज ही करतलगत हो गई हैं।विज्ञान की इस उपलब्धि पर सभी हतप्रभ भी है, गदगद भी।

यह गतिशीलता यदि विधेयात्मक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में ली जाए, तो अगले दिनों और बढ़ेगी । केबल टीवी , दूरसंचारी उपग्रहों से घरों में संप्रेषण, वायरलैस प्रोटोकॉल जैसे मिनीयंत्रों द्वारा कार्यालयों का हाथ में सिमट आना, ‘ ऑनलाइन’ शिक्षण प्रणाली का विकास होना एक संकेत देता है, अगले दिनों परिवर्तन बड़ी तेजी से होंगे। विज्ञान की दिशा में , बौद्धिक प्रगति की दिशा में यदि इसी गति से प्रगति होती रही तो सब कुछ जो वर्षों में होता था, अब कुछ घंटों नहीं,बल्कि कुछ ही क्षणों में होता देखा जाएगा। ऐसी परिवर्तन की वेला में जब सब कुछ तेजी से हो रहा है, सर्वाधिक प्रभावित जो एक महत्वपूर्ण विधा हुई है, वह है मानव की संवेदनशीलता-भावना शक्ति, जो बुद्धि के साथ मिलकर प्रतिभा को जन्म देती है। परिष्कृत प्रतिभाओं का अकाल इसलिए इन दिनों पड़ रहा है कि यह तथाकथित प्रगति एकाँगी हुई है एवं यही हम सबके लिए भस्मासुर की पुनरावृत्ति भी बन सकती है तथा प्रयास किया जाए तो एक रचनात्मक उपलब्धि भी।

हम एक सहस्राब्दी में 2001 के आगमन के साथ प्रवेश करने जा रहे हैं। प्रस्तुत वर्ष तो उसकी पूर्ववेला में आया एक संक्राँति वर्ष था एवं इसके प्रभाव अभी नहीं सहस्राब्दी के प्रथम एक-डेढ़ वर्षों तक देखे जाते रहेंगे। परंतु जैसा कि पूज्यवर सहित सभी भविष्यवक्ताओं-द्रष्टाओं-मनीषियों ने कहा है, यह नई सदी की प्रभातकालीन अरुणोदय की वेला है। प्रभात की वेला आते ही जागरण और पुरुषार्थ का माहौल बन जाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि अशुभ का अंत और शुभ का उदय होने जा रहा है। मनुष्य ने जो कुछ भी किया है, पर्यावरण-संकट व दैवी प्रतिकूलताओं-विभीषिकाओं के रूप में जो कुछ भी आमंत्रित किया है, वह तप की घड़ी के रूप में, उसका सही मार्ग पर चलने की प्रायश्चित की वेला है। इसमें निश्चित ही आश्चर्यचकित कर देने वाले, लोगों के चिंतन व भावना जगत् में अभूतपूर्व परिवर्तन ला देने वाले घटनाक्रम घटेंगे। इस विधेयात्मक विश्वास को जितनी दृढ़तापूर्वक जितनी जल्दी अपना लिया जाए, उतना ही मानव मात्र के कल्याण के लिए हितकारी है। विभिन्न भविष्यवाणियों की संगति जिस समय विशेष से बैठती है, वह यही है 1995 से 2005 तक के बीच का समय। प्रकृति प्रकोपों के साथ उतरने वाली दंड−प्रक्रिया जो ईश्वर का विधान है, किसी हद तक आज की स्थिति से संगति भी खाता है।

इन दिनों भारत में ‘ सामान्य’ मानसून के बावजूद बहुत बड़े क्षेत्र में सूखा पड़ा हुआ है। मात्र भारत ही नहीं, विश्वभर में प्राकृतिक प्रकोपों की मानों बाढ़-सी आ रही है। कहीं भूकंप आ रहे हैं, तो कहीं असमय की बाढ़ की विभीषिका, पैमाने पर भूकंप विगत कुछ वर्षों पूर्व एवं सानफ्रैंर्निया में भयावह बरबादी लाने वाला भूकंप जिस शृंखला में आए थे, इस के पुनः दुहराए जाने की बात भूगर्भ विज्ञानी कह रहे है। उसके लिए वे जिस समय की बात कर रहे है, वह यही है। ऐसा अनुमान है कि एक बहुत बड़ा भूभाग अमेरिकी महाद्वीप से अलग होकर समुद्र में समा जाएगा। बढ़ते हुए धरती के वायुमंडल के तापमान से ग्लेशियर के पिघलने तथा समुद्री तटों के शहरों में जलप्लावन की संभावनाएँ भी बताई जा रही है। वैज्ञानिक बताते हैं कि इस सबके मूल में सूर्य की सतह पर आए विद्युत चुँबकीय तूफान है। ‘नोआ’ (नेशनल ओशिनाँग्राफिक एंड एटमाँस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन) के वैज्ञानिकों का मत है कि सूर्य के अंदर चल रही गैसों के विस्फोट की प्रक्रिया विगत पाँच वर्षों से बढ़ोत्तरी पर है। इसी कारण उभरी चुँबकीय तूफानों की प्रतिक्रिया स्वरूप सूर्य की लपटें इन दिनों सामान्य से बड़ी व अधिक गरम हैं। सूर्य से बड़ी मात्रा में विकिरण और कणों के रूप में सूर्य के पदार्थ अंतरिक्ष में फैल रहे हैं। सूर्य की सतह हर ग्यारहवें वर्ष वैसे ही सौर−कलंकों-सौरस्फोटों से धरती के वातावरण को प्रभावित करती रहती है इस वर्ष जून 2000 से जून 2001 तक की अवधि 1988-89 के बाद आई वही अवधि है। यह सौर-सक्रियता का समय है जिस विद्युत् चुंबकीय ऊर्जाक्षेत्र ने कवच के रूप में सौर-विकिरण से हमें अभी तक बचाए रखा है, वह क्रमशः झीना होता जा रहा है। यही कारण है कि मानवकृत पर्यावरण-विभीषिका अब तथाकथित अंधाधुँध वैज्ञानिक प्रगति के साथ जुड़कर कहर बरपाएगी। यही समय है जब हम सभी को सावधान रहना है एवं मनोबल तनिक भी नहीं गिरने देना है।

हमारी गुरुसत्ता ने 12 वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण इसीलिए पूरी सक्रियता के साथ 1989 से आरंभ कराया। इस विराट् युगसंधि वेला आध्यात्मिक महापुरुषार्थ की समापन वेला अब चौबीस हजार करोड़ के प्रतिवर्ष गायत्री जप के साथ आ पहुँची। एक विराट् स्तर की महापूर्णाहुति भी आरंभ हो चुकी, जिसके तृतीय चरण का समापन विगत गायत्री जयंती 11 जून रविवार को हो गया। संभागीय पूर्णाहुति के साथ संगठनात्मक दीपयज्ञों की यह शृंखला 108 स्थानों पर संपन्न हुई। बहुत ही सही समय पर यह आध्यात्मिक पुरुषार्थ संपन्न हो रहा है। यदि यह महापुरश्चरण न चल रहा होता तो संभावना है कि बहुत कुछ बिगाड़ हो चुका होता। गायत्री सूर्य की उपासना महामंत्री है। सूर्य के आधिभौतिक (हाइड्रोजन-हीलियम के जलते गोले वाला रूप), आधिदैविक (ग्रहों का अधिपति, चिंतन प्रेरक, जातक की आत्मा) एवं आध्यात्मिक (अतिमानसिक विराट् पुरुष की ज्योति) तीनों स्वरूपों पर प्रभाव के माध्यम से त्रिपदा गायत्री की उपासना सौर-सक्रियता के समय एक दैवी संरक्षण साधक को उपलब्ध कराती है। इस महापूर्णाहुति की वेला में सभी को अपना साधनात्मक पुरुषार्थ प्रखर करना होगा। इसके अलावा कोई और चारा है भी तो नहीं।

समृद्धता के साथ किए गए साधनात्मक पुरुषार्थों के बड़े ही विलक्षण परिणाम होते हैं। समय-समय पर अवतारी चेतना भी देवशक्तियों को संघबद्ध होने, संयमित जीवन जीते हुए साधना प्रधान जीवनचर्या में शक्ति नियोजित करने की प्रेरणा देती रही है। महाकाली की एक ही प्रेरणा है कि सभी बल की उपासना करें, मिल−जुल करें, ताकि अन्य से आगत आसुरी घटाटोप से जूझा जा सके। इन दिनों हमारी गुरुसत्ता के निर्देश के अनुरूप ही न केवल राष्ट्र व विश्व का सघन मंथन करने वाली तीर्थयात्राएँ संपन्न हुई, गाँवों से लेकर सींगीय स्तर तक सृजन संगठन प्रधान एक लाख से अधिक समारोह भी पूरी गरिमा के साथ संपन्न हुए। 108 संभागीय दीप महायज्ञों के माध्यम से परिष्कृत प्रतिभाएं उभरकर आई है। तथा नवसृजन लिए संकल्पित हुई है। इन आयोजनों के रचनाधर्मी संयोजन को, इनकी भव्यता को जिन-जिन ने भी देखा है, सराहा है एवं अपने अंदर सभी कुछ-न-कुछ संकल्प लेकर गए है। निश्चित ही इसके विलक्षण परिणाम होंगे।

अभी हम महापूर्णाहुति की मध्यावधि से गुजर रहे है। इन दिनों सार देश में जहाँ तृतीय चरण का अनुयाज चल रहा है, सातों आँदोलनों में प्रतिभाओं के नियोजन के विषय में रणनीति बनाने हेतु गहन मंथन चल रहा है, वहीं विश्व के प्रायः सभी देशों में विश्वशाँति के लिए तीर्थयात्राएँ एवं संस्कार-महोत्सवों के संभागीय महापूर्णाहुति स्तर के आयोजन भी संपन्न हो रहे हैं। अमेरिका, कनाडा व यूरोप में ये यात्राएँ संपन्न हो चुकी। यूरोप व दक्षिण अफ्रीका, पूर्वी अफ्रीका में इन दिनों चल रही हैं। 16 जून ज्येष्ठ पूर्णिमा से टोरोण्टो में गायत्री महाशक्ति की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा के साथ सेमीनार वर्कशाप, 106 कुँडी महायज्ञ, ज्ञानयज्ञ व दीप महायज्ञ प्रधान ढाई दिवसीय आयोजनों की शृंखला आरंभ हो गई। यह क्रम सितंबर के तृतीय सप्ताह से पश्चिम देशों में तथा अक्टूबर से जनवरी 2001 तक (वहाँ की गरमी में) मुदूर पूर्व आस्ट्रेलिया, माँरीशस, सूरीनाम में चलता रहेगा। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का विस्तार आगामी पाँचवे चरण के समापन तक सारे विश्व के कोने-कोने में ही जाने की पूरी-पूरी संभावनाएँ हैं।

16 जून तक सभी टोलियों के सारे देश के विभूति संपन्नों, श्रद्धालु भक्तगणों, मंडल संचालकों, समन्वय समिति के सक्रिय सदस्यों, विशिष्ट साधकों, स 3, स 4 सदस्यों, युगसंधि महापुरश्चरण के नियमित उपासकों, दीक्षितों तथा मिशन की सभी पत्रिकाओं नियमित पाठकों की भागीदारी संभागीय आयोजनों में कराकर लौटने के साथ आँकड़ों का एक विराट् महासागर केंद्र पर एकत्र हो चुका है। अनुयजक्रम में इसी के सुनियोजन की व्यवस्था की जा रही है,ताकि चतुर्थ चरण के पूर्वार्द्ध के 8 अक्टूबर के नई दिल्ली के विभूति महायज्ञ कार्यक्रम तथा उत्तरार्द्ध के सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ के नवंबर माह के कार्यक्रम तक यह सुनिश्चित हो सकें कि प्रतिभाओं का नियोजन कहाँ व कैसे होना है।

तृतीय चरण अनुयाज व चतुर्थ चरण के प्रयाज के क्रम में इन दिनों सारे देश में नगरीय-कस्बे-महानगरीय स्तर पर डेढ़ से दो दिन के ज्ञानयज्ञ प्रधान आयोजन संपन्न हो रहे है। प्रबुद्ध वर्ग भी जाने कि मिशन की देवसंस्कृति विस्तार की योजनाएँ क्या हैं, इसलिए केंद्र से विशिष्ट दल स्लाइड्स व पाठ्य सामग्री के साथ वर्कशाप स्तर के आयोजनों हेतु नगर-नगर भ्रमण कर रहे है। बुद्धिजीवी वर्ग के इन कार्यक्रमों की अक्सर माँग रहती है। इनके प्रभाव भी बड़े विलक्षण पड़ते देखे गए हैं। प्रबुद्ध वर्ग युगचेतना का स्पर्श पा सके, इसके लिए उन्हीं के लिए विशिष्ट व्याख्यान एवं शांतिकुंज की रचनात्मक आयोजनों की रूपरेखा द्वारा यह प्रयास आरंभ किया गया है। सितंबर अंत तक संभावना है कि राष्ट्र का एक बहुत बड़ा भाग जो अभी तक अछूता रहा है, युगचेतना से आंदोलित किया जा सकेगा। इसमें ध्यान-प्रज्ञायोग प्रधान आयोजनों के साथ व्यक्तित्व-परिष्कार के सत्र भी हो रहे है। कार्यकर्त्ताओं की संगठनात्मक चर्चाएँ भी, सुनियोजन हेतु विधि-व्यवस्था का परामर्श भी साथ ही चल रहा हैं इस प्रकार दो दिन के इन आयोजनों का बड़ा व्यापक प्रभाव जन-जन पर पड़ेगा।

8 अक्टूबर रविवार दशमी की वेला में सायं 5 से 9 तक जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम नई दिल्ली में एक विराट् विभूति ज्ञानयज्ञ चौथे चरण के अंतर्गत होने जा रहा है। इसमें भारत भर के 108 स्थानों में से प्रत्येक से 100-100 चुनी हुई प्रतिभाओं तथा प्रवासी परिजनों को शाँतिकुँज से आमंत्रण पत्र जाएँगे, वे ही भागीदारी करेंगे। मिशन के शक्ति प्रदर्शन प्रधान इस कार्यक्रम को सीधा दूरदर्शन नेटवर्क पर प्रसारित किए जाने की संभावना है। गायत्री परिवार की सतयुगी समाज की कल्पना क्या है, कैसे-कैसे, कहाँ-कहाँ, क्या-क्या रचनात्मक गतिविधियाँ चल रही हैं, इसका परिचय मार्च पोस्ट कर रही झाँकियों से तथा विशाल मल्टीमीडिया स्क्रीन पर लोग पा सकेंगे। राष्ट्र के दो प्रधानों, विभिन्न राष्ट्रों के राजदूतों, स्वैच्छिक आध्यात्मिक संगठनों के प्रमुखों की उपस्थिति में एक विराट् दीपयज्ञ भी संपन्न होगा। नवनिर्माण के लिए संकल्पित युगशक्ति के स्वरूप का दिग्दर्शन सभी को होगा।

विगत गायत्री जयंती देवमाता के विश्वमाता बनने की प्रक्रिया वाली वेला में आई थी। इसी गंगादशहरा महापर्व को 1990 में पूज्यवर स्थूल से सूक्ष्म में विलीन हुए थे। दस वर्ष तक वेदमाता का देवमाता वाला स्वरूप जन-जन तक पहुँचा। अब 2000 की 11 जून से पूज्यवर कारण शरीर के रूप में सारे अंतरिक्ष में संव्याप्त हो गए हैं। युगपरिवर्तन सुनिश्चित है, वह इन्हीं दिनों होने जा रहा है, यह विश्वास सभी को करना चाहिए।


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