गुरुकथामृत-13 - उँगली पकड़कर मार्ग दिखाती है उनकी लेखनी

August 2000

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विभूतियाँ, उन उच्चस्तरीय प्रतिभाओं के रूप में वर्णित की गई हैं, जो समय-समय पर समाज में उभरी रही है। एवं युगानुकूल अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करती रही हैं। इसमें हमारी संस्कृति की गुरु-शिष्य परंपरा ने एक बहुत बड़ा योगदान दिया है। आदाल से चली आ रही इस परंपरा ने दैवी मार्गदर्शन के माध्यम से अनेकानेक प्रतिभावानों को निखारा है। स्वयं अपने बलबूते मनुष्य कितना ही पराक्रम कर ले, जब तक परमसत्ता का बल उसके साथ नहीं जुड़ता, तब तक वस्तुतः वह आत्मिक प्रगति के उच्चतम सोपानों पर नहीं चढ़ सकता। लौकिक जीवन में आने वाले व्यवधान भी कुछ ऐसे होते हैं कि वे समय-समय पर परीक्षा लेते रहते हैं एवं सुपात्रों को भी कड़ी परीक्षा से गुजरने पर मजबूर कर देते हैं। ऐसे में सद्गुरु जो भगवत्सत्ता की सीधी नियुक्ति के रूप में मानव मात्र के कल्याण के निमित्त अवतरित होते हैं, भवसागर से पार कराने की महती भूमिका निभाते हैं।

गायत्री परिवार उच्चस्तरीय प्रतिभाओं का, विभूतियों का भाँडागार है। आज नवयुग का स्वप्न इसके बलबूते साकार होते देखा जा सकता है। अगर कहीं आशा की किरणें दिखाई देती हैं, तो जन-जन के मन में आकाँक्षा जगाने का यह कार्य गायत्री परिवार के वैविध्यपूर्ण क्रियाकलापों के माध्यम से होता दिखाई देता है। इतने बड़े परिवार का निर्माण हमारी गुरुसत्ता न कितने यत्न से, किस आत्मीयता के साथ गुँथकर, कितने विलक्षण स्र के पुरुषार्थ द्वारा किया होगा, इसे उनके अस्सी वर्श के ब्रह्मकमल के रूप में जिए गए जीवन रूपी पुरुषार्थ माध्यम से देखा व समझा जा सकता है।

लीलावतारों-भगवद् पार्षदों के जीवन के वृत्तांत से ही यह झलक मिलती है कि कैसे उन्होंने औरों के जीवन को सँवारा। परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य श्री एक युगऋषि के स्तर की सत्ता के रूप में अवतरित हुए हम सबके कल्याण के लिए, इसके लिए उनकी लेखनी से प्राप्त लोकशिक्षण को हम प्रमाण रूप में देख सकते हैं। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका उनकी प्राणचेतना की संवाहक के रूप में जन-जन का मार्गदर्शन करती आज 63 वें वर्ष की अपनी यात्रा पूरी कर रही है, तो साथ ही भावप्रवण भाषा में उनके हाथ से लिखे पत्र भी आज हमारा उतना ही शिक्षण करते हैं। इस पत्रिका में समय-समय पर पाठकों को परमपूज्य गुरुदेव द्वारा अपने शिष्यों को दिए गए मार्गदर्शन की झलक हम पत्रों के माध्यम से देते रहे हैं। इस अंक में भी कुछ ऐसी ही भव संवेदना को लेखनी में उड़ेलकर लिखी गई चुनी हुई कुछ पत्तियां प्रस्तुत की जा रही हैं, जो किसी भी साधक-लोकसेवी का उतना ही हित करेंगी, जितना की तत्कालीन समय पर किसी साधक विशेष का उनके द्वारा संपादित हुआ था।

सबसे बड़ा कार्य है, साधक के मनोबल को उछाल देना, ऐसी स्थिति में पहुँचा देना, जहाँ से वह अपने जीवन-लक्ष्य को निर्धारित कर सकें ऐसे ही एक पत्र में परमपूज्य गुरुदेव श्री हर्ष नारायण सिंह (मुँबई) को एक पत्र में लिखे हैं-

हमारे आत्मस्वरूप,10/2/58

पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई। आपकी आत्मा अपने लक्ष्य की आरे तेजी से बढ़ रही है। पूर्वजन्मों में आपने जो तपस्या छोड़ी थी, उसका शेष भाग अब पूरा हो रहा है। जो अचेतन अवस्था आपको प्राप्त होती है, वह समाधि का पूर्व रूप है। इसे आप रोकें नहीं, इससे डरें भी नहीं। हजारों वर्षों तक साधना करने के बाद यह स्थिति योगियों की आती है। थोड़े ही दिनाँक में आप पूर्ण समाधि-सुख प्राप्त करेंगे। आपकी साधना को पूर्ण बनाने के लिए हम यहाँ से शक्ति प्रेरित करते रहते हैं। आपका यह जन्म अंतिम हो, इसी में पूर्णता प्राप्त करें, ऐसा प्रयत्न हम कर रहे हैं।

परमपूज्य गुरुदेव साधक श्री हर्ष नारायण की मनःस्थिति-आत्मिक प्रगति की स्थिति से भलीभाँति अवगत हैं। इसी कारण एक प्रत्यक्ष मार्गदर्शन देते हैं कि कभी-कभी जो अचेतन अवस्था में वे चले जाते हैं, वह उच्चस्तरीय सोपान समाधि पूर्वार्द्ध है। कही यहीं पर वे रुक न जाएँ, यह न मान बैठें कि यही सर्वोच्च उपलब्धि है, सिद्धि है, पूज्यवर लिखते हैं कि न इस स्थिति से डरें, न स्वयं को रोकें। यह स्वयं उनकी उपार्जित तप-साधना नहीं, न स्वयं को रोकें। यह स्वयं उनकी उपार्जित तप-साधना नहीं, गुरुप्रसाद हैं, पूज्यवर लिखते हैं कि न इस स्थिति से डरें, न स्वयं को रोकें। यह स्वयं उनकी उपार्जित तप-साधना नहीं, गुरुप्रसाद हैं, इसे वे अगली पंक्ति में स्पष्ट करते हैं, जब लिखते हैं कि आपकी साधना पूर्णावस्था में पहुँचे, इसके लिए सारी शक्ति जिस एक केंद्र से प्रवाहित हो रही है, उसके उत्पादक-नियंता वे स्वयं हैं। हम यदि इस पत्र को एक-एक पंक्ति एक-एक शब्द को अपने लिए भी मार्गदर्शन मानकर चलें, तो ऐसे ही उच्चस्तरीय ध्यान-धारणा की उपलब्धियों के आनंददायी सुख हम भी प्राप्त कर सकते हैं। संभवतः इन शब्दों का ही चमत्कार था कि अनेक साधक अपनी जीवन-साधना को प्रखरतम बना सके।

श्री सिंह को यह भ्राँति थी कि मात्र यज्ञोपवीत पहनकर ही गायत्री उपासना की जा सकती है। उन्होंने पत्र में पूछा भी, तो इसी पत्र में आगे पूज्यवर ने लिखा, “जनेऊ गायत्री माता की सूत से बनी मूर्ति मात्र है। मूर्ति के सामने पूजा-उपासना करना सर्वोत्तम है, इसी प्रकार जनेऊ पहनकर गायत्री उपासना श्रेष्ठ है। पर यदि मूर्ति न हो तो भी पूजा की जा सकती है। मूर्ति न हो तो पूजा भी न करें, यह कोई तर्क नहीं। इसी प्रकार जनेऊ पहनना संभव न हो तो गायत्री को छोड़ने की जरूरत नहीं है। ‘

कितना स्पष्ट व व्यावहारिक मार्गदर्शन है। भलीभाँति साधक की मनः स्थिति समझी जा सकती है, किंतु विशिष्ट स्तर की, विश्वामित्र स्तर की सत्ता का मार्गदर्शन मिलते ही सारी राह सुगम हो जाती है।

परमपूज्य गुरुदेव की एक शिष्य रही है, धामपुर बिजनौर की श्रीमती काँती त्यागी। काफी पुराने 1152 में पूर्व तक के लिखे पत्र हमें देखने को मिले हैं। ‘युगद्रष्टा का जीवनदर्शन’ वाङ्मय खंड 1 में हमने उद्धृत भी किए हैं। जिस श्रेष्ठ स्तर की वे साधिका थीं, उसी स्तर का मार्गदर्शन उन्हें मिलता था। उन्हें उत्साह भी बहुत था, कुछ करने की उमंग भी थी कि अधिक-से-अधिक व्यक्ति इस अभियान में जुड़े। पूज्यवर 27-8-56 को लिखे इस पत्र में लिखते हैं।

“तुमने इतने अधिक व्यक्तियों को गायत्री उपासना में लगाकर एक भारी आध्यात्मिक साधना की है। तुम जो साधारण अपनी उपासना करती हो, उसे करती रहो। अब आगे की विशेष, अत्यंत महत्वपूर्ण और सब साधनाओं से अधिक श्रेयस्कर तपस्या यह करो कि जो गायत्री परिवार तुमने वहाँ बना लिया है, उसका मार्गदर्शन, संगठन, प्रेरणा एवं प्रकाश देने के लिए अबकी अपेक्षा और भी अधिक समय लगाना। यह तपस्या किसी भी बड़े योगाभ्यास से कम नहीं है। अभी तुम्हारे गायत्री परिवार में 65 सदस्य हैं, यह बढ़कर 108 होने चाहिए। इनकी सामूहिक उपासना, सामूहिक यज्ञ, सामूहिक प्रार्थना समय-समय पर होती रहे, तो यह एक बहुत बड़ा काम है।”

व्यक्तिगत साधनों जीवन-साधना से आगे बढ़ाकर सामूहिकता की साधना एवं अंतः आराधना बना लेने का इससे उत्तम स्तर का प्रशिक्षण और क्या हो सका है। संभवतः पाठकों को अब समझने में कठिनाई नहीं होगी कि कैसे कुछ गायत्री साधकों से आरंभ हुआ यह परिवार क्रमशः बढ़कर एक विराट् संगठन का विस्तार पाता चला गया।

एक बार काँती बहन को किसी स्वामी जी के स्त्रियों द्वारा गायत्री साधना संबंधी भ्राँति फैलाने पर क्षोभ हुआ, तो उन्होंने पत्र लिखकर समाधान चाहा। उतर तुरंत पहुँचा। 3-11-56 को लिखे इस पत्र में वे लिखते हैं।-

दंडी स्वामी न व्यर्थ ही लोगों में मतिभ्रम पैदा किया है। तुमने हमारी पुस्तक ‘ स्त्रियों का गायत्री अधिकार’ पढ़ी होगी । न पढ़ी हो ता फिर भेज रहे हैं। यह लोगों ऐसे ही ऊटपटाँग बातें करते रहते हैं। साधुवेश में इन्हें धर्मद्वेषी ही कहना चाहिएं तुम अपने मार्ग पर चलनी रहना। जो ओर कोई उपासना करें, उन्हें कराना, जो छोड़ दें, उनकी इच्छा। “

ठीक ही लिखा है कि सभी गायत्री साधना करने लगें, सभी हमारी मान ले, अनिवार्य नहीं । बरस- शास्त्रार्थ में न उलझकर जो सुनें ,उन्हें सुनाएँ। नहीं तो अपनी साधना नियमित करती रहें ।

ऐसे ही एक अज्ञात साधक को 19-4-59 को लिखा पत्र हम सबके लिए प्रेरणादायी है। यह पत्र हमारी एक आध्यात्मिक जिज्ञासा का जवाब देता है, वह है ध्यान-जप के दौरान होने वाली अनुभूतियाँ। कभी लगता है कि क्या वे सही है ? यदि है, तो किस की सूचक है। पत्र पूज्यवर को लिखा तो उतर मिला।

“आत्मज्योति का दर्शन इस बात का चिह्न है कि कि आपकी साधना सफलतापूर्वक आगे चल रही हैं । इसे आप माता का दर्शन ही समझे । मूर्ति के रूप में दर्शन होना सबके लिए आवश्यक नहीं किसी को प्रतिभा के रूप में दर्शन होता है। आपको प्रकाश रूप में जो साक्षत्कार हो रहा है, उसे माता का पूर्ण साक्षत्कार मानें । आपकी साधना सब प्रकार सफल है। उसकी प्रगति एवं सफलता में किसी प्रकार का संदेह न किया करें ।”

इसी तरह एक और साधक को लिखा एक पत्र दृष्टव्य है, जो हमारा साधना संबंधी मार्गदर्शन भी करता है, अध्यात्मपरक लोकशिक्षण पर गुरुसत्ता की लेखनी का द्योतक भी है। 11-8-52 को लिखे पत्र में वे लिखते हैं।

“इस युग में धर्ममार्ग में इतनी प्रवृत्ति होना पूर्व संचित शुभ संस्कारों का फल अथवा ईश्वर की महती कृपा का चिह्न ही समझ जा सकता है। आप जितना आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न करते हैं। करोड़ों लोग उतना भी नहीं करते । आप श्रद्धापूर्वक अपनी साधना चालू रखें । “

आग वे लिखते हैं,

“आप लोगों ने हमें अपना गुरु माना है। हम इस योग्य तो नहीं है। पर आपकी श्रद्धा के अनुरूप आप पति-पत्नी का पथ-प्रदर्शन सच्चे हृदय से करते रहेंगे और आप लोगों की आत्मिक उन्नति के लिए जो कुछ भी सहयोग एवं सेवा बना पड़ेगी , वह करते रहने के उत्तरदायित्व को निबाहने के लिए पूरा पूरा प्रयत्न करेंगे। “

उपर्युक्त पत्रों के माध्यम से हम दर्शन करते हैं एक उच्चस्तरीय मार्गदर्शक सत्ता का, जो अति विनम्र है, श्रेष्ठ साधक, पथप्रदर्शक है तथा स्नेह से अभिपूरित है। हम सभी कितने सौभाग्यशाली हैं, जो उन्हें जीवन की डोर थमा सके व उनके बताए मार्गदर्शन पर चल सके।


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