क्या तृतीय नेत्र का जागरण संभव है?

March 1993

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मनुष्य के तीसरी आँख होती है, यह विज्ञान में भले ही विवाद का विषय हो;पर सम्पूर्ण अध्यात्म जगत इस बात पर एकमत है कि मनुष्य का एक तृतीय दिव्य नेत्र भी है, जिसे प्रयासपूर्वक आध्यात्मिक उपचारों के माध्यम से खोला और जगाया जा सकता है।

इस संदर्भ में अनेक पौराणिक आख्यान भी है। एक के अनुसार भगवान शंकर ने कामदेव को अपने इसी नेत्र द्वारा जला कर भस्मसात् किया था। इसी के कारण भगवान शंकर के चित्रों में तृतीय चक्षु को भी चित्रित दिखाया जाता है। कहा जाता है कि जब उनका चक्षु खुलता है, तो संसार में हाहाकार मच जाता है। इसलिए उन्हें “महाकाल” कहा गया है, अर्थात् जो काल से ऊपर हो प्रकृति में जरा भी व्यतिक्रम आने पर प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर दे। उनका एक नाम प्रलय ही मचाता रहता है। वास्तविकता तो यह है कि इसमें दो प्रकार की शक्तियाँ हैं-एक “शिव” शक्ति कहलाती है और दूसरी “रुद्र। जब विश्व का कल्याण करना होता है, तो उनके उक्त नेत्र के ‘शिव शक्ति’ वाला पक्ष काम करता है और जब अवाँछनीय तत्त्वों को हटाना-मिटाना अभीष्ट हो, तो इसका दूसरा भीषण और विनाशकारी पक्ष ‘रुद्र शक्ति’ का काम करता है। इन दिनों महाकाल की यह दोनों शक्तियाँ साथ-साथ काम कर रही हैं, इसलिए एक ओर जहाँ कुहराम की वीभत्स दृश्य दिखाई पड़ता है, वहीं दूसरी ओर सृजन की सुनिश्चित संभावना भी अग्रगामी होती हुई प्रतीत होती है। यह शिव का पौराणिक प्रसंग हुआ।

इसके ऐतिहासिक उदाहरण भी देखने को मिलते है। संजय के बारे में कहा जाता है कि उनने मीलों दूर लड़े जा रहे महाभारत युद्ध के पल-पल का वर्णन 18 दिनों तक धृतराष्ट्र को सुनाया था। वह ऐसे ही दिव्य जागरण का परिणाम था विवेकानन्द ने अपने इसी दिव्य नेत्र का प्रयोग करते हुए जमशेद जी टाटा को बिहार के उक्त स्थान में कोयले का पता बताया था। सूरदास के संबंध में प्रचलित है कि वे यदा-कदा नवनीत प्रिया के दर्शन करने अपने निवास गोवर्धन (पारसोली) से गोकुल जाया करते थे। एक दिन वहाँ के पुजारी के पुत्र गिरधर ने किसी के बहकावे में आकर उनकी परीक्षा लेनी चाही। उस दिन उसने मूतँ को निवँसन कर मात्र मोतियों की मालाओं से श्रृंगार किया और सूरदास से उसका वर्णन करने को कहा। सूर ने एक पद रचकर उसका यों उल्लेख किया-

“देखे री हाि नंगम नंगा। जलसुत भूषन अंग बिराजत, बसनहीन छबि उठत तरंगा॥”

वर्णन सही पाकर पुजारी का पुत्र बड़ा लज्जित हुआ और क्षमा-याचना की। वे गोवर्धन के श्रीनाथ जी की प्रतिमा के दर्शन प्रायः प्रतिदिन इसी दृष्टि से करते थे और न केवल करते थे, वरन् हर रोज उनकी अद्भुत साज-सज्जा का वर्णन पद-रचना द्वारा औरों को भी सुनाया करते थे।

विज्ञान इस संबंध में क्या कहता है? यहाँ यह भी विचारणीय विषय है, अतः इसका लेखा–जोखा भी आवश्यक है। तृतीय आँख के अस्तित्व के बारे में वह सर्वथा इनकार तो नहीं करता; पर मनुष्य में ऐसी कोई अलौकिक दृष्टि है, इसकी स्पष्ट शब्दों में कभी स्वीकारोक्ति भी नहीं की। इसके कई कारण हो सकते है। प्रथम, तो यह स्थूल विज्ञान है; पंचभौतिक तत्त्वों से बने पदार्थों और प्राणियों की संरचना तक ही पिछले दिनों उसके शोध और अनुसंधान सीमित रहे हैं। दूसरे, सूक्ष्म की गहराइयों तक पहुँच पाना कदाचित् अगले दिनों उसके द्वारा संभव हो सके; पर अब तक तो वह इस क्षेत्र में लगभग असफल ही रहा है, अस्तु यहाँ उसके विगत की उपलब्धियों की तनिक चर्चा कर लेना अनुचित भी न होगा। मानवेत्तर प्राणियों में से कइयों के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए शरीर शास्त्र कहता है कि उनमें तृतीय नेत्र अथवा इससे मिलता-जुलता कोई अंग पूर्व में कभी विद्यमान था, जो अब अनावश्यक व अनुपयोगी होने के कारण अवशेष के रूप में उपस्थित रहकर जन्तु की राई-रत्ती जैसी जरूरत की ही पूर्ति करता रहता है। प्रमाण के रूप में जीव विज्ञानी न्यूजीलैण्ड के निकट के द्वीपों में छिपकली सदृश्य बहुतायत में पाया जाने वाला जन्तु ‘तुआतारा’ का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और कहते है कि यह विश्व के उन कतिपय प्राणियों में से एक है, जिसमें ‘तीसरी आँख’ के अवशेष खोजे जा सकते है। ज्ञातव्य है कि इस विलक्षण प्राणी के सिर में में आँख जैसी एक संरचना होती है। आँख के लेंस की तरह का ही एक लेंस एवं उसके पीछे दृष्टि पटल जैसी एक बनावट विद्यमान होती है। सामान्य जन्तुओं में आँख को सुरक्षा प्रदान करने के लिए जिस प्रकार पलकों की व्यवस्था है, वैसे ही यह संपूर्ण संरचना एक पतली झिल्ली से ढकी होती है। इससे मिलता अंग “लेम्प्रे” नामक मछली एवं मेढ़कों की कुछ विशेष प्रजातियों में भी पाया जाता है। इस अंग के संबंध में जीव विज्ञानियों का कहना है कि उक्त अवयव आँख जैसा दीखते हुए भी आँख का कार्य नहीं करता और मात्र फोटो रिसेप्टर-प्रकाश संग्राहक की आवश्यकता भर पूर्ति करता है। जानने योग्य तथ्य यह है कि सामान्य आँख भी एक प्रकार से प्रकाश ग्रहण करने वाली संरचना है; पर वह इससे आगे एक अन्य कार्य भी करती है, वह यह कि वस्तु का प्रकाशचित्र ज्ञान-तन्तुओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचा देती है, जहाँ उसका अध्ययन-विश्लेषण कर पहचानने का कार्य संपन्न होता है। उपरोक्त जन्तुओं की तथाकथित “तीसरी आँख” यह कार्य नहीं कर पाती।

उल्लेखनीय है कि जब किसी प्राणी का कोई अंग विशेष आवश्यकतानुसार अनुपयोगी सिद्ध हो जाता है, तो धीरे-धीरे उसका डिजेनरेशन (अपविकास)आरंभ हो जाता है, ऐसा विकासवाद का मत है। उनके अनुसार प्रारंभ में मनुष्यों में नर के भी नारियों जैसे विकसित स्तन थे; पर कालक्रम में उनकी उपयोगिता समाप्त होती गई, अतः आज वे पुरुषों में मात्र दो काले धब्बों के रूप में अवशिष्ट है। इसी प्रकार आदि मानवों में विद्यमान पूँछ अब केवल एक अस्थि के रूप में उसकी गाथा गाती देखी जाती है। इस दृष्टि से विचार किया जाय, तो ‘तुआतारा’ एवं उस जैसे अन्य जन्तुओं में आज का “फोटो रिसेप्टर” आदिम काल में ‘तीसरा नेत्र’ रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है। मानने में कोई हर्ज भी नहं। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जब तुआतारा जैसे निम्न श्रेणी के जन्तुओं में तीसरे नेत्र का प्रतिमान फोटो-रिसेण्टर के रूप में आज भी मौजूद है, तो मनुष्य जैसे अति विकसित प्राणी में उसका वह अस्तित्व अचानक कहाँ व क्यों लुप्त हो गया?

उत्तर “एण्डोक्राइनोलाँजी” से मिलता है। शरीर-शस्त्र की इस शाखा के अनुसार निम्न स्तरीय जन्तुओं में फोटो-रिसेप्टर अंग मानवी मस्तिष्क की पीनियल ग्रन्थि का ही एक प्रकार है, और लगभग वही आवश्यकता पूरी करता है, जो विकसित प्राणियों में पीनियल ग्लैण्ड। मनुष्य के मामले में उसकी यह ग्रंथि खोपड़ी के भीतर मस्तिष्क में स्थित है और बाहर वह ललाट में त्रिकुटी के आस-पास स्थित पिट्यूटरी से जुड़ा बताया जाता है, जहाँ आज्ञा-चक्र स्थित है। सन् 1919 से पूर्व इस ग्रंथि को फालतू और बेकार अवयव माना जाता था; पर उसी वर्ष टिलने और वारेन नामक जन्तु–शास्त्रियों ने “अमेरिकन एनाटामिकल मेमायर्स” पत्र में इस पर आधारित अपना गहन शोध निबन्ध प्रकाशित किया, जिसके उपरान्त ही यह जाना जा सका है कि इस छोटे- से अध्ययनों से भी इसी तथ्य की पुष्टि हुई। 1966 में एम.एच. स्नीडर एवं जे. एक्जेलरोड ने चूहों पर प्रयोग कर यह सिद्ध किया कि यदि उनकी आंखें फोड़ दी जाती है, तो यह रहस्यमय ग्रंथि उसकी खोपड़ी के माध्यम से प्रकाश अवशोषित करने लगती है। जब खोपड़ी भी ढँक दी गई तो उसका स्पष्ट प्रभाव पीनियल की क्रिया पर पड़ता देखा गया। इस प्रकार इन अध्ययनों से यह साबित हो गया कि जिसे छिपकली प्रभृति प्राणियों में तीसरी आँख की संज्ञा दी जाती है, वह अवयव मानवी मस्तिष्क में भी विद्यमान है और दृश्य तथा प्रकाश से उसका सीधा संबंध है।

तो क्या आध्यात्मिक पुरुषों की दिव्य दृष्टि का निमित्त कारण भी इसी अंग अवयव को मान लिया जाय? उत्तर ‘हाँ’ में दिया जा सकता है। जिस प्रकार इस विश्व-ब्रह्मांड में अनेकानेक प्रकार के सूक्ष्म संदेश उगड़ते-घुमड़ते रहते है; पर उन्हें स्थूल कान से नहीं, सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से ही सुना और समझा जा सकता है, वैसी ही बात इस ग्रंथि के संबंध में भी है। नेपोलियन के बारे में कहा जाता है कि एक दिन आधी रात के समय वह अपने सेनापतियों के साथ विचार विमर्श में तल्लीन था, तो शिविर में उसे दूर से आती हुई किसी महिला के रोने की आवाज सुनाई दी। इस संबंध में जब उसने अपने साथियों से बात की, तो उन्होंने किसी प्रकार की आवाज से अनभिज्ञता प्रकट की। बाद में जब इसका पता लगाने के लिए निर्दिष्ट दिशा में सैनिकों को भेजा गया, तो बात सच सिद्ध हुई। ऐसे ही पीनियल व पिट्यूटरी द्विदलीय तृतीय नेत्र का प्रतीक प्रतिनिधि तो है; नर उनकी सूक्ष्म शक्ति को जाग्रत किये बिना वह विभूति हस्तगत नहीं की जा सकती, जो दिव्य दृष्ट के रूप में सिद्ध पुरुषों में पायी जाती है।

अध्यात्म विज्ञान के अनुसार हर पदार्थों के तीन स्तर होते हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। स्थूल के अंतर्गत पदार्थ के आकार-प्रकार और बनावट आते हैं। सूक्ष्म वह स्तर है, जिसमें उसकी संरचना संबंधी बारीक अध्ययन-विश्लेषण और रसायनों की जाँच पड़ताल की जाती है। कारण सत्ता वह है, जिसमें उसके गुण और शक्तियों सम्मिलित है। भौतिक विज्ञान ने अपने प्रकार से इन तीनों भूमिका और में पहुँचने का प्रयास तो किया; पर है वह पदार्थ स्तर का ही; जबकि अध्यात्म, चेतना का विज्ञान है; वह चेतना स्तर की सूक्ष्म शक्ति का प्रतिपादन करता है। उसके तृतीय नेत्र-दिव्य चक्षु-दिव्य दृष्टि इसी परिधि में आते हैं, अतएव पीनियल की चेतनात्मक शक्ति को जगाये बिना, उसका दिव्य उन्मीलन संभव नहीं।

मूर्धन्य अन्तःस्रावी विज्ञान विशारदी रसेल जे. रीटर एवं सैण्डी सोरेण्टीनो (रोचेस्टर यूनिवर्सिटी, न्यूयार्क)”दि पीनियल ग्लैण्ड” नामक पुस्तक के “फैर्क्टस इन्फ्लुएन्सिंग पीनियल “ नामक निबन्ध में लिखते है कि तप-तितिक्षा-उपवास का इस ग्रंथि पर महत्त्वपूर्ण असर पड़ता है और उसकी क्षमता इससे बढ़ने लगती है। लगभग इसी प्रकार का मन्तव्य जे.क्रेसेक एवं वी. पैलैटी ने अपनी पुस्तक “जनरल कम्पैरिजन ऑफ एण्ड्रोक्राइन सिस्टम” में प्रकट किया है। इससे अध्यात्म उपचारों में उपवास की महत्ता विदित होती है। फ्रांसीसी शरीर विज्ञानी जी. राउसी तथा एम. मोसिम्जर अपनी पुस्तक “टे्रटे डी न्युरोएण्डो क्राइर्नालाँजी “ में मनुष्यों पर किये गये पीनियल ग्रन्थि संबंधी अध्ययनों का उल्लेख करते हुए लिखते है कि विचार तंत्र भी पीनियल को सर्वथा अप्रभावित नहीं रहने देता। भले-बुरे विचारों का उसके स्राव व शक्ति पर तदनुरूप असर पड़ते देख गया है।

इन सब अध्ययनों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि अध्यात्म विज्ञान में विचार और आहार पर नियमन-नियंत्रण की जो बात कही गई है, वह अकारण नहीं है। इसके सुनिश्चित सत्परिणाम है, इसे अब विज्ञान भी स्वीकारने लगा है। आने वाले समय में मनुष्य आहार और विचार ही नहीं, अपितु मानवी मूल्यों व मर्यादाओं के संदर्भ में भी अत्यंत संयमशील एवं जागरूक बनने जा रहा है, अतः इस आधार पर वह पीनियल ग्रंथि की सूक्ष्म शक्ति को, जिसे अध्यात्म विज्ञान में तीसरा नेत्र, दिव्य चक्षु, आज्ञा चक्र जैसे नामों से अभिहित किया गया है, जाग्रत कर ले, तो इसे आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए, वरन् एक ऐसा सत्य समझना चाहिए, जो अगले दिनों साकार होने ही वाला है।


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