उच्चस्तरीय विभूतियों की जननी:- श्रद्धा

March 1993

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आध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा को सर्वोपरि आत्मिक शक्ति बताया गया है। मानवी व्यक्तित्व और कुछ नहीं, वरन्, श्रद्धा की ही परिणति है। यह कोई अन्धविश्वास, मूढ़ मान्यता या कल्पनालोक की उड़ान अथवा भावुकता नहीं, वरन् एक प्रबल तत्त्व है। भौतिक जगत में विद्युत शक्ति की महत्ता एवं उपयोगिता से जिस तरह अगणित प्रकार आत्मिक जगत में श्रद्धा की महत्ता है। मनोयोग और भावनाओं से सम्मिश्रण से जो सुदृढ़ निश्चय एवं विश्वास विनिर्मित होता है उसे भौतिक बिजली से कम नहीं वरन् अधिक ही शक्तिशाली समझा जाना चाहिए।

आत्मनिर्माण का विशालकाय भवन उच्च आदर्शों के प्रति समर्पण की चट्टान पर ही खड़ा किया जाता है। जिसे उत्कृष्ट−दिव्य जीवन की गरिमा पर परिपूर्ण श्रद्धा न होगी, वह छुट−पुट प्रयत्न करते रहने पर भी आत्मिक प्रगति के मार्ग पर दूर तक एवं देर तक चल न सकेगा। उपासना, साधना, तपस्या, देव−अनुग्रह, वरदान, स्वर्ग−मुक्ति आदि आत्मिक उत्पादनों के पीछे जो तथ्य काम करता है उसे श्रद्धा का ही परिपाक समझा जाना चाहिए। यदि श्रद्धा न हो तो यह समस्त क्रिया−कलाप मात्र कर्मकाण्ड बनकर ही रह जायेगा और उनका परिणाम नगण्य जितना ही दिखायी देगा।

जिन्हें मन की सत्ता और महत्ता का ज्ञान है उन्हें यह भी विदित है कि चेतना जगत में जिस प्राणशक्ति की अजस्र महिमा मानी गायी जाती है, वह अंतरिक्ष में संव्याप्त विद्युत, चुम्बक, ईथर, विकिरण आदि सामान्य भौतिक संव्याप्ति की श्रद्धा−समन्वित संकल्पशक्ति के आधार पर विनिर्मित एक अद्भुत ऊर्जा ही है। प्राण और कुछ नहीं भौतिक प्रकृति और चेतनात्मक संकल्प शक्ति का समन्वय ही है। प्राणधारियों को जीवित रखने और उनकी मानसिक हलचलों को प्रखर बनाये रहने का कार्य ‘प्राणशक्ति’ द्वारा ही संपन्न होता है। यह एक तथ्य है कि जो जितना श्रद्धावान है वह उतना ही प्राणवान होगा। बौद्धिक तीक्ष्णता से मस्तिष्कीय लाभ मिल सकते हैं, किंतु प्रतिभा, व्यक्तित्व, आत्मबल, जीवट जैसी विशेषतायें श्रद्धासिक्त प्राप्त शक्ति ही उत्पन्न करती हैं। महामानव देवदूत ऋषिकल्प एवं नर-नारायण के रूप में सामान्य व्यक्ति को परिणत कर डालने की क्षमता केवल श्रद्धाशक्ति प्राणशक्ति में ही निहित रहती है।

श्रद्धा का अर्थ है− आत्मानुशासन “इन्टीग्रेटेड−माइन्ड”। शरीर में इन्द्रिय सुखोपभोग की वासना, लिप्सा भरी रहती है। मन में तृष्णा और अहंता की लालसायें−कामनायें उफनती रहती हैं। इन्हीं की माँग पूरी की करने के लिए प्रायः हमारे सारे क्रिया−कलाप होते रहते है। औसत आदमी की गाड़ी इसी ढर्रे पर लुढ़कती है। ऐसे कम ही लोग हैं जो अन्तःकरण से भाव अन्तरंग में परमात्मा की सत्ता प्रतिष्ठित है जो निरन्तर उन उच्च आदर्शों को अपनाने के लिए अनुरोध करती है। आत्मा की पुकार, आत्मा की प्रेरणा, आत्मा की दिशा का यदि अनुगमन किया जाय तो उस तत्परता के साथ संलग्न हो जाती है कि वासना और तृष्णा उपहासास्पद बालक्रीड़ा मात्र प्रतीत होने लगती हैं। तब मन के चंचल एवं चित्त के उद्विग्न होने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।

आत्मबोध, आत्मानुगमन, आत्मोत्कर्ष की सम्मिलित मनःस्थिति का नाम ही श्रद्धा है। यों किसी मन्त्र, आदर्श, व्यक्ति, धर्म के प्रति निष्ठ को भी श्रद्धा कहते हैं, पर उसकी रज्जू श्रेष्ठता के अनुगमन की दिशा से ही जुड़ी रहती है। जो इस स्तर की प्रेरणा उत्पन्न कर सके, भावना उमगा सके, उसकी ही सच्ची श्रद्धा है। इसको सदुद्देश्य के लिए नियोजित कर देने का नाम ही आत्मशक्ति है। आत्मबल की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया उन सिद्धियों के रूप में तत्काल देखी जा सकती है जो न केवल अपने को ही महान बनाती हैं, वरन् संपर्क में आने वालों को भी इतना लाभ पहुँचाती हैं, जितना आर्थिक और शारीरिक प्रचुर सहयोग देने पर भी संभव नहीं हो सकता।

आत्मिक क्षेत्र की उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ श्रद्धासिक्त, उत्कृष्ट मानसिकता की ही देन कही जा सकती है। वैराग्य का अर्थ प्रायः लोगों ने घर−बार छोड़कर शिक्षा माँगना, सफेद कपड़े छोड़कर लाल−पीले पहन लेना मान लिया, पर वस्तुतः वह एक मनःस्थिति है जिसमें कर्तव्य कर्म पूरे उत्साह से करते हुए भी मन असंग, राग, द्वेष रहित बना रहता है। अनासक्त कर्मयोग की गीता में सुविस्तृत चर्चा है। स्थितप्रज्ञ और निर्विकल्प स्थिति का वर्णन है। इसी को वैराग्य कह सकते हैं। खिलाड़ी की भावना से जीवन की खेल की तरह खेलना और नाटक में अपने जिम्मे का अभिनय पूरे मनोयोग से संपन्न करना−यही कर्म योग है। हानि−लाभ और असफलता को बहुत महत्त्व न देकर केवल करना, यहीं है अनासक्त मनःस्थिति। शरीर को आहार−विहार और मन को चिन्तन के लिए उत्कृष्ट सामग्री प्रदान करना, यहीं है सन्तुलित जीवनक्रम की रीति−नीति। इसे जहाँ अपनाया जाएगा वहीं आन्तरिक स्थिरता की वह पृष्ठभूमि बन जायगी जिसमें ध्यानयोग, लययोग जैसी ब्रह्मसान्निध्य की साधनायें सफल हो सकें। ध्यानयोग के लिए जिस शरीरगत− अंतःशांति की नितान्त आवश्यकता होती है, वह श्रद्धा, समन्वित मनःस्थिति से ही संभव हो पाती है।

भौतिक जीवन की अनेक समस्याओं को हल करने के लिए तर्क, आशंका, अविश्वास, सन्देह, काट−छाँट, प्रमाण, परिचय, तथ्य−अतथ्य आदि अनेक कारणों की विवेचना करनी पड़ती है और तब भी मन शंका−शंकित बना रहता है तथा पूर्व निर्णय के सही सुनिश्चित होने में सन्देह बना रहता है। यह मनःस्थिति लाभ−हानि एवं उचित−अनुचित के बीच के उपयोगी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए आवश्यक है, पर यह स्थिति आध्यात्मिक क्षेत्र में भी बनी रहे तो अनिश्चित विश्वास के कारण वह शक्ति उत्पन्न न हो सकेगी जिसके आधार पर आत्मबल बढ़ाने −उच्च आदर्श अपनाने की श्रद्धान्वित पृष्ठभूमि बनायी जाती है। कहना न होगा कि यदि आत्मिक प्रगति का भवन खड़ा ही न हो सकेगा।

आत्मिक प्रगति के लिए हमें श्रद्धा को जगाना पड़ता है, आत्मानुगामी बनना और अंदर के गुरुतत्त्व की शरण में जाना पड़ता है। जो इतना साहस कर सकता है, अपनी आकाँक्षाओं को उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित कर सकता है, उसे वासना और तृष्णा की तूफानी आँधियों का सामना नहीं करना पड़ता और शक्ति का निरन्तर होते रहना वाला अपव्यय सहज ही बचना आरंभ हो जाता है। आत्मिक पूँजी इसी प्रकार जमा होती है। भौतिक विक्षोभों से विरत रह सकना कठिन लगता भर है, पर वस्तुतः वैसा है नहीं।

यदि अपने अंतरंग में प्रवेश करते रहने वाले विचारों का वर्गीकरण मात्र करते रहें, उनके विश्लेषण विवेचन के लिए सजग तत्परता प्रदर्शित करें तो सहज ही वे अवाँछनीय विचार पलायन करने लगेंगे जिनके झमेले में अशान्त अन्तःकरण कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने में वंचित ही बना रहता है।

श्रद्धा की स्थिरता के लिए मानसिक परिष्कार का होना जरूरी है। इसका प्रथम चरण यह है कि मस्तिष्क की स्थिति, रुचि, रुझान का वैसा ही निरीक्षण किया जाय जैसा कि एक कुशल चिकित्सक रोगी का विविध प्रकार से परीक्षण करके शरीर की वस्तु स्थिति समझने का प्रयत्न करता है। आत्म विश्लेषण इसी स्तर का प्रयास है। मन−मस्तिष्क में जड़ जमाकर बैठी हुई विकृतियाँ ही मानवी पतन का प्रमुख कारण होती हैं। चोर का साहस वहीं होता है जहाँ उसे यह भय नहीं रहता कि कोई देख रहा होगा। सेंध लगाने से पूर्व चोर यह पता लगाते हैं कि कहीं किसी की दृष्टि उनके कुकृत्य पर है तो नहीं। यदि पता चल जाय कि लोग जाग रहे हैं या देखभाल कर रहे हैं, तो फिर चोरी करने का साहस ही न पड़ेगा और वह उलटे पैरों लौट जायेगा। अवाँछनीय विचार उसी मस्तिष्क में प्रवेश करते तथा जड़ जमाते है जहाँ आत्म निरीक्षण एवं आत्म विश्लेषण की दृष्टि से बेखबरी छायी रहती है। जहाँ जागरूकता होगी−देखभाल, ढूंढ़–खोज चल रही होगी, वहाँ कुविचार अपने आप ही लज्जा, भय और ग्लानि अनुभव करते हुए अपनी हरकतें बन्द कर देंगे।

जब हम यह सोचते हैं कि मस्तिष्क हमारा घर है। इसमें किसे प्रवेश करने देना है, किसे नहीं, यह निर्णय करना हमारा काम है, तब मन की स्थिति ही बदल जाती है। आत्म विज्ञानी ईश्वरीय सत्ता के प्रति श्रद्धा के माध्यम से यहीं लाभ उठाते हैं। वह सत्ता केवल मानने और जानने योग्य ही नहीं है, वरन् श्रद्धा करने योग्य भी है। उसके क्रिया −कलापों, प्रकृति प्रांगण में यत्र−तत्र बिखरी उसकी प्रेरणाओं का अध्ययन किया जाय तो यह भी विदित हो जायगा कि वह उच्चस्तरीय श्रद्धा ही वह तत्त्व है जो मानवी व्यक्तित्व को महान बनाती, देवत्व प्रदान करती है। आत्म−शक्ति इसी की देन है।


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