निकटवर्ती वस्तुएँ बड़ी एवं महत्वपूर्ण लगती हैं और दूरी का फासला बढ़ने पर बड़ी वस्तु भी नगण्य जैसी लगने लगती है। उदाहरण के रूप में अपने चारों ओर फैले हुए ब्रह्मांड पर दृष्टि डालने और उसकी सत्ता का पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि अत्याधिक विशालता भी दूरस्थ होने के कारण छोटी-सी प्रतीत होने लगती है।
पृथ्वी के अति निकट होने के कारण छोटा-सा चन्द्रमा भी इतना महत्त्वपूर्ण लगता है कि उसे सूर्य के बाद दूसरे नम्बर का खगोलीय पिण्ड माना जाता है, जबकि उसका स्तर मात्र पृथ्वी के उपग्रह जितना भर है। खुली आँख से देखने पर विशालकाय तारे छोटे-से लगते हैं और चन्द्रमा तुलनात्मक दृष्टि से छोटा आकार का होते हुए भी रात्रि में चमकने वाला सबसे बड़ा आकाशीय पिण्ड जैसा लगता है।
समस्त आकाशीय पिण्डों में चन्द्रमा हमारे सबसे समीप है। आधुनिक विज्ञान और तकनीक के विकास से चन्द्रमा के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो चुकी है। पृथ्वी से इसकी औसत दूरी ढाई लाख मील से कुछ कम है। यदि 300 मील प्रति घंटे की रफ्तार से एक वायुयान शून्य में भी चल सकता हो, तो हम एक माह में चन्द्रतल तक पहुँच सकते हैं।
क्षेत्रफल में भी चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी की अपेक्षा अत्यन्त छोटा है। इसका व्यास लगभग 3160 मील है। चाँद की तुलना यदि पृथ्वी से करें, तो 49 शशि मिलकर एक पृथ्वी बना पायेंगे। भार की दृष्टि से अपना ग्रह अपने उपग्रह से 89 गुना भारी है, अर्थात् यदि तराजू के एक पलड़े पर पृथ्वी रखी जाय, तो दूसरे पलड़े पर 89 चाँद रखने पर उनका कुल भार एक पृथ्वी के बराबर होगा।
चन्द्रतल की गुरुत्वाकर्षण शक्ति अत्यन्त कम है। पत्थरों के भार से यह अन्दाज मिलता है। ऊपर से गिरने वाली वस्तु जिस गति से पृथ्वी पर गिरती है,चन्द्रमा पर उसकी रफ्तार 6 गुनी कम हो जायेगी। इसी प्रकार पृथ्वी पर 6 किलो भार वाली वस्तु चन्द्रमा पर पहुँच कर 1 किलो किलो जितनी हो जायेगी।
चन्द्रमा के संबंध में पूर्व संचित जानकारी और मान्यता से आधुनिक पर्यवेक्षण सर्वथा भिन्न है। वह निशानाथ एवं तारापति नहीं है, जैसा कि मान्यता के अनुसार उसका यशोगान होता रहता है। सौर-मण्डल के अन्य ग्रह गोलक विशालता की दृष्टि से पृथ्वी की तुलना में अत्यधिक बड़े हैं, किन्तु वे दूर होने के कारण लगण्य जितने भासते हैं।
सत्य केवल वहीं नहीं है, जो अब तक जाना जा चुका है अथवा जिसे जानने के करीब है। शक्तिशाली रेडियो दूरबीनों के द्वारा दूरस्थ तारों के रेडियो सर्वेक्षण से उनके आकार, उत्पत्ति, विकास व विनाश चक्र में उनकी वर्तमान स्थिति तापक्रम गुरुत्वाकर्षण शक्ति आदि का पता चलता है। इन्हीं की सहायता से सौर-मण्डल के दसवें ग्रह का पता चला है। नवें ग्रह यम (प्लूटो)के आगे इस दसवें ग्रह का द्रव्यमान पृथ्वी 300 गुना है यह सूर्य के चारों ओर 511 वर्षों में एक परिक्रमा पूरी करता है। इस ग्रह की सबसे विचित्र विशेषता यह है कि इसकी सूर्य-परिक्रमा की दिशा अन्य नौ ग्रहों के एकदम विपरीत है।
सौर-मण्डल की अधुनातन खोजों से पता चला है कि समस्त ग्रहों में प्लूटो की दूरी सर्वाधिक है, किन्तु नवीनतम अनुसंधानों के अनुसार नेपच्यून को सबसे दूरस्थ समझा गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार प्लूटो और आगे-पीछे भागने की प्रक्रिया पिछले 20 वर्षोँ तक निरंतर चलती रही है। इसके पश्चात् अब प्लूटो अपनी पूर्व स्थिति में आ गया है। इन दोनों ग्रहों की इस तरह की विलक्षण गतिविधियों विगत जनवरी 1969 से 1999 तक अनवरत चलती रहेंगी। इसे अन्तरिक्ष विज्ञानियों ने ब्रह्मांड की विलक्षणता का एक अद्भुत उदाहरण कहा है।
नेपच्यून को सूर्य की अण्डाकार परिक्रमा करने में 164 वर्ष लगते है। ज्योतिर्विद् श्री लाँवेल ने कभी भविष्यवाणी की थी कि सूर्य से 4 अरब मील की दूरी पर नवम् ग्रह भी हो सकता है, जो सूर्य की परिक्रमा 284 वर्ष में पूरी करता हो। इस अपूर्ण जानकारी को उपलब्ध कराकर सन् 1916 में लाँवेल तो दुनिया से कूच कर गये, पर 14 वर्ष बाद अमेरिका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक क्लाहब टाँमबफ ने उनकी भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध करते हुए प्लूटो नामक नवें ग्रह को खोज निकाला।
प्लूटो और सूर्य के मध्य दूरी 3,66,00000 मील है और 248 में इसका परिक्रमा-काल पूरा होता है, किन्तु इसका परिक्रमा पथ व्यवस्थित नजर नहीं आता।
प्लूटो-नेपच्यून जैसे नये ग्रहों के उपरान्त अब ऐसे अन्य और ग्रहों की संभावना अपने सौर-मण्डल में मानी जाने लगी है, जो दूरी की अधिकता के कारण विशाल दूरबीनों से नहीं दिखने पर भी विशालता के आधार पर काफी बड़े और महत्वपूर्ण हैं।
अखिल ब्रह्मांड की असीमता को देखते हुए अपना सूर्य एक नन्हा-सा टिमटिमाता हुआ तारा भर है। ब्रह्मांड में असंख्यों संसार अविज्ञात तथा अनखोजे अस्तित्व में हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जे.बी.एस. हेल्डेन ने इस कल्पनातीत ब्रह्मांड के बारे में अपनी कृति दि वर्ल्ड बियाँण्ड अस” में कहा है-ब्रह्मांड का विराट व विलक्षण है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर पाते हैं।”
अमेरिकी खगोलविद् शैपले ने पाया कि आकाश गंगा के रूप में दिखने वाले झुण्डों की पृथ्वी से दूरी 20,000 से 2्र00,000 प्रकाश वर्ष तक है उसने यह भी पता लगाया कि ये झुण्ड एक विशाल घेरा बनाते हैं और उन्हें लकड़ी के तख्ते की तरह विभाजित करती हुई एक आकाश गंगा गुजरती है। इस घेरे का केन्द्र आकाश गंगा में है। यह केन्द्र सूर्य से 50,000 प्रकाश वर्ष दूर है। इस प्रकार शैपले ने यह सिद्ध किया कि सूर्य आकाश गंगा के केन्द्र पर नहीं है, जैसा कि पूर्व के अन्य वैज्ञानिकों ने कहा था।
अन्तरिक्ष में अनेक आकाश गंगाएँ मिलकर समूह बनाती हैं। इनको विज्ञानियों ने आकाश गंगा श्रृंखलाएं कहा है। प्रत्येक श्रृंखला में हजारों आकाश गंगाएँ रहती है। कोमाकखला एक ऐसी ही विशाल आकाश गंगा समूह है, जिसमें 11,000 आकाश गंगाएँ हैं। प्रत्येक के बीच करोड़ों प्रकाशवर्ष की दूरी है।
निकटवर्ती चन्द्रमा की विशालता और ब्रह्मांड भर में बिखरे सूर्य तारकों की स्थिति तुच्छ जितनी दिखने का कारण एक ही है-निकटवर्ती को महत्व मिलना और दूरवर्ती के प्रति उपेक्षा दर्शाना। आँखें कुछ भी देखती हों, मस्तिष्क कुछ भी निष्कर्ष निकालता हो, पर कई बार तथ्य, सत्य जैसे लगते हुए भी सर्वथा विपरीत होते हैं। सत्यान्वेषी इस बात से भिज्ञ रहते हैं, फलतः वे दूरवर्ती और निकटवर्ती के संबंध में किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व उसकी गहराई से पड़ताल करते हैं कि जो कुछ भी दिखाई पड़ रहा है, वह सच्चाई के कितना करीब है। इसे परखने के पश्चात् ही वे किसी प्रकार की धारणा और मान्यता बनाते और अपनाते हैं।
इस संदर्भ में ऊपर के उदाहरण इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि जो निकटवर्ती है- प्रत्यक्ष दृश्यमान है, जरूरी नहीं कि वे सही ही हों। मिथ्या होने की संभावना उनमें भी शत-प्रतिशत हो सकती है। वर्तमान अतिसमीप होने से उसके लाभ सर्वोपरि प्रतीत होते हैं, जबकि भविष्य दूरवर्ती होने के कारण उपेक्षित बना रहता है। स्वार्थ साधना का प्रतिफल तुरन्त मिलता है, और परमार्थ की परिणति कालांतर में होती है। इसी भ्रान्ति में मनुष्य यह सोचने लगता है कि तात्कालिक स्वार्थ-साधना में ही बुद्धिमत्ता है। तथ्य इसके विपरीत है। दूरवर्ती एवं चिरस्थायी उज्ज्वल भविष्य की महत्ता समझने की यदि टेलिस्कोप जैसी दूरदर्शिता हस्तगत हो सके, तो प्रतीत होगा कि श्रेय साधना ही महत्वपूर्ण एवं श्रेयस्कर है। चन्द्रमा की विशालता एवं आकाश गंगा की लघुता सध्यान्तर के कारण उत्पन्न हुई, भ्रान्तियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसी प्रकार स्वयं को बड़प्पन में विशालता का दीख पड़ना और क्षुद्रता जैसी लगने वाली महानता को लात मार कर निरन्तर उसी ओर बढ़ते चलना, ऐसी अदूरदर्शिता है, जिसे इन दिनों बुद्धिमान समझे जाने वाले दृष्टिधारी भी करते प्रायः देखे जाते हैं। इससे बच निकलने वाले ही सत्य तक पहुंचते और श्रेय साधने में सफल होते हैं।