सिद्धि सर्वोपरि या सेवा?

March 1993

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“नहीं, नहीं मरुत! श्रेष्ठता का आधार वह तपश्चर्या नहीं, जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियाँ और सामर्थ्य प्रदान करे। ऐसा तप तो शक्ति तपस्वी तो वह है जो अपने लिए कुछ चाहे बिना समाज के शोषित, उत्पीड़न, दलित और असहाय जनों को निरन्तर ऊपर उठाने के लिए परिश्रम किया करता है। इस दृष्टि से महर्षि कण्व की तुलना राजर्षि विश्वामित्र से नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसीलिए है कि वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि के उत्थान के निरन्तर घुलते रहते है।” देवराज इन्द्र ने सहज भाव से मरुत की बात का प्रतिवाद किया।

पर मरुत अपनी बात पर दृढ़ थे। उनका कहना था-”तपस्वियों में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही है। उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और कण्व वहाँ से कुछ दूर आश्रम में जीवन यापन कर रहे थे। उनके आरण्यक में बालकों को ही नहीं बालिकाओं को भी समानान्तर धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।”

मरुत ने फिर वहीं व्यंग करते हुए कहा-”देवेश! आपको तो स्पर्धा का भय बना रहता है किंतु आप विश्वास रखिए विश्वामित्र त्यागी सर्व प्रथम हैं तपस्वी बाद में। उन्हें इन्द्रासन का कोई लाभ नहीं, तप तो वह आत्म कल्याण के लिए कर रहे हैं। उन्होंने न चुकने वाली सिद्धियाँ अर्जित की हैं। उन सिद्धियों का लाभ समाज को कभी भी दिया जा सकता है। “

“विश्वामित्र की सिद्धियों को मैं समझता हूँ मरुत। “ इन्द्र ने पुनः अपनी बात को प्रतिष्ठापित करते हुए कहा-”किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति उनका उपयोग लोक कल्याण में करे। शक्ति में अहं भाव का जो दोष है, वह सेवा में नहीं। इसलिए सेवा को मैं अहं भाव का जो दोष है, वह सेवा में नहीं। इसलिए सेवा को मैं शक्ति से श्रेष्ठ मानता हूँ। इसी कारण कण्वत्त्-विश्वामित्र से श्रेष्ठ हैं।”

बात आगे बढ़ती किन्तु महारानी शची के आ जाने से विवाद रुक गया। रुका नहीं-एक नया मोड़ ले लिया। शची ने हँसते हुए कहा-”अनुचित क्या है? क्यों न इस बात की हाथों हाथ परीक्षा कर ली जाय।”

बात निश्चित हो गई। कण्व और विश्वामित्र की परीक्षा होगी यह बात कानों-कान स्वर्गपुरी में फैल गई। देव गण उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे, देखें सिद्धि की विजय होती या सेवा की।

निशा देवी ने पहला पाँव रखा। दीप जले-स्पष्ट की आरती से उनका स्वागत किया गया। दिव्य ज्योतियों से सारा इंद्रपुर जगमग-जगमग करने लगा। ऐसे समय देवेन्द्र ने अनुचर को बुलाकर रूपसी अप्सरा मेनका को उपस्थित करने की आज्ञा दी। अविलम्ब आज्ञा का पालन किया गया। थोड़ी ही देर में मेनका वहाँ आ गई। इन्द्र ने उसे सारी बातें समझा दीं। वह रात इस तरह इन्द्रपुर में अनेक प्रकार की मंत्रणाओं में ही बीती।

सवेरा हुआ। ऊषा की लालिमा ढलने लगी। सूर्य देव प्राची में अपनी दिव्य प्रभा के साथ उगने लगे। भगवती गायत्री की आराधना का यह सर्वोत्कृष्ट समय होता है। तपस्वी विश्वामित्र आसन बन्ध और हृदय में वैराग्य की धारा अहिर्निशि बहा करती थी। जप और ध्यान में कोई व्याघात नहीं होता था। बैठते ही बैठते चित्त भगवान सविता के भर्ग से आच्छादित हो गया। एक प्राण आद्यशक्ति गायत्री और राजर्षि विश्वामित्र में दिव्य तेज फूट रहा था उनकी मुखाकृति से। पक्षी और वन्य जीव भी उनकी साधना देखकर मुग्ध हो जाते थे।

उनकी इस गहन शान्ति और स्थिरता को देखकर पक्षियों को कलरव करने का साहस न होता। जन्तु चरमर नहीं करते थे, उन्हें भय का कहीं ध्यान न टूट जाये और तपस्वी के कोप का भाजन न बनना पड़े। सिंह तब दहाड़ना भूल जाते वे दिन के तृतीय प्रहर में ही दहाड़ते और वह भी विश्वामित्र की प्रसन्नता बढ़ाने के लिए क्योंकि उस समय वन विहार के लिए आश्रम छोड़ चुके होते थे।

किंतु आज उस स्तब्धता को तोड़ने का साहस किया किसी अबला ने। अबला नहीं अप्सरा। मेनका। समूचा इंद्रपुर जिसकी छवि पर दीपक की लौ पर शलभ की भाँति जल पाने के लिए आतुर रहता था। आज उसने अप्रतिम श्रृंगार कर विश्वामित्र के आश्रम में प्रवेश किया था। पायल की मधुर झंकार से वहाँ का प्राण-पूत वातावरण भी सिहर उठा। लोध पुष्प की सुगंध सारे आश्रम में छा गई। जहाँ अब तक शान्ति थी, साधना थी, वहाँ देखते-देखते मादकता, वैभव विलास खेलने लगा।

पर विश्वामित्र की समाधि निश्चल, अविचल। अन्तरिक्ष में गए प्राण जिस सुख और शान्ति की अनुभूति में निमग्न थे, यह नयापन उसकी तुलना में नगण्य था। लेकिन जैसे-जैसे मेनका के पावों की थिरकन, कण्ठ का संगीत और अंगराग वहाँ तीव्रता से बिखरने लगा, विश्वामित्र की चेतना में आकुलता बढ़ने लगी। रूप और सौंदर्य के इन्द्रजाल ने आकाश में विलीन तपस्वी की एकाग्रता को आश्रम में ला पटका। मेनका नृत्य में खो गई और विश्वामित्र की स्थिरता खो गई उसके अंग सौष्ठव, रूप सज्जा में।

दण्ड और कमण्डलु ऋषि ने एक ओर रख दिए। कस्तूरी मृग जिस तरह बहेलिये की संगीत ध्वनि से मोहित होकर काल-कवलित होने के लिए चल पड़ता है। सर्प जिस तरह वेणुनाद सुनकर लहराने लगता है। राजर्षि विश्वामित्र ने अपना सर्वस्व उस रूपसी अप्सरा के अंचल में न्यौछावर कर दिया। सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया कि विश्वामित्र का तप भंग हो गया।

एक दिन-दो दिन, सप्ताह, पक्ष और मास बीतते गए और उनके साथ ही विश्वामित्र का तप और तेज स्खलित होता गया। तपस्वी का अर्जित तप काम दो कौड़ी दाम बिक गया और जप तप के साथ उनकी शाँति, उनका यश और सिद्धि वैभव भी नष्ट हो गया, तब उन्हें पता चला कि भूल नहीं अपराध हो गया। विश्वामित्र प्रायश्चित की ज्वाला में दहकने लगे।

क्रोधोन्माद में ऋषि ने मेनका को दण्ड देने का निश्चय किया पर प्रातःकाल होने तक मेनका उनके आश्रम से जा चुकी थी। इतने दिन की योग-साधना का परिणाम एक कन्या के रूप में छोड़कर। विश्वामित्र ने बिलखती आत्मजा के पास भी मेनका को नहीं देखा तो उनकी देह क्रोध से जलने लगी, पर अब हो ही क्या सकता था? मेनका तो इन्द्रपुरी पहुँच चुकी थी।

रोती-बिलखती आंसुओं से भीगी, क्षुधा से कलपती कन्या को देखकर भी विश्वामित्र को दया नहीं आयी। पाप उन्होंने किया था, पश्चाताप भी उन्हें ही करना चाहिए था। लेकिन उनकी आँखों में तो प्रतिशोध छाया हुआ था। ऐसे समय मनुष्य को इतना विवेक कहाँ कि वह यह सोचे कि अपनी भूलें सुधार भी सकता है और नहीं तो अपनी संतान, अपने आगे आने वाली पीढ़ी के मार्ग दर्शन के लिए तथ्य और सत्य को उजागर ही रख सकता है। विश्वामित्र को तो बस अपने आत्म कल्याण की चिन्ता सता रही थी, इसलिए उन्हें इतनी भी दया नहीं आयी कि वह बालिका को उठाकर दूध और जल की व्यवस्था करते। बालिका को वहीं बिलखता छोड़कर वे वहाँ से चले गए।

दोपहर के समय ऋषि कण्व लकड़ियाँ काटकर लौट रहे थे। मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम पड़ता था। बालिका के रोने का स्वर सुनकर कण्व ने निर्जन आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम सूना पड़ा था। अकेली बालिका दोनों हाथों के अंगूठे मुँह में चूसती भूख को धोखा देने का असफल प्रयत्न कर रही थी।

कण्व ने भोली बालिका को देखा, स्थिति का अनुमान करते ही उनकी आंखें छलक उठीं। उन्होंने बालिका को उठाया, चूमा और प्यार किया और गले लगाकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। पीछे-पीछे उनके सब शिष्य चल रहे थे।

इन्द्र ने मरुत से पूछा- ”तात! बोलो, जिस व्यक्ति के हृदय में पाप करने वाले के प्रति कोई दुर्भाव नहीं, पाप से उत्पीड़ित के लिए इतना गहन प्यार, कि उसकी सेवा माता की तरह करने को तैयार वह कण्व श्रेष्ठ हैं या विश्वामित्र?”

मरुत आगे कुछ न बोला सके। उन्होंने लज्जावश अपना सिर नीचे झुका लिया।


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