अपनों से अपनी बात - परम पूज्य गुरुदेव का एक सामयिक सम्पादकीय - मानवी जीवन का सबसे बड़ा लाभ- प्रतिभा परिष्कार

March 1993

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आज हम युगसंधि काल में इतिहास के जिस मोड़ पर खड़ा हुए है, वह निश्चित ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय है। यह परिवर्तन का विराट व्यापक स्तर पर क्रान्ति का समय है। बदलाव लाने के लिए हमेशा परमात्मा की अवतारी सत्ता प्रखर प्रतिभाओं का उपार्जन करती एवं उनसे वह सब करा लेती है जिससे वे युग−परिवर्तन के श्रेयाधिकारी बन सकें। आज की विनाशकारी घटाटोप भरी परिस्थितियों में हमारा मार्गदर्शन परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखी सम्पादकीय में व्यक्त वे भावनाएं करती है, जिनमें महाकाल की माँग के रूप में प्रतिभाओं से वे आह्वान करते है। प्रस्तुत अंक में समय के अनुकूल मार्गदर्शन हेतु पूज्यवर की 1990 की लिखी एक ‘अप्रकाशित ‘अपनी बात’ हम प्रकाशित कर रहे हैं।

झोपड़ी का छप्पर बनाने में कई श्रमिक, सहयोगियों, कारीगरों की आवश्यकता पड़ती है। बढ़े कारखानों, मिलों में तो हजारों की संख्या में कुशल कारीगरों की आवश्यकता होती है। अपने देश के रेल तंत्र में ही लाखों प्रशिक्षित कर्मचारी कार्यरत रहते है; फिर एक देश का ही नहीं वरन् समूचे विश्व के क्रिया−कलापों का दृष्टिकोण, चिंतन, चरित्र, व्यवहार में लगभग आमूल–चूल परिवर्तन करने में किस स्तर की, कितनी बड़ी सृजन सेना चाहिए। इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। आगरे का ताजमहल, मिश्र के पिरामिड चीन की दीवार जैसे भव्य निर्माणों को जिन्होंने निकट से देखा है उन्हें यह अनुमान भी लगाते बन पड़ा होगा कि कठिन परिस्थितियों में जटिल संरचनाएँ खड़ी करने में कितने संसाधनों और कितने श्रमिकों, कितने योजनाकारों का इनमें नियोजन हुआ होगा, और वे कितने दिनों के कठिन परिश्रम से विनिर्मित हो सके होंगे। युग−निर्माण ऐसी संरचनाओं की तुलना में हजारों लिए किस स्तर की कितनी बड़ी सृजन सेना चाहिए, इसका अनुमान लगाना मूर्धन्यों के लिए कुछ बहुत कठिन नहीं होना चाहिए।

लंका दमन और नवयुग के संस्थापन में तत्कालीन मनुष्यों की उपेक्षा भीरुता आड़े आने पर रीछ−वानरों को प्राण हथेली पर रखकर उस प्रयोजन के लिए आगे बढ़ना पड़ा था। गोवर्धन उठाने और महाभारत के विशाल भारत संरचना कार्य में भी अनेकों उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ कार्य क्षेत्र में उतरी थी। बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए लाखों परिव्राजक देश−देशान्तरों में भेजे थे। गाँधी को भी सत्याग्रह आन्दोलन में कितने जीवन्त मनस्वी उस अमृतपूर्व युद्ध में मोर्चा संभालने के लिए मनस्वी उस अभूतपूर्व युद्ध सृजन के लिए भी उन सबके सम्मिलित योग से भी बड़ी कार्यवाहिनी चाहिए। कारण कि लक्ष्य दुहरा है−एक अवाँछनीयताओं से भरे विशालकाय समुद्र को अगस्त्य की तरह सोखने का, दूसरा भगीरथ द्वारा गंगावतरण संपन्न करने की तरह शुष्क भूमि में हरीतिमा के व्यवस्था विस्तार का। अस्तु समय की माँग पूरी करने के लिए दूने मनोबल वाले, दूने पराक्रम कर दिखाने वाले सृजन शिल्पियों की अगले ही दिनों आवश्यकता पड़ेगी। उनके उत्पादन में लम्बी प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। यह कार्य युद्ध स्तर पर संपन्न करना होगा। 600 करोड़ मनुष्यों के मानस में जमी हुई प्रतिगामिताओं को बदल कर उनके स्थान पर प्रगतिशीलता की प्रतिष्ठापना करनी है। लाँण्ड्री कुछ ही लोगों के कपड़े धो पाती है; पर यहाँ तो धरती के कोने−कोने में बिखरे हुए लोगों का ब्रेन वाशिंग करना लक्ष्य है। चल रही गतिविधियों में से अधिकाँश ऐसी है जो अपनी उपयोगिता खो चुकी उनके स्थान पर अभिनव प्रचलनों का प्रवाह बहाना है। मनुष्य के पूर्वाग्रही, हठवादी, प्रतिगामी स्वभाव को देखते हुए यह कम कठिन नहीं है, पर जो करना है वह तो करना ही ठहरा। अग्निकाण्ड, बाढ़, भूकम्प, महामारी, किसी भयंकर दुर्घटना की विभीषिका मूक दर्शक बनकर भी तो नहीं देखी जा सकती। मानवी गौरव और वर्चस्व ऐसी विपन्नता निरपेक्ष होकर देखता भी नहीं रह सकता। प्राणवानों को समय की चुनौती आगे बढ़कर स्वीकार करनी पड़ती है। अगले दिनों चिंतन का स्वरूप और गतिविधियों का परिवर्तन इतने बड़े रूप में आवश्यक होगा, जिसे समय का कायाकल्प हुआ कहा जा सके। युग परिवर्तन ऐसी ही प्रत्यावर्तन को कहा जाता है।

आरंभ कहाँ से हो? यह विचारणीय है। अनभ्यस्त का मार्गदर्शन कौन करे? अनदेखी रहने पर अग्रगमन कौन करे? इसके लिए हनुमान जैसे लम्बी छलाँग लगाने वाले और नल−नील जैसे पानी पर पत्थर तैराने वाले साहस के धनी और पैनी सूझबूझ वाले चाहिए। वे कहाँ मिले? उन्हें कहाँ ढूँढ़ा जाय? नये सिरे सिरे से भर्ती करने और लक्ष्यबेध में प्रवीण, पारंगत बनाने के लिए कितनों को किस प्रकार प्रशिक्षण दिया जाय, यह टेढ़ी खीर है। बिल्ली के गले में चूहे पेजों द्वारा घंटी बाँधे जाने की योजना की तरह जटिल और कठिन भी। इतना सब होते हुए भी महाकाल की चुनौती किन्हीं को तो स्वीकार करनी होगी। महाविनाश की ओर दौड़ी जा रही उन्मीद भीड़ को किसी न किसी प्रकार रोकना ही होगा? भटकों को लौटाने और उपयुक्त मार्ग पर चलने के लिए बाधित करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी तो नहीं है।

प्रस्तुत प्रयोजन के लिए शान्तिकुँज ने अपनी थोड़ी सामर्थ्य और छोटी सीमा का अनुमान लगाते हुए भी यह दुस्साहस किया है कि युग संधि के आगामी आठ वर्षों तक चलने वाले पर्व पर कोई कहने लायक उपलब्धि प्रस्तुत करके दिखानी है। अपना परिवार, परिकर लम्बे समय से आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रशिक्षित और प्रोत्साहित किया जाता रहा है। अब वह इतना परिपक्व हो गया है कि कोयल की खदान से कुछ रत्न निकलने की आशा की जा सके। लम्बे समय तक पलते और बढ़ते रहने के उपरान्त वृक्ष इस स्थिति में भी तो पहुँचता है कि उसकी डालियों को सुहावने मधुर फलों से लदा हुआ देखा जा सके। रुग्ण और दुर्बल काया के लिए शक्तिदायक आहार की तरह उनका उपयोग हो सके।

बड़ी योजनाएँ बनाने, बड़ों से बड़ी आशा करते रहने की अपेक्षा यह अधिक व्यावहारिक है कि जो अपने हाथ में है, उसी का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर गुजरा जाय। मिशन की पत्रिकाओं के प्रायः पाँच लाख स्थायी पाठक है। हर पत्रिका को नियमित रूप से पढ़ने वाले पाँच−पाँच ग्राहक भी। निष्ठावान पाठक भी इसी परिवार के साथ जुड़े हुए हैं। इन पच्चीस लाख अनुमानित परिजनों में से यह आशा करने के पीछे तथ्यों का बल है कि इनमें से एक लाख व्यक्ति ऐसे निकलें जो नव सृजन के महाकाल को पूरा या आँशिक समय लगाकर महापरिवर्तन के भागीदार बन सके।

युगसंधि के सात वर्ष चलने वाले पावन पर्व पर एक लाख सृजन शिल्पी विनिर्मित करे युग देवता के चरणों में उपस्थित करने का संकल्प उभरा है। परम्परा के अनुरूप समर्थक संकल्प जन्मते ही बढ़ने और चलने भी लगते है। संकल्प के अनुरूप व्यवस्था भी चल पड़ी है। परिवार के प्राणवानों को क्या करना है, यह तो साहित्य के माध्यम से भी बताया जा चुका है। अब बात इतनी भर है कि निजी मनःस्थिति और स्थानीय परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाते हुए किये क्या, किस प्रकार, कहाँ कब क्या कुछ करना है इसका निर्धारण किया जाय। इसके लिए उपयुक्त विधि व्यवस्था का प्रकाश, मार्गदर्शन प्राप्त किया जाय। साथ ही पहुँचाया जाय, जहाँ तक पहुँचने पर कुछ बिना रुका ही नहीं कहा जा सकता।

युगसंधि पुरश्चरण के साथ−साथ चल पड़े है। समय कम आवश्यकता बड़ी को देखते हुए इस प्रशिक्षण प्रक्रिया को एक महीने की अवधि में सिकोड़ा गया है। जो अत्यधिक व्यस्त है वे न्यूनतम नौ दिन तक जो इन प्रेरणा सत्रों में सम्मिलित होकर अपनी बैटरी नये सिरे से चार्ज करा ही सकते है। यही शिक्षार्थी इन सात वर्षों की अवधि में संख्या की दृष्टि से एक लाख से कम न रहेंगे और वे अपनी−अपनी स्थिति के अनुरूप अपने क्षेत्र में कुछ न कुछ ऐसा किये बिना न रहेंगे, जिसे सराहनीय ही नहीं, अनुकरणीय और प्रेरणाप्रद कहा जा सके।

नालन्दा, तक्षशिला विद्यालयों में प्रायः तीस−तीस हजार छात्र एक साथ पढ़ते थे। इस प्रयोजन के लिए बौद्ध विहारों में, वानप्रस्थ आरण्यकों में, साधना आश्रमों में भी बड़ी संख्या में ऐसी प्रतिभाएं विनिर्मित होती थी, जो मनुष्य समाज से सम्बन्धित अगणित पक्षों में से किन्हीं थोड़े से को अपनाकर अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व की बढ़ी−चढ़ी महानता का परिचय दे सकें। उस महान परम्परा को फिर से पुनर्जीवित करना कठिन तो अवश्य दीख सकता है; पर निश्चय ही वह असंभव इन परिस्थितियों में भी नहीं है। विश्वास को प्रत्यक्ष में परिणित करने के लिए इन दिनों ऐसे प्रचण्ड प्रयत्न चल पड़े है, जिन के साथ प्राण−पण की बाजी लगी हुई समझी जा सकती है।

जिन्हें परिवार का आर्थिक दबाव नहीं है उन्हें पूरा समय देने के लिए कहा गया है। जो कुछ वर्ष ही पूरा है। जो शिक्षित पति−पत्नी बिना बच्चे पैदा किये सेवा कार्यों में जुट सके, उन्हें गृहस्थ जीवन का शुभारंभ इस प्रकार करने के लिए कहा जा रहा है। जो व्यस्तता और अभावग्रस्तता के घेरे में घिरे हों, उन्हें हर दिन दो घंटे एवं सप्ताह में छुट्टी का एक दिन पूरा लगाने के लिए कहा जाय। समय, श्रम, मनोयोग और संकल्प के समन्वय से ऐसी शक्ति उभरती है जिससे हजारों किसान जैसे साधारण लोग भी निरन्तर कार्यरत रहकर अपने जीवन में हजार आम्र उद्यान लगा सकने में सफल हो सकते है। अपना उदाहरण असंख्यों को प्रेरणा प्रदान कर सकने वाले शक्ति के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।

संसार में कोई भावनाशील ऐसा नहीं, जो अपनी स्वल्प शक्ति के सहारे भी सृजन का मनोरथ होने पर कुछ न कुछ ऐसा महत्वपूर्ण काम न कर सके जिससे आत्म संतोष, लोकसम्मान और दैवी अनुग्रह के त्रिविध लाभ किसी न किसी रूप में प्राप्त न हो सके। इन दिनों प्रवाह अनुकूल है। वसन्त की तरह फलने−फूलते की ऋतु है। अदृश्य शक्ति की बलवती इच्छा शक्ति का प्रवाह इन दिनों इतने प्रचण्ड वेग से अग्रगामी हो रहा है कि उसके साथ चल पड़ने वाले हर दृष्ट से नफे में ही रहेंगे।

मानवी जीवन में सबसे बड़ा लाभ है− प्रतिभा परिष्कार। यह बन पड़े तो समझना चाहिए कि मनुष्य हर क्षेत्र में हर प्रकार की सफलताएं प्रचुर मात्रा में सरलतापूर्वक अर्जित कर सकता है। इस व्यक्तिगत लाभ में नवसृजन का परमार्थ जुड़ा होने से उसकी उपयोगिता अनेक गुनी अधिक बढ़ जाती है।

कहना न होगा कि प्रचण्ड आन्दोलन वरिष्ठ प्रतिभाओं द्वारा आरंभ किये जाने पर सामान्य मानस वाले लोग भी उसका अनुसरण करते है। विचारशीलों द्वारा सामयिक एवं सही होने पर नये प्रतिपादन भी उत्साहपूर्वक अपनाये जाते है। पिछले दिनों साम्यवाद, प्रजातन्त्र की मान्यताएँ नवीन होने पर भी असंख्य जनों द्वारा उत्साह पूर्वक अपनाई गई। कभी साधु−ब्राह्मण परम्परा अपनाकर धर्म प्रचारक, परिव्राजक बड़ी संख्या में उभरते थे और भरपूर जन सहयोग तथा सम्मान पाते थे। उन की उपयोगिता सर्वत्र सराही जाती थी। अगले दिनों शान्तिकुँज की प्रशिक्षण प्रक्रिया एक लाख तक ही सीमाबद्ध होकर न रहेगी। उसे विभिन्न भाषाओं और देशों में अपने−अपने ढंग से विकसित होते और प्रगतिशील वातावरण बनाने में बढ़−चढ़कर योगदान देते देखा जा सकेगा। एक से पाँच, पाँच से पच्चीस बनाने वाली प्रक्रिया यदि एक लाख को एक करोड़ तक पहुँचा दे और नवसृजन की, युग परिवर्तन की प्रक्रिया में संलग्न दिखाई पड़े, तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं माना जायेगा


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