हरिबाबा समाज सेवी साधु थे। वे गंगा तट के एक छोटे से गाँव “गँवा “ में रहते थे। उस गाँव में हर साल गंगा की बाढ़ आती थी और किसानों के खेत तथा झोंपड़े बहा ले जाती थी। हानि उठाने वाले रोते, कलपते रह जाते।
हरिबाबा ने एक दिन स्वयं ही फावड़ा-टोकरा लेकर बाँध बनाने के लिए मिट्टी डालना आरंभ कर दिया। प्रयोजन सुनकर उस गाँव के नर-नारी भी उस प्रयास में साथ देने लगे। दूसरे गाँवों में समाचार पहुँचा तो सभी वयस्कों ने सप्ताह में एक दिन का श्रम देना आरंभ कर दिया। यह क्रम अनवरत रूप से चला। स्वामी जी का उत्साह देख कर सभी को पीछे रहने में संकोच करते न बन पड़ा।
बाँध प्रायः एक वर्ष में बनकर तैयार हुआ। उस श्रमदान की कीमत लाखों रुपये कूती गई। इसके बाद उस गाँव को फिर कभी बाढ़ का त्रास नहीं सहना पड़ा।