श्रम निरर्थक (kahani)

March 1993

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चार साधकों ने एक सप्ताह तक मौनव्रत पालन की प्रतिज्ञा ली और किसी एकान्त आश्रम में साथ-साथ रहने लगे।

दूसरे दिन दीपक का तेल चेकने लगा तो एक ने नौकर से कहा-”तेल डाल दे।’ दूसरे ने देखा तो व्रत तोड़ने का उलाहना देते हुए बोला-”प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हें बोलना नहीं चाहिए था।” तीसरे ने दोनों को डाँटा और कहा-”व्रत निभाते हो या चें-चें करते हो।”

यहीं है आज की स्थिति। लोग दूसरों के दोष बताते तो है, पर यह भूल जाते हैं कि स्वयं भी तो वहीं गलती कर रहे हैं।

एक व्यक्ति को कुआं खोदना था। उस भूमि में पानी 30 फुट गहरा था। उतनी ही खोज-बीन आवश्यक थी।

खोदने वाला उतावला था। उसने सोचा दस-दस फुट के तीन गड्ढे करके तीस फुट का गणित तीन आदमी लगाकर क्यों न पूरा कर लिया जाय। उसने तीन व्यक्ति एक-एक गड्ढे खोदने के लिए लगाये। तीनों दस-दस फुट खोद गये, पर पानी एक में भी लेशमात्र न था।

किसी जानकर से उसने इस असफलता का कारण पूछा तो उसने कहा-’एक व्यक्ति के एक कार्य को एक ही दिशा में करते रहने से सफलता मिलती है। यदि तुमने गड्ढे न खोदकर एक ही जगह एक ही दिशा में खुदाई की होती तो आसानी से कुआँ बन जाता।”

उतावली में काम को खण्ड-खण्ड कर देने से श्रम निरर्थक जाता है।


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