असंतोष को जन्म देती है, अनगढ़ महत्त्वाकाँक्षाएँ

March 1993

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शरीर के कोमलतम अवयवों में ‘मस्तिष्क ‘ है। प्रकृति ने उसकी सुरक्षा के लिए मजबूत हड्डी की ऐसी खोपड़ी का आवरण चढ़ाया है कि उसमें किसी बाहरी वस्तु का प्रवेश तो दूर ऋतु प्रभाव तक कठिनाई से प्रवेश कर सके। ऐसे आच्छादन से सृजेता का उद्देश्य यह है कि उसे अधिक से अधिक सुरक्षित और सन्तुलित रखा जा सके।

मस्तिष्क पर ऊपरी चोट तो कभी कदाचित ही बाहर से लगती है तो उसकी गहराई हड्डी वाले आवरण को ही यत्¨चित आहत कर पाती है। मानसिक विवादों का सिलसिला आन्तरिक दबावों तनावों और अस्त–व्यस्तताओं के कारण ही होता है। वे ही उसे असाधारण रूप से प्रभावित करते है। उन्हीं का असन्तुलन चिन्तन को गड़बड़ाता है। फलतः मानसिक रोगों के चित्र-विचित्र रूप सामने आते और उभरते हैं।

इन दिनों छोटे-बड़े प्रकट और अप्रकट मानसिक रोगों की भरमार है और वह महामारी या दूत की तरह निरन्तर बढ़ती जाती है। स्वस्थ मस्तिष्क वाले ढूंढ़े नहीं मिलते। हर पाँच के पीछे एक आदमी या तो सनकता रहता है या पागलाने की मनःस्थिति में रहकर जीवन की गाड़ी को किसी प्रकार धकेलता है। नित्यकर्म के दैनिक क्रिया-कलाप सामान्य रीति से चलते रहते हैं। शकल सूरत भी वही रहती है और अजनबी के लिए सामान्य व्यवहार, शिष्टाचार भी पूर्ववत्। इसलिए वस्तुस्थिति ठीक तरह समझी नहीं जाती पर यदि गंभीरता-पूर्वक उसके चिन्तन और चरित्र का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि अन्तराल में कोई प्रकार की सनकें तथा विक्षिप्ततायें अपना-अपना काम करती रहती है। बाहर से साधारण प्रतीत होने वाला मनुष्य प्रायः असाधारण होता है। उसे कितनी प्रकार की कुत्सायें, कुण्ठायें घेरे रहती है। आवेश अवसाद छाये रहते हैं जिस प्रकार समुद्र में ज्वार-भाटे आते रहते हैं उसी प्रकार कभी मनुष्य उत्तेजित, आवेशग्रस्त होता है और कभी अपने को असहाय, दीन−दुर्बल अनुभव करने लगता है।

चिंतन का असन्तुलन एक तो शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव छोड़ता है। दूसरे उसकी योजनाओं, गतिविधियों में ऐसे तत्त्व भर देता है जो उसकी क्षमता, आवश्यकता एवं परिस्थिति को देखते हुए अटपटे और बेतुके लगते है। इससे संपर्क में आने वाले को उसका व्यक्तित्व ऐसा लगता है मानो वह विक्षिप्तता की दिशाधारा अपना रहा है और अस्वाभाविक कृत्रिम, अनगढ़ बनता जाता है। इस प्रकार की विसंगतियाँ निकटवर्ती लोगों की पकड़ में आसानी से आती है और उन्हीं को उस कारण हैरानी, परेशानी भी अधिक होती है।

मनुष्य स्वाभाविक शान्तिमय प्राणी है, उनकी आवश्यकताएँ सीमित है। उपार्जन के निमित्त सुविधा संपन्न शरीर और पैनी सूझबूझ वाला शरीर मिला हुआ है। ऐसी दशा में उसे न तो आवश्यकताओं की पूर्ति में में कोई कठिनाई पड़नी चाहिए और न अभाव असंतोष से ग्रसित होना चाहिए। सीधी-सादी जिन्दगी अतीव सरल होती है। उसे सामान्य निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। यदि कोई कमी रहती भी हो तो उसका परिवार, परिकर समुदाय थोड़ी सहानुभूति दिखाकर, नगण्य-सी सहायता देकर उसे आसानी से सरल बना सकता है। परन्तु यदि इच्छाएँ असंगत है और ऐसी है जिसका सामान्य परिस्थितियों के रहते पूरा होना संभव नहीं तभी व्यक्ति विसंगतियाँ अपनाता है। चिन्तन और प्रयास जब भिन्न-भिन्न दिशाओं में चलते हैं तो भीतरी खींचतान शुरू होती है और ऐसी स्थिति बनती है जिसकी हैरानियों सवार रहने लगें। यह बाहर से तो कठिनाई से ही पहचानी, पकड़ी जाती है पर आन्तरिक स्थिति ऐसी है जिसे आवेशग्रस्त कहने में अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिए।

असंतुष्ट व्यक्ति एक प्रकार से ज्वर पीड़ित समझा जा सकता है। उसकी कामनाएं तो अनियन्त्रित होती हैं। कल्पनाओं पर कोई रोक प्रतिबंध नहीं है। उस उड़ान को बिना पंखों के भी सुविस्तृत अन्तरिक्ष में उड़ा जा सकता है, फिर उपयुक्त साधना के अभाव में वह उड़ान थकान और निराशा देने के अतिरिक्त और कुछ भी उपलब्ध नहीं करा पाती।

संसार में अनेकों समुन्नत स्थिति वाले संपन्न, सम्मानित और वर्चस्वयुक्त भरे पड़े हैं। उन्हें देखकर यह सोचने लगना कि हम भी तुर्त−फुर्त इसी स्थिति को प्राप्त कर लें, यह भूल है। हर व्यक्ति की प्रतिभा और परिस्थिति भिन्न-भिन्न होती होती है। उसको साधन और अवसर भी भिन्न प्रकार के मिले होते हैं। ऐसी दशा में यह सोचना कि उस प्रकार के प्रावधान जुटाये बिना इतनी दक्षता और क्षमता न जुट पाने पर भी हम असाधारण उन्नति प्राप्त कर सकेंगे यह एक भ्राँति है। इस भ्राँति के मन में रहते अभीष्ट मनोरथ तो पूरा हो नहीं पाता, असफलता जन्य खीज और मन में उठती है। उसके प्रकट होने के दूसरे रास्ते निकलते हैं और मनुष्य खीजने, झुंझलाने लगता है। इस मानसिकता में मस्तिष्क के कोमल तन्तु चलते हैं जो सूझबूझ अपनाकर किसी उपयुक्त मार्ग पर चलते हुए अच्छी खासी सफलता अर्जित कर सकते थे।

महत्वाकाँक्षा देखना उचित है पर उसका सीमा-बन्धन होना चाहिए। अपनी आवश्यकता, दक्षता एवं परिस्थिति को देखते हुए यह अनुमान लगाया जाना चाहिए कि उसकी चाहनाएं किस सीमा तक संगत और किस सीमा तक विसंगति है। विसंगतियों को हटा देने में ही कल्याण है। भौतिक जीवन की समग्रता से इतना ही काम लिया जाना चाहिए कि सामान्य साधनों के सहारे औसत भारतीय स्तर का जीवनक्रम अपनाया और उसे प्रसन्नता कायम रखते हुए शान्तिपूर्वक चलाया जाय। यह नीति अपना लेने पर सीमित समय और शक्ति से अपना क्रम चलता रह सकता है। साथ ही इतना समय भी बच सकता है जिसमें समुन्नत स्थिति प्राप्त करा देने वाली योग्यता हस्तगत हो सकें और क्रमशः आगे बढ़ने का अवसर मिलता रह सके।

असाधारण महत्वाकांक्षाएं सँजोने वालों में से उन्हें पूरा कर सकने वाले तो कोई विरले ही होते हैं पर असफलता-जन्य असंतोष अनेकों को रहता है और फिर जिस प्रकार भरे हुए खेत का पानी मेड़ के जिस-तिस भाग को तोड़कर इधर-उधर बहता रहता है, उसी प्रकार इस स्थिति में फँसा हुआ व्यक्ति कभी अपने को दोष देता है, कभी दूसरों को। कभी अपने भाग्य को कोसता है, कभी भगवान के विधान को। समाज की संरचना भी दोषारोपण के बिना छूटती नहीं। किन्तु महत्वाकांक्षाएं ओढ़कर असंतुष्ट बनना एक ऐसी भूल है जिसके कारण अनेकों को अपना मानसिक संतुलन गँवाकर मूर्खता की स्थिति तक जा पहुँचना पड़ता है।


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