युग पुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्री राम शर्मा आचार्य - साधना जिनकी हर श्वास में संव्याप्त थी

March 1993

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गीताकार ने योगीराज श्री.कृष्ण के हवाले से अध्याय दो में कहा है-”

“तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत् मुत्परः। बशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता”॥

अर्थात्-”साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण इन्द्रियों को वश करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।” यहाँ श्रीकृष्ण शिष्य अर्जुन को स्थितप्रज्ञ योगी के लक्षण बताते हुए आदर्श साधक के रूप में परमपूज्य गुरुदेव के जीवन का व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में अनुशीलन करते है तो पाते है कि ब्राह्मीस्थिति में स्थिति ब्रह्मानंद को प्राप्त उस महायोगी का जीवन गीता के स्थितप्रज्ञ का साकार रूप है। जिसे हम जिस पहलू से देखने का प्रयास करते है, पाते हैं कि बहिरंग की हलचलों से तनिक भी प्रभावित न हो वे सतत् साधना में ही निमग्न रहते थे।

यह कार्य विशुद्धतः ताँत्रिक स्तर पर किये गये प्रयोगों के समकक्ष था व अभी भी उनकी कारण सत्ता के माध्यम से प्रबलतम वेग से संपन्न हो रहा है।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि “हर उस व्यक्ति का लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश का इच्छुक है साधक पहले बनना चाहिए। साधना के बिना उसका व्यक्तित्व उस स्तर का बन ही नहीं सकता जो सेवा कार्य के मानव-जीवन प्राप्त हर जीव के लिए अनिवार्य है क्योंकि “परमसत्ता यह चाहती है कि भगवत् चेतना उसके माध्यम से इसी साधना पुरुषार्थ द्वारा झरे, परमात्मा मानवी व्यक्तित्व के माध्यम से पूरे ऐश्वर्य के साथ प्रकट हो सके।” वे अध्यात्म को जिन्दगी का शीर्षासन बताते हुए समय-समय पर कहते रहते थे कि “साधना पुरुषार्थ व्यक्तित्व की सबसे बड़ी क्राँति है। जैसे समाज परिकर में संव्याप्त सारी गड़बड़ियाँ एक व्यापक स्तर पर हुई क्राँति से ठीक हो जाती है, वैसे ही व्यक्तित्व की अनगढ़ता- आत्मक्षेत्र की गड़बड़ियाँ साधना द्वारा ठीक हो जाती हैं।

साधना कैसे की जाय। उसका स्वरूप क्या हो? इसका स्पष्टीकरण वे समय-समय पर करते रहते थे। गुरु को समर्पित एक शिष्य उनके बताए निर्देशों पर चलता रहे तो उसके व्यक्तित्व गठन की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है तथा यह प्रक्रिया उसके आध्यात्मिक विकास हेतु एक प्लेटफार्म तैयार करती है। कभी-कभी शिष्य अतिवादिता के व्यूह जाल में फँसकर अनेक प्रकार के उपक्रम करने का प्रयास करता है किन्तु उससे हाथ कुछ लगता नहीं, उलटे जो एक विशिष्ट अवसर सामीप्य के नाते मिला था, हाथ से चला जाता है। एक घटना से इसे समझाने का प्रयास करेंगे कि गुरुकृपा अभीष्ट हो तो अपनी मन की न करके वही करना चाहिए जो कहा जा रहा है या निर्दिष्ट है।

चाँद्रायण साधना सत्र शाँतिकुँज में चल रहे थे। बड़ी जिद थी कि बाहर से तो लोग आकर साधना कर रहे हैं, हम यहाँ रहकर भी नहीं कर पा रहे। पूज्यवर से पूछा कि यदि वे आज्ञा दें तो एक सत्र कर लें। प्रत्यक्ष मना तो नहीं किया, हाँ भी नहीं की। बोले “यहाँ रहकर तुम जो भी कुछ कार्य हमारा मिशन के हित में कर रहे हो, वही तुम्हारी साधना है। हाँ साधना की दृष्टि से -न्यूनतम तीन व अधिकतम ग्यारह माला के लिए एक घण्टे का समय तुम चौबीस घंटे में तय कर लो तथा एक या दो खण्डों में इसे पूरा कर लो। बस इतना भर तुम्हारा करना पर्याप्त है, शेष हम सँभाल लेंगे।” होना तो यही चाहिए था कि जो भी कुछ उनने कहा उस पर विश्वास करते हुए अपनी कर्मठता का स्तर और बढ़ा देना चाहिए था। किन्तु कहा गया कि “आपकी आज्ञा हो तो सवा-सवालक्ष के पाँच अनुष्ठान पाँच चान्द्रायण के साथ करने की बड़ी तीव्र इच्छा है। यदि आज्ञा मिल जाय तो कृपा होगी।” सबका मन रखने वाली स्नेह से भरी पूरी गुरुसत्ता ने मना नहीं किया, पर हाँ भी नहीं किया। मात्र मुस्कुरा कर रह गए।

उचित तिथि देखकर साधना आरंभ कर दी गयी, साथ में अनुष्ठान भी। निश्चित ही प्रातःकाल जल्दी उठकर साधना पहले करनी पड़ती थी, फिर अध्ययन-लेखन व अन्य क्रम आते थे, जिनका मिशन से प्रत्यक्ष संबंध था। चार-पाँच दिन यह क्रम ठीक से चलता हरा। छठे दिन पुनः गुरुसत्ता ने प्रातःकाल निर्देश नोट करने को बुलाया। बैठ तो गए उनके समक्ष पर ध्यान इसी में लगा था कि इतनी माला हो गयी, इतनी बची है। बात-बात में गुरुदेव ने उपस्थित सभी कार्यकर्ता बनना चाहिए। जप की गिनती करके माला यदि तुम सभी करने लगे तो यहाँ भजनानन्दी बाबाओं का अखाड़ा बन जायेगा, जहाँ समाज के नव-निर्माण की योजनाएँ तो या बनेगी, भगोड़ों का जमघट इकट्ठा हो जाएगा।” तुरंत मन की दौड़ पर रोकथाम लगायी कि मन इस समय माला की गिनती में नहीं, जो कुछ भी पूज्यवर कह रहे हैं, उसमें लगना चाहिए। थोड़ी देर चर्चा चली-समापन के बाद सब उतरे। पीछे से आवाज देकर रोका व बोले-”तुम ऐसा करो। आज ही लेबोरेट्री के लिए नये उपकरण लेने चण्डीगढ़ अम्बाला चले जाओ। साथ में वीरेश्वर को भी ले जाओ।” अनुष्ठान से सिद्धि के रँगीले स्वप्नों में मग्न क्या यह कार्य एक माह बाद नहीं किया जा सकता। तब तक तो अनुष्ठान समाप्त हो जाएगा। आदेश मिला कि “नहीं तुरंत जाना होगा। यह निर्णय हो चुका है, वे अभी ही लाने है।” सिर झुकाकर “करिष्ये वचनं तब” कहते हुए नीचे आ गए। फिर भी आशा की एक किरण थी कि शायद वंदनीय माताजी गुरुदेव को मना लें। उनने रात्रि में चर्चा करने को कहा व बताया कि कल सबेरे बतायेंगे। रात्रि बीत गयी। नियमित जप आदि क्रम चला। ऊपर प्रणाम करने पहुँचे तो पूज्यवर बोले-”क्यों भई। तैयार नहीं हुए? जल्दी निकलना होगा, तभी तो काम करके दो दिन में आ पाओगे और देखो! जप की चिन्ता मत करना। तुम्हारा शेष जप हम कर लेंगे। आहार का क्रम जैसा पहले लेते थे, वही वहाँ रखना, नाटक मत करना।” अब तो निर्णय हो चुका था, जाना ही पड़ा।

बस में अम्बाला जाते हुए सोचा कि ऐसे विघ्न आते ही रहते है। सामान लाकर व्यवस्था बनाकर पुनः अगली पूर्णिमा से यह क्रम आरंभ कर देते है। अम्बाला-चण्डीगढ़ का पूरा कार्य 5 दिन में पूरा हो पाया। लौटकर पूज्यवर को चरण वंदन किया व आज्ञा माँगी। उनने कहा पूर्णिमा आने दो, देखेंगे। पूर्णिमा के पूर्व ही बनारस जाकर पुस्तकें ब्रह्मवर्चस् की लाइब्रेरी हेतु लाने की योजना मीटिंग में पूज्यवर बनाने लगे थे। आशंकित से हो जाते थे कि यह योजना एक माह बाद बने तो अच्छा है व यदि बने भी तो अपना नाम न आए। कोई और चला जाय। बात आई गई हो गयी। पूर्णिमा पर वंदनीय माताजी से कलावा बँधवाया व पूज्यवर को जाकर नमन किया तो तिलक देखकर पूछ बैठे कि “क्या जन्मदिन है आज तो तिलक लगवाया है?” हमने तुरंत कहा-”नहीं गुरुदेव आज पूर्णिमा है व हम आज से पुनः वह अनुष्ठान आरंभ रहे है, जो पिछली बार अधूरा छूट गया था।” स्थित के साथ बोले”अच्छा-अच्छा! ठीक है करो।” सोचा-आशीर्वाद मिल गया, जब कोई दिक्कत चला नहीं है। अनुष्ठान आरंभ होने के बारह दिन बाद पता चला कि आज या कल में ही बनारस जाना होगा। ऊपर की कोर्ट में पुनः अपील की कि हो सके तो बीस दिन बाद यह निर्णय लागू हो। किन्तु उसका कोई असर नहीं हुआ। वे बोले “यह काम जरूरी है, अतः इसे पहले करना होगा। बाकी हम पर छोड़ दो।” बरबस बनारस यात्रा करनी पड़ी दस दिन लगे पर साहित्य की एक बहुमूल्य संग्रह सामग्री एकत्र करली गयी। इस बार भी अनुष्ठान में विघ्न आ गया यह सोचकर पुनः तीसरी बार यह क्रम आरंभ करने को सोचा।

तीसरी बार, चौथी बार भी यही पुनरावृत्ति हुई। लगा कि पूज्यवर चाहते नहीं हमारा आत्मिक उत्कर्ष हम तप साधना करना चाहते हैं, वे जबरदस्ती हमें कर्मयोगी बनाने पर तुले हुए हैं। स्वयं तो उनने चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण संपन्न किए, हमें क्यों टोकते है। ऐसा ही मंथन चल रहा था कि ऊपर से बुलावा आया। बिठाकर बोले “क्यों इतना पीछे पड़े हो जप-तप करने के। जो हमने कहा, उस पर विश्वास नहीं .या? केवल तीन माला कर लिया करो। ज्यादा से ज्यादा ग्यारह। साल में दो नवरात्रियाँ आती हैं, उनमें अनुष्ठान कर लो। वर्ष भर गुरुवार का अस्वाद निभाओ पर खाने पीने में अनावश्यक कटौती न करो। नियमितता-निरन्तरता ही साधना में जरूरी है। अतिवादी तप-तितिक्षा नहीं।” हमने कहा कि “हमें गायत्री महासत्ता के दर्शन करने हैं-माता के रूप में या प्रकाश के रूप में। इसीलिये हम अनुष्ठान श्रृंखला करना चाहते थे, पर आपने पूरे नहीं होने दिए। कोई न कोई प्रारब्ध हमारा रहा होगा।” हँस पड़े व बोले-”अरे अरे! तुम्हें गायत्री महासत्ता के दर्शन करने थे। तो बोले क्यों नहीं? इतना कहकर वे चुप हो गए। देखते-देखते उनका सारा शरीर प्रकाश पुँज में बदल गया-आंखें सहज ही बंद हो गयी। इतना तीव्र प्रकाश कि सहन न हो, फिर साक्षात माँ गायत्री वहाँ विराजमान् दिखी और कुछ ही क्षणों बाद गुरुदेव स्वयं बैठे मुस्कुरा रहे थे। बोले “और कुछ चाहिए? हमने कहा- बस! आपने हमारी सारी इच्छा पूरी कर दी, मन के विभ्रमों-शंकाओं के जाल को दूर कर दिया। अब समर्पण उस सत्ता कभी न कम न होगा, जो साक्षात आद्यशक्ति का ही रूप है। आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करेंगे।

किसी को यह घटना अतिशयोक्ति लग सकती है व किसी को मन का भ्रम भी। परंतु जिनने परम पूज्य गुरुदेव को समीप से देखा व समझा है, उनको किसी भी प्रकार की शंका न होगी। गूँगे के गुड़ की तरह यह जीवन की बहुमूल्य निधि बन गयी। वस्तुतः गुरुसत्ता वही बताना चाहती थी जो गीताकर ने बार-बार अर्जुन को समझाने का प्रयास किया है-

न तु माँ शक्य से दृष्टमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य में योगमैश्वरम्॥ (8/11)

और आगे कहा है-

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय (8/12)

अर्थात् - “तू मेरे में ही मन को लगा व बुद्धि का निवेश भी मेरे प्रति ही कर, इधर उधर नहीं।”तथा

आगे अठारहवें अध्याय में कहा है -

“मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी माँ नमसकुरु।” (65/18)

अर्थात्-”हे अर्जुन! तू मुझ में मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझ को ही प्रणाम कर।

साधना क्षेत्र की परमपूज्य गुरुदेव की समस्त उपलब्धियाँ, जिनने उन्हें साक्षात् सूर्यमय बना दिया, इसी समर्पण की तो देन थी। अपनी सूक्ष्मशरीरधारी गुरुसत्ता को उनने वसंत पंचमी 1926 को स्वयं को सौंपा तो योगक्षेम के वहन की चिंता उन पर छोड़कर स्वयं एक निमित्त मात्र बन कर वे गायत्री जयन्ती 1990 तक उन्हीं का कार्य करते हुए माँ गायत्री की गोद में ही समा गए। समर्पण इस स्तर का हो तो साधना निश्चित ही फल देती है। चाहे वह अत्यल्प ही क्यों न हो, पर वह ईश्वरीय कार्य के निमित्त, उनकी योजना के अंतर्गत तो निश्चित ही सफलता मिलती है। “हमारी वसीयत और विरासत” पुस्तक, जो पूज्यवर की आत्म कथा आधिकारिक जीवनी है, से हम सबसे बड़ा शिक्षण साधना विज्ञान का जो पाते है, वह है सघन श्रद्धा व पूर्ण समर्पण- आराध्य से-इष्ट से। यही यदि भलीभाँति निभ जाय तो जीवन साधना सफल होती चली जाती है। फिर व्यक्ति सिद्धियों की तलाश में नहीं जाता। वे उसके पीछे भागती रहती है व वह उनसे दूर भागता रहता है।

परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर साधनाएँ की व करायी। दुर्गम हिमालय से लेकर उत्तरकाशी एवं ऋषिकेश की छोटी-सी कुटिया से लेकर सप्तऋषि आश्रम परिसर में बनी विश्वामित्र कुटीर तथा अखण्ड-ज्योति संस्थान का साधना कक्ष, उनके कठोर तप−साधना के क्षेत्र रहे हैं। गायत्री चर्चा स्तंभ 40 वे दश्याक में प्रारंभ कराने बाद क्रमशः पंचकोशी साधना, कल्प साधना, प्राण−प्रत्यावर्तन साधना, कुण्डलिनी साधना, जीवन साधना व कुटीप्रवेश आदि सभी के मूल में एक ही बात रही-साधक का समूचा व्यक्तित्व साधनामय बन जाय व इसकी प्रारंभिक शर्त है-”आत्मशोधन” जून 1973 में प्राण प्रत्यावर्तन प्रक्रिया समझाने के लिए लिखे गए अखण्ड-ज्योति के विशेषाँक में वे स्पष्ट लिखते है-”यह मान्यता सर्वथा मिथ्या है कि छुटपुट पूजा पत्री या कर्मकाण्डी टण्ट घण्ट आत्मकल्याण अथवा ईश्वर अनुग्रह का लक्ष्य प्राप्त करा सकते है। उपासनात्मक उपचार तो रेलवे लाइन पर खड़े सिगनल, सड़क पर लगे संकेतपट मात्र है, जो दिशा–निर्देश भर देते है। काम तो सत्प्रवृत्ति भी उसी स्तर का घटनाक्रम-क्रिया−कलाप अपनाने से पूरा हो सकता है। कर्म की काट कर्म से ही हो सकती है। इसलिए प्रायश्चित्त द्वारा आत्मशोधन का आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करना पड़ता है वैसा ही सत्साहस दिखाने की जरूरत पड़ती है, जैसा कि दुष्कर्म करते समय किसी भी न सुनने का दुस्साहस किया गया था।” (पृष्ठ 61−62)

किंतु पवित्रता संवर्धन एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। पूज्यवर ने इसी प्रक्रिया को सरल बना दिया एवं कहा कि आत्मशोधन कर पवित्रता को रोम-रोम में उतार कर हर कोई साधना क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। गीताकार की तरह उनने आश्वासन भी दिया−

अपि चेन्तुदाचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तय्यः सम्यम्य्यवसितो हि सः॥ (33/9)

अर्थात् −”यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।” यहीं संकल्पशीलता व कण-कण में समा जाने वाली पवित्रता हम यदि माँगे तो गुरुदेव की कारण सत्ता निश्चित ही हमें देगी और फिर साधना सार्थक सिद्धिदात्री हो जाएगी।


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