कैसे जाने कि व्यक्तित्व रुग्ण है या स्वस्थ?

March 1993

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शरीर और परिवार के निर्वाह हेतु धन की आये दिन सभी को आवश्यकता पड़ती है। इसे शारीरिक और मानसिक श्रम के आधार पर सहज ही जुटाया जा सकता है;पर इन दिनों आर्थिक तंगी की पुकार सर्वत्र सुनाई पड़ती है, उसके दो प्रमुख कारण हैं-एक आलस्य-प्रमाद से ग्रस्त अनगढ़ता। दूसरा है-विलास संग्रह और बड़प्पन जताने के लिए निमित्त उभरी महत्वाकाँक्षा। यह दोनों ही मानसिक विकार हैं। यदि इन पर नियन्त्रण स्वीकार किया जा सके तो अभावों की जो त्राहि-त्राहि सर्वत्र मची हुई है उसमें से 10 प्रतिशत का सहज समाधान हो जाय। लोगों को अधिकाधिक मात्रा में धन अर्जित करने की ललक है। भले ही वह किसी भी उचित-अनुचित तरीकों से उपलब्ध क्यों न किया गया हो। इस प्रचलित चिन्तन में आमूल चूल परिवर्तन किये बिना अर्थ संकट से छुटकारा पा सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता।

उपार्जन करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह कठोर परिश्रम-पूर्वक, ईमानदारी के सहारे उन माध्यमों से अर्जित किया गया है या नहीं, जो समाज का किसी भी प्रकार अनर्थ नहीं करते। औचित्य ही ग्रह होना चाहिए। न्याय नीति का सर्वदा ध्यान रखा जाना चाहिए। इन उपायों से निर्वाह के योग्य धन सरलतापूर्वक कमाया जा सकता है।

कमाने से भी अधिक बुद्धिमत्ता के उपयोग की आवश्यकता उसके खर्चने में पड़ते है। दुर्बुद्धि के आवेश में यदि धन का दुरुपयोग क्रम चल पड़े तो उसकी हानि दरिद्रता की अपेक्षा कहीं अधिक भारी पड़ेगी। निर्वाह के साथ परिश्रम और कौशल के सहारे कोई भी व्यक्ति कहीं भी जुटा सकता है। कठिनाई तब पड़ती है जब मनुष्य बड़प्पन की लम्बी-चौड़ी महत्वाकाँक्षाएँ बटोर कर सिर पर लाद लेता है। वे सहज रीति से पूरी नहीं हो सकती। उनके लिए ललक के अनुरूप ही लम्बी छलाँग लगानी पड़ती है। कहीं गड़ा धन मिलने लाटरी खुलने के दिवा स्वप्न देखने वाले तो प्रायः रंगीन उड़ाने भरकर ही रह जाते हैं; पर व्यावहारिक तरीका अनाचार पर उतरने का ही सूझ पड़ता है। इसके लिए चोरी ठगी से लेकर अनाचार,अत्याचार के वे उपाय अपनाने पड़ते है जो अपनी योग्यता और परिस्थिति के साथ तालमेल खाते हों। देखा गया है कि जिनके पास अधिक धन संग्रहित है उनमें से कम ही ऐसे मिलेंगे जिन्होंने न्यायोचित नीति से सम्पदा जमा करने में सफलता पाई हो।

परिश्रमपूर्वक, ईमानदारी से किये गये उपार्जन के साथ यह बुद्धि भी उत्पन्न होती है कि इस श्रम साधना को किसी उपयोगी कार्य में ही नियोजित कार्य में ही नियोजित किया जाय। यदि कमाई अत्यधिक मात्रा में संग्रह हो रही है तो उसके सदुपयोग का विवेक फिर रह नहीं जाता। कमाई में प्रयुक्त हुआ अतिवाद व्यय करने की घड़ी में फिजूलखर्ची बनकर उभरता है। बढ़े हुए धन का पिछड़ों को उठाने और उठों को उछालने जैसे महान प्रयोजनों में लगा सकने की उदार दूरदर्शिता आतुर लोगों के पास रह नहीं जाती, वे विलास, संग्रह और प्रदर्शन के अतिरिक्त और कोई राह ऐसी खोज नहीं पाते, जिसमें आवश्यकता से अधिक धन का नियोजन बन पड़े। परमार्थ उनके लिए पर्वत उठाने की तरह भारी पड़ता है। अनीति उपार्जन प्रायः दुर्व्यसनों में ही खर्च होता है। दुर्व्यसन अपने आप में अभिशाप है, जो जिसके भी पीछे लगते है उसे अनेकानेक दुर्गुणों के शिकार बना लेते हैं। उद्धत आचरण करने के लिए उकसाते रहते हैं। इन प्रेरणाओं को चरितार्थ करने वाला अपनी ओर दूसरों की दृष्टि में अप्रमाणिक, तिरस्कृत एवं घृणास्पद ही बनाता चला जाता है। पतन के मार्ग पर चलने वाला पग-पग पर ठोकरें खाता है और आन्तरिक विक्षोभ तथा असहयोग-अपमान के सहते-सहते व्यक्तित्व की दृष्टि से इतना गिर जाता है जिसके कहीं ऊँचे मध्यवर्गी औसत गुजारा करने वाले होते हैं। हराम की कमाई किसी को हजम नहीं होती। न उसके रहते उपार्जनकर्ता चैन से बैठ पाते हैं और न उत्तराधिकार में उसे पाने वाले ही उसका सदुपयोग कर सकते है। हानि इन उपभोक्ताओं को भी कम नहीं होती।

अपनी शारीरिक, मानसिक शक्ति को समग्र तत्परता और तन्मयता के साथ हाथ में लिए हुए कामों में पूरी तरह लगाये रहना चाहिए। उसके किए हुए काम का स्तर ऊँचा रहता है। इसका मूल्य भी अच्छा मिलता है। कर्त्ता की प्रमाणिकता और कुशलता पर विश्वास करते हुए लोग उसे श्रेय देते हैं। ऐसों को सहयोग देने और सहयोग पाने के लिए विचारशील वर्ग सदा तैयार रहता है, फलतः ऊँचे उठने, आगे बढ़ने का पथ सहज ही प्रशस्त होता जाता है। सफलताएँ निकट से निकटतम आती-जाती है। महानता ऐसों के ही पल्ले बँधती है।

अर्थ संतुलन को महत्व देने वाले व्यक्ति को अपने ऊपर असाधारण भार नहीं बढ़ाना चाहिए। सन्तानोत्पादन के संबंध में अत्याधिक संतान की होना सौभाग्य माना जाता रहा होगा; पर आज की स्थिति में वह अत्यधिक बोझिल, खर्चीला और अगणित समस्याओं से भरा-पूरा है। इस दिशा में लापरवाही बरतने पर बच्चे बढ़ जाते है और वे अपनी संख्या के अनुरूप माता-पिता तथा परिवार के हर सदस्य की समस्याओं में कटौती करते जाते हैं। माता का स्वास्थ्य, पिता का अर्थ संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा देते है। अभावग्रस्त परिस्थितियों के बीच पलकर वे समुचित देख-रेख के के अभाव में दुर्गुणी बनते जाते है और अंधकारमय भविष्य के कीचड़ में क्रमशः धँसते ही चले जाते है। व्यापक परिस्थितियों को देखते हुए तो यह उचित प्रतीत होता है कि पचास-चालीस वर्ष तक तो कोई इन परिस्थितियों में बच्चे उत्पन्न करने की बात ही न सोचे। सोचे भी तो एक पर्याप्त माना जाता चाहिए। बहुत कुछ तो दो। अधिक बच्चों वाला परिवार अब कदाचित ही कोई समुन्नत और सुसंस्कारी रह सके, कदाचित ही सुख-चैन के दिन बिता सके।

कोई समय था जब परिवार का एक सदस्य कमाता था और सारा घर मजे में गुजारा करता था, पर अब इस घोर महँगाई के जमाने में स्थिति सर्वदा बदल गई है। अब घर के हर सदस्य को अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप कुछ न कुछ कमाने की-बचाने की बात सोचनी चाहिए। अच्छा हो हर परिवार में कोई गृहउद्योग चले, जिसमें अर्थ लाभ से ही अपना कौशल बढ़ाते रहना और व्यस्त रहने की सुविधा प्राप्त होती रहे। ठाली बैठे रहने वाले आमतौर से कुसंग में अपने लिए जगह बनाते हैं, आवारागर्दी में घूमते रहते है। बुरी आदतों के शिकार बनते है और अन्ततः अपने को, संपर्क -क्षेत्र को अपार हानि पहुँचाते है। इसलिए आत्म विकास की, परमार्थ की ललक न जगा सके तो भी अधिक उपार्जन को आगे रखकर हर वयस्क सदस्य को कुछ कमाने में, उत्पादन बढ़ाने में संलग्न रहना चाहिए। खाली समय में ही शैतान का आक्रमण होता है इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए सफाई से लेकर आजीविका बढ़ाने तक के किसी न किसी सृजनात्मक कार्य में लगे रहने का अभ्यास डालना चाहिए। जहाँ यह बोध होगा कि पैसा किस प्रकार कितने परिश्रम से कमाया जाता है, उनका फिजूलखर्ची के लिए हाथ बढ़ेगा नहीं, कुमार्ग पर पैर बढ़ेगा नहीं। अर्थ संतुलन की दृष्टि से इस प्रवृत्ति का पनपना हर दृष्टि से श्रेयस्कर है। घर के हर सदस्य को स्वावलंबी और सुसंस्कारी बनाने का समुचित ध्यान रखा जाय, तो बड़ी पूँजी छोड़ मरने की अपेक्षा कहीं अधिक दूरदर्शिता की बात होगी।

उचित तरीकों से अधिक कमाने में हर्ज नहीं। हानि तो अपव्यय में है। अधिक कमाई राशि को

पुण्य-परमार्थ में लगाना चाहिए। इन दिनों सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन व्यक्ति और समाज के हित को देखते हुए नितान्त आवश्यक है। इन प्रयोजनों में जितना अधिक लगाया जा सके उतना ही कम है।

खर्च की सीमा निर्धारण उस अनुपात में होना चाहिए जितनी आमदनी है। खर्चे में यदि आमदनी बढ़ाना संभव न हो, तो खर्चे तो निश्चित रूप से घटाये जा सकते है। भोजन, वस्त्र जैसी भौतिक आवश्यकताएँ यदि औसत नागरिक स्तर पर नियन्त्रित रखी जा सकें तो उतनी राशि से काम सकता है, जिसे समर्थ लोग समग्र लोग समग्र परिश्रम के सहारे आसानी से जुटा सके। कठिनाई तब खड़ी होती है जब संपन्नों की नकल करने का मन चलता है और वैसे ही ठाटबाट खड़े करने के लिए जो मचलता है। खर्चीली रीति-नीति अपना लेना तो अति सरल है; पर उसके लिए आवश्यक साधन जुटाने का मानस भी तो बनना चाहिए। अनीति से कमाने और ठाट-बाट में खर्च करने की अपेक्षा और कहीं अधिक अच्छा है कि सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाई जाय। जितना संभव है उतने उपार्जन को ध्यान में रखते हुए खर्च करने की सीमा मर्यादा निर्धारित की जाय। बुद्धिमानी और दूरदर्शिता इसी में है।

काम की गति धीमी होना, लापरवाही बरतना, समय को ज्यों-त्यों गुजारना, अन्यमनस्क रहना, काम को कम महत्व देना, आलस्य और उपेक्षा अपनाये रहना जैसे दुर्गुणों के रहते कोई सुसंपन्न नहीं बन सकता, उसेस दरिद्रता घेरे रहेगी। साथ ही पिछड़ापन भी सिर पर चढ़ा रहेगा। जिन्हें आर्थिक स्थिति सही रखने का सचमुच ही मन है। उन्हें अपनी अनगढ़ आदतें सुधारनी चाहिए। सही स्तर का व्यक्ति अपनी स्थिति हर क्षेत्र में सही बनाये रहता है। आर्थिक क्षेत्र में तंगी उन्हें उठानी पड़ती है जो उत्पादन में उपेक्षा और फिजूलखर्ची में उत्साह दिखाते रहते है। आदतें सुधर जाने पर हर किसी का आर्थिक स्थिति सही बन सकती है। न उसे किसी के आगे हाथ पसारना पड़ेगा और न चोरी ठगी जैसी अनीतियों पर उतरना पड़ेगा। औसत स्तर का निर्वाह किसी भी परिश्रमी और सुनियोजित जीवन जीने का निश्चय किए हुए व्यक्ति के लिए तनिक भी कठिन नहीं पड़ना चाहिए दरिद्रता मनुष्य पर कोई लादता नहीं है। वह तो दुर्गुणी द्वारा निमन्त्रण देकर बुलाई हुई अतिथि भी होती है। स्मरण रहे दरिद्रता की तरह अमीरी भी इन दिनों अभिशाप मानी जाती है। दोनों की ही गणना असंतुलित परिणतियों में की जाती है। दुर्बलता बुरी है; पर शरीर का असाधारण रूप से फूलकर भारभूत बन जाना भी तो कम बुरा नहीं है। इस संदर्भ में शास्त्रकारों का वह परामर्श पूरी तरह सटीक बैठता है जिसमें कहा गया है कि कमाने की अपेक्षा खर्चने में सौगुनी बुद्धिमत्ता चाहिए। किसी व्यक्ति के खर्च करने का ढंग देखकर चरित्र और स्तर का अनुमान कोई भी सरलतापूर्वक लगा सकता है।

अर्थ को धुरी मानकर जीवन के अनगिनत संदर्भों को भी उसके साथ जोड़ा जा सकता है और सर्वतोमुखी प्रगति का अभ्यास किया जा सकता है। अर्थ संयम सध सके तो इन्द्रिय संयम, समय और विचार संयम भी सध सकता है। इस आधार पर सामान्य जीवन में सरल जीवन सधने का उपक्रम चलाया जा सकता है। समय की बरबादी और दरिद्रता का सीधा सम्बन्ध है। जो नियमित दिनचर्या बनाकर व्यस्तता को अपना प्रिय बनायेगा, उसका उत्पादन समग्र प्रगति को ढाँचा खड़ा करता रहेगा। सुविकसित व्यक्तियोँ ने इसी आधार पर अपनी जीवनचर्या का ढाँचा और अनेकानेक अवाँछनीयताओं से बचते हुए ऐसी प्रगति का सरंजाम जुटाया है जिस पर अपने को गर्व और दूसरों को हर्ष की अभिव्यक्ति का अवसर मिल सके।

पतन और पराभव के अनेकानेक निमित्त कारण उन दुर्गुणों की ही उपज है, जिन्हें अनगढ़ लोग आलस्य और प्रमाद से ग्रस्त रह कर उत्कर्ष के खेल में विषबेल की तरह उगाते है और फिर समयानुसार उनके कारण अनेक अनर्थों का सामना करते है, इस जिए पिछड़ेपन की तरह उद्धत अपव्यय को भी समान रूप से ‘निन्दनीय’ माना गया है। दरिद्री और अर्थ संयमी में अन्तर है। आदर्शवादी लोकसेवी दरिद्री नहीं, संयमी होते है। अर्थ दैनिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है उसके लिए आवश्यक उत्पादन और साथ ही श्रेष्ठतम सदुपयोग का ध्यान रखकर योजनाबद्ध जीवन-चर्चा अपनाने वाले अन्य क्षेत्रों में भी सद्गुणी बनते है। उनकी शालीनता हर दिशा में, हर घड़ी बढ़ती ही जाती है। नाड़ी देखकर रुग्णता और स्वस्थता की जाँच की जाती है। किसी के कमाने और खर्चने का ढंग बारीकी से देखने पर यह जाना जा सकता कि इसका व्यक्तित्व रुग्ण है या स्वस्थ। इस का भविष्य उत्कर्ष की ओर चला रहा है या आये दिन अधःपतन के गर्त में गिर रहा है।


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