निरहंकारिता का पाठ (kahani)

March 1993

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चम्पारन जिले में सत्याग्रह चला रहा था। गाँधीजी उसके संचालक थे। कलक्टर का दफ्तर कुछ दूर था। गाँधी जी को आये दिन कई आवश्यक सूचनाएँ कलक्टर तक पहुंचानी पड़ती थी।

डाक ले जाने वाले चपरासी का काम प्रो. कृपलानी करते थे। उनकी शिक्षा, चतुरता और सूझबूझ की कलक्टर बहुत प्रशंसा सुन चुका था। पर उसे यह पता न था कि डाक लाने वाला व्यक्ति ही कृपलानी है।

संयोगवश एक दिन उसने कृपलानी जी को पहचान जिया। उनसे शिक्षा, विद्वता आदि के बारे में प्रश्न करने लगा।

कृपलानी जी ने सहज नम्रता और मुस्कान के साथ कहा-”मैं तो गान्धीजी का मुस्तैद चपरासी भर हूँ। यही मेरी योग्यता है।”

हातिम को अपने वैभव और दान का बड़ा अहंकार था। एक दिन उनने किसी तत्वज्ञानी सन्त को अपने यहाँ, बुलाया और उनके मुख से अपनी प्रशंसा सुनने की आशा रखी।

सन्त ने महल पर तो एक बार ही उड़ती नजर डाली। पर आकाश को और धरती को बड़ी बारीकी से कई बार देखा।

हातिम ने आश्चर्यपूर्वक इसका कारण पूछा। सन्त ने कहा-”मैं ऊपर इसलिए देख रहा था कि इस विशाल आकाश के नीचे तेरे जैसे कितने मनुष्य हो सकते हैं। तेरा क्षेत्र तो छोटा-सा है।”

“जमीन को इसलिए देख रहा था कि इसमें तेरे जैसे करोड़ों की कब्र बन चुकी है और आगे भी न जाने कितनी बनेंगी।” हातिम का गर्व गल गया, उसने सन्त से निरहंकारिता का पाठ पढ़ा।


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