सार्थक मनोरंजन वह जो चिंतन को ऊँचा उठाए

March 1993

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भोजन की भाँति व्यक्ति में मनोरंजन की भी आवश्यकता पड़ती है। पशु-पक्षी कामना प्रधान होने के कारण अपने दृष्टिकोण को मात्र शरीर तक ही सीमित रखते है, जब कि मनुष्य भावनाशील प्राणी है। उसका समग्र चिन्तन भावनात्मक स्तर के ही कला है जिसमें व्यक्ति के भावनात्मक स्तर का परिष्कार परिमार्जन होता है। इसी के फलस्वरूप समय-समय पर लोगों ने मनोविदों के उपक्रमों को चलाया है।

मनोविद की परम्परा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। भारतीय धर्मग्रन्थों का अवलोकन किया तो स्पष्ट हो जाता है कि संगीत और नृत्य के जन्म-दाता नटराज शिव है, जिनके लयबद्ध एवं तालबद्ध संगीत और नृत्य से ग्रह से ग्रह-उपग्रहों का जन्म हुआ। भगवान कृष्ण को तो नटनागर के नाम से पुकारा जाता है। गणेश के नृत्य की चर्चा पुराणों में विस्तारपूर्वक देखी जा सकती है। सरस्वती को संगीत की देवी के नाम से सभी जानते हैं। संगीत, वाद्य यंत्र तथा और भी विभिन्न प्रकार के उपकरणों का उल्लेख शास्त्रों में खूब देखने को मिलता है। वीणा, वंशी, मंजीरा आदि वाद्य यंत्रों को कौन नहीं जानता?

मनुष्य को आह्लादित अभिप्रेरित करने का एक मात्र साधन मनोविनोद को ही समझा जाय तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब प्रश्न सामने यह आता है कि मनोरंजन किस प्रकार का हो? उसका स्तर कैसा हो? इसके लिए मानव-बुद्धि को ही निर्णय लेना होगा, क्योंकि मनोरंजन जैसी प्रतीत होने वाली हलकी-फुलकी क्रियायें कभी-कभी इतनी खतरनाक बन जाती है कि मनुष्य को पतन-पराभव के गर्त में सीधा जा धकेलती है। मद्यपान, नर्तकियों के अश्लील प्रदर्शन, जुआ, सट्टा शिकार आदि ऐसे घातक व्यसन हैं जो व्यक्ति को सीधे कुमार्गगामिता की ओर ले जाते हैं। मनुष्य को आदर्शवादी एवं उत्कृष्ट चिन्तन एक पहुँचाने की शक्ति तो मनोरंजन में विधेयात्मक दृष्टि रखने से ही प्राप्त हो सकती है।

राजा-महाराजाओं के शासनकाल में मनोरंजन विद्या का ज्ञान तक्षशिला एवं वाराणसी में कराया जाता था। इतिहास के पृष्ठों को उलटने ज्ञात होता है कि प्रत्येक राजा अपने साथ एक विदूषक इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए रखता था। विनोदी स्वभाव वाले विदूषक न केवल राजाओं की ऊब को ही दूर करते थे, वरन् संकट के समय में उचित समाधान भी करते थे, वरन् संकट के समय में उचित समाधान भी ढूंढ़ निकालने में सहयोग देते रहते थे। बौद्ध साहित्य में राजा उद्यन के विदूषक बसन्त ने हँसने-हँसाने में ख्याति अर्जित की थी। तब के विदूषक मात्र हँसने-हँसाने वाले ही नहीं वरन् प्रतिभा एवं चरित्र के भी धनी होते थे।

मनोवैज्ञानिकों को कहना है कि विभिन्न प्रकार के खेलकूदों तथा पुरस्कार वितरण आदि की परम्पराओं का प्रादुर्भाव मनोविनोद की आवश्यकता को पूरा करने की वजह से ही हुआ है। अनेकों प्रकार के खिलौने बनाने बनाने के पीछे भी यही तथ्य सन्निहित है। व्यायाम, कुश्ती, नटकला, जादूगरी, बाजीगरी, नौका विहार, उद्यान विहार, सैर-सपाटे तथा तैराकी जैसी स्वास्थ्य-वर्धक प्रतियोगिताओं का प्रचलन चन्द्रगुप्त के शासनकाल में पनपा। गायन-वादन का दौर भी उन्हीं दिनों विस्तृत हुआ। रणभूमि में थके-माँदे सैनिकों का उत्साह उभारने-बढ़ाने के लिए तरह-तरह की रणभेरियाँ तथा शंखध्वनियाँ बजती थीं। जब कोई सैनिक वीरगति को प्राप्त हो जाता था तो महिलायें एकत्रित होकर उसकी पत्नी के वियोग की पीड़ा को दूर करने के लिए प्रेरक गीत गाती थीं। सम्राट अशोक के छठे शिलालेख में स्पष्ट रूप से अंकित है कि वह नियमित रूप से संगीत सुनता था।संगीत के बिना उसे नींद नहीं आती थी।

जातक-कथाओं में मनोविनोद की अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है जिसमें निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी अपनी प्रसन्नता का अनुभव करता था। लकड़हारों की बालायें जंगलों में लकड़ी एकत्रित करते समय गा उठती हैं। इसी तरह प्रायः देखन को मिलता है कि महिलायें पुष्प चुनती, मालायें गूँथती हुई गा रही हैं। पूजा-पाठ के फूलों को जब नदी में विसर्जन के लिए किशोरियाँ निकलती तो सलिल भाव में आकर खूब गाती बजाती थीं। राजकुमारों के दीक्षा-संस्कार के सुअवसरों पर नृत्य संगीत तथा अभिनय जैसे प्रदर्शन भी किये जाते रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप उनकी विवेक−बुद्धि के विकसित होने का मौका मिलता था। सम्राट चन्द्रगुप्त को तो विश्व का माना हुआ संगीतज्ञ कहा जाता है। वीणावादन में उसकी गहरी अभिरुचि थी। फलतः सिक्कों पर भी उसने वीणा बजाती हुई स्वयं की मूर्त अंकित करायी।

कहीं-कहीं चित्रकला को भी मनोरंजन का दर्जा दिया गया है। कालीदास की प्रख्यात कृति “मेघदूत “ में विरही पक्ष अपनी प्रियतमा का चित्र खींच कर ही आत्मसंतोष पाता देखा जाता है। अजन्ता तथा एलोरा जैसी गुफाओं की दीवारों पर बने चित्रों से प्रतीत होता है कि नारियाँ मनोरंजन में तो पुरुषों का साथ-सहयोग देती ही रहीं, साथ ही साथ अन्यान्य प्रकार के सृजनात्मक कार्यों में भी उनकी अभिरुचियाँ बुनना, सूत कातना, महिलाओं के लिए मनोविनोद ही था फलों को सुरक्षित रखना, वृक्षारोपण, जड़ी-बूटी के बीजों का संग्रह करना तथा उपयुक्त ऋतुओं एवं अनुकूल मौसम में बीज बोने का कार्य भी महिलाओं के सुपुर्द किया जाता था जिसे वे अपनी रुचि का विषय समझकर खेल-खेल में उन कार्यों को प्रसन्नतापूर्वक संपन्न कर लेती थीं।

सुविख्यात चीनी यात्री फाह्यन ने अपने भारत यात्रा के संस्मरण में लिखा है कि तब भारत में अमीर-गरीब सभी वर्ग के लोग अपने जीवन में स्वस्थ मनोरंजन के कुछ न कुछ साधन अवश्य सम्मिलित रखते थे। आज जैसी पुनीत पर्व पूर्णिमा की धक्ल रोशनी में बड़े हर्षोल्लास के साथ धूम-धाम से मनाये जाते थे। आज जैसा विकृत स्वरूप उनका तब नहीं था। अश्लीलता, कुरूपता एवं शराबबाजी जैसा दौर तो बहुत बाद में पराधीनता के समय से चला। पतंग उड़ाने, सैर-सपाटे शतरंज और जुआ खेलने, कबूतर और बटेरबाजी तथा मुर्गा, बकरे एवं साँड़ लड़ाने जैसे प्रचलन भी इन्हीं दिनों बढ़े। स्वास्थ्यवर्धक खेलों का स्थान ताश, गंजीपों, चौसर आदि ने ले लिया। साहित्य, संगीत और कला जैसे गंभीर एवं प्रेरणाप्रद मनोरंजन के पक्ष को स्वार्थी लोग सस्तेपन का स्वरूप प्रदान करके उसे हेय स्तर का बनाते चले गये। मानव समाज पर युवा पीढ़ी पर आज उसके दुष्परिणाम स्पष्ट दिखायी पड़ रहे हैं।

सिनेमा और वीडियो फिल्मों का एक नया दौर और चल पड़ा है। उससे अधिक सस्ता मनोरंजन का साधन लोगों को और कोई नहीं जँचता। पुराने समय में फिल्में लोकप्रिय उपन्यासों, उत्कृष्ट व्यक्तियों के आधार पर ही बनती थीं, लेकिन आज इसके ठीक विपरीत स्थिति को देखा जा सकता है। शास्त्रीय संगीत के स्थान पर पाश्चात्य धुनों पर पॉप–जॉज की उत्तेजक धुनों पर आधारित संगीत की ही सर्वत्र भरमार है। मनोरंजन के इन उथले, गुदगुदाने वाले एवं कुत्सित भावनायें भड़काने वाले जाल-जंजाल में फँसने से सब प्रकार की हानियाँ उठाते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। इसलिए समझदारी इसी में है कि अपने घर-परिवार के सदस्यों को इस कुचक्र में फँसने और दुर्गुणों का पिटारा बनने से रोका जाय। इसके लिए आवश्यक है कि घर के वातावरण में ही इतने आकर्षण बढ़ा दिये जांय जिनमें हर किसी का मनोरंजन होता रहे। हँसते-हँसाने का माहौल बना रहे और प्रत्येक के मन को संतोष मिलता रहे।

घध्र का वातावरण सरस एवं उल्लासमय बना रहें, इसका उपाय एक ही है कि घर में ढूंढ़ खोज करके परोक्ष प्रशिक्षण के, आकर्षक मनोरंजन के कार्यक्रम प्रचलित किये जांय। संगीत, खेल, स्वाध्याय, कथा-कहानी जैसी प्रतिष्ठापनायें अवकाश वाले क्षणों में चलती रहें तो हर किसी का मन उस वातावरण में उल्लास का अनुभव करता है। जहाँ तक महत्वपूर्ण प्रश्न नवीन आकर्षणों के आरंभ करने का है, इसके लिए अधिक आकर्षक विनोद खेल-कूद का है। जहाँ उछल-कूद की गुंजाइश हो, वहाँ कई प्रयोग घर में ही किये जा सकते हैं संगीत, सहगान कीर्तन, कथा चर्चा जैसे प्रयोग भी ऐसे है जो घर में ही मनोरंजन के साथ उपलब्ध कराते हैं। यह सभी साधन ऐसे हैं। मनोविनोद का उद्देश्य व्यक्ति की वासना की पूर्ति करना न रहे, वरन् उसकी भावनाओं को परिष्कृत करने, आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाने का प्रयोजन भी उसके साथ जुड़ा होना चाहिए। मनोरंजन की सार्थकता इसी में है।


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