समर्थ गुरु रामदास उन दिनों किशोर थे। घर वालों ने विवाह की तैयारियाँ पक्की कर लीं। समर्थ असमंजस में थे कि वे किस प्रकार अपना जीवन परमार्थ में लगा सकेंगे। विवाह हो जाने के बाद तो वे फिर नाम मात्र के ही परमार्थ के लिए समय निकाल सकेंगे।
संकोचवश वे अपने मन की बात ,खगोल कर कह भी नहीं पा रहे थे। पर जब देखा कि समय हाथ से निकला जा रहा है और विवाह कृत्य कराने वाला पुरोहित भी ‘सावधान कहकर कड़ी चेतावनी दे रहा है उनने उस संकेत का अभिप्राय मुख्य रूप से अपने लिये समझा और सचमुच ही सावधान हो गये। विवाह होने से पूर्व ही वे भाग खड़े हुए और परमार्थ प्रयोजनों में निश्चयपूर्वक लग गये।