स्पष्ट का अनुदान-प्रखर प्रतिभा

March 1993

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प्रयोजन बड़ा होते हुए भी उसका समाधान सरल है, यदि प्रतिभाओं का परिष्कार क्रम चल पड़े। उनके आविर्भाव का उपचार बन पड़े तो समझना चाहिए कि इन अनुदानों के सहारे एक विश्व-व्यापी महत् कार्य सध सकता है। सामाजिक और क्षेत्रीय समस्याओं को सँभालते रहना और अधिक सरल लग सकता है।

हर महत्वपूर्ण कार्य में तदनुरूप ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। उसके बिना तो छोटे-छोटे कार्य भी पूरे नहीं होते। फिर युग का नवनिर्माण जैसा विश्व-व्यापी और अत्यधिक भारी काम तो वरिष्ठ प्रतिभा संपन्नों के कंधा लगाये बिना पूरा हो सकने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। नवनिर्माण की विश्व-व्यापी संरचना जिसने सोची और खड़ी की है, उसने इस पुण्य प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवान जीवन के धनी व्यक्तियों की अच्छी खासी सेवा खड़ी करने की आवश्यकता अनुभव की है और उसे समय रहते जुटा लेने की तैयारी की है। यह उल्लेख उद्बोधन उसी के लिए है। प्रतिभा परिष्कार का सुयोग उपयुक्त मात्रा में बन पड़ा तो फिर अपनी दुनिया का स्वरूप और परिवेश बदल डालने में नियन्ता को और कोई बड़ी कठिनाई शेष न रहेगी।

भूतकाल में भी मनस्वी लोगों ने एक से एक आश्चर्यजनक कार्य किये है। इनमें अगस्त्य का समुद्र सोखना, हनुमान का पर्वत उठाना, विश्वामित्र के तत्वावधान में राम राज्य की स्थापना होना जैसी घटनाएँ ऐसी है जो बताती है कि करने मरने पर उतारू व्यक्ति के लिए क्या कुछ ऐसा है जिसे संभव करके नहीं दिखाया जा सकता। स्वर्ग से धरती पर गंगा उतारने वाले भागीरथ अपने कार्य में सफल हुए थे तो फिर कोई कारण नहीं कि नवनिर्माण में जुटे भागीदारी की मंडली भ्रमजंजाल से निकल कर सीधे से और सरल काम कर सकने के लिए समर्थ नहीं बन सकती।

प्रतिभाओं का निखार दूसरे क्या किसी की कृपा अनुकंपा के ऊपर निर्भर नहीं है। वह तो पूरी तरह अपने बस की बात है। शरीर से इच्छानुसार काम लिया जा सकता है। उस पर पूरा नियंत्रण अपना रहता है। जो लोग संसार के वर्तमान प्रचलनों की बातों को ही सब कुछ मानते है; उन्हें क्या कहा जाय। अन्यथा अपने मनोबल और प्रयास को यदि दिशाबद्ध किया जा सके तो हर व्यक्ति अंतःप्रेरणा से न जाने क्या-क्या कुछ करके दिखा सकता है। यह नया प्रयोग नहीं। भूतकाल में ऐसे ही परमार्थकारी प्रयोग होते रहे है। युग बदलते रहे और मनुष्य अपनी प्रथा–परम्पराओं में आमूल–चूल परिवर्तन करता रहा है। इस बार की महाकाल द्वारा दी गई चुनौती को अस्वीकार करते न बन पड़ेगा।

गाँधी, बुद्ध, ईसा आदि के धार्मिक आँदोलनों को सफल बनाने के पीछे भगवान की इच्छा कार्य करती रही है। इस बार प्रतिभाओं के पूर्ति का सरंजाम जुटी रहा है। समय रहते वह पूरा भी होगा। यह संभावना अधूरी न रहेगी।

जिसे असंभव कहा जा रहा है वहीं संभव हो सकता है। प्रतिभावानों में हुँकार जब भी उठी है उसने विशिष्ट स्तर की प्रतिभाओं को विकसित किया है। यह प्रतिभाओं की विशेषता रही है। इसके लिए शरीर बल, साधन बल, बुद्धिबल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि गान्धी, बुद्ध, बिनोवा जैसे प्रतिभावानों की। समय स्वल्प हो तो भी अपने संपर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी तो हर किसी को उभार सकते है और गीध, गिलहरी, शबरी भील जैसे चमत्कार प्रस्तुत कर सकते है, जो छोटों के लिए भी संभव हो सकते है।

इक्कीसवीं सदी आन्दोलन की भागीदारी स्वीकार करने के लिए भाव संवेदना के धनी वर्ग का आह्वान किया गया है। आरंभ की दृष्टि से हल्के काम सौंपे गये है। युग सन्धि पुरश्चरण के अंतर्गत जप, साधना, समयदान, अंशदान, साप्ताहिक सत्संग, झोला पुस्तकालय आदि। इन्हें हलके दर्जे के स्काउट व्यायाम स्तर का समझा जाय जिससे अभिरुचि और आस्था की परिस्थिति बढ़ चले।

पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त पदार्थ सम्पदा में से अपने लिए आवश्यक तत्व खींचता रहता है। वही धरती की विविध आवश्यकतायें पूरी करते है। जो निरर्थक अंश बच रहता है वह पदार्थ दक्षिणी ध्रुव मार्ग से कचरे की तरह बाहर फेंक दिया जाता है। यही क्रम मनुष्य शरीर का है। वह अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप चेतन तत्व आकाश में से खींचता और छोड़ता रहता है। उसी पूँजी से अपना काम चलाता है। क्या ग्रहण करना क्या है क्या बहिष्कृत करना, यह मनुष्य के मानसिक चुम्बकत्व पर निर्भर है। यदि अपना मानस उच्चस्तरीय बन चुका है तो उसका आकर्षण विश्व-ब्रह्मांड से अपने स्तर के सहकारी तत्व खींचता और भण्डार करता रहेगा, पर पूँजी अपने मनोबल के अनुरूप ही जमा होती रहती है। वैसे मनुष्य को जन्मजात रूप से विभूतियों का वैभव प्रचुर मात्रा में मिला है, पर वह प्रसुप्ति की तिजोरी में बंद रहता है ताकि आवश्यकता अनुभव होने पर ही उसे प्रयत्नपूर्वक उभारा और काम में लाया जा सके। सभी जानते है कि भूगर्भ में विभिन्न स्तर के रासायनिक द्रव्य से निरन्तर धरती पर प्राणतत्व की वर्ष होती रही है। वनस्पतियों और प्राणियों का गुजारा इन्हीं उभय पक्षीय अनुदानों के सहारे चलता है। मानवी व्यक्तित्व के संबंध में भी यही बात है। वह इच्छित प्रगति के लिए अपने वर्चस्व का कितना ही महत्वपूर्ण अंश उभार सकता है और अपने बलबूते इच्छित प्रगति कर सकता है। उर्वरता भूमि में होती है, पर उसे प्रगट होने के लिए ऊपर से जल बरसना भी आवश्यक है अन्यथा उर्वरता हरीतिमा का रूप धारण न कर सकेगी। मनुष्य को अपने में सन्निहित विशेषताओँ को भी ऊर्ध्वगामी बनाना चाहिए और साथ ही अदृश्य जगत के विपुल वैभव का अंश भी अपनी आकर्षण शक्ति से खींच कर अधिकाधिक सुसंपन्न बनना निजी उर्वरता का अभिवर्धन है और ईश्वर सान्निध्य स्थापित करके व्यापकशक्ति से अपने लिए उपयुक्त से खींच बुलाना। यह दोनों ही क्रियायें अपने ढंग से नियमित रूप से चलती रहे तो समझना चाहिए कि प्रगति का सुव्यवस्थित सरंजाम जुटाने की समुचित व्यवस्था बन गई। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए चिन्तन, चरित्र और स्वभाव को, गुण कर्म और भाव संवेदना को दिनों दिन अधिक उत्कृष्ट बनाते चलने की आवश्यकता को ध्यान में रखने पर जोर दिया गया है। साथ ही आवश्यक यह भी है कि इस विराट विश्व की कामधेनु की अनुकूलता प्राप्त करके अमृत भरे पय पान का लाभ उठाते रहा जाय।

प्राण अपना है, प्रतिभा भी अपनी है, पर वह अनगढ़ स्थिति में झाड़-झंखाड़ों से भरी रहती है। उसे सुरम्य उद्यान में बदलने के लिए कुशल माली जैसे अनुभव और सतर्कता भरा प्रयत्न चाहिए। जो उसे कर पाते है वे ही देखते है कि “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” का प्रतिपादन सोलहों आने सच है। उसमें किसी प्रकार की अत्युक्ति नहीं है। घाटे में वे रहते है जो अपनी उपेक्षा आप करते है। जो अपनी अवमानना, अवहेलना करेगा वह दूसरों से भी तिरस्कृत होगा और स्वयं भी घाटे में रहेगा।

विशेषतया इस शताब्दी में प्रखर में प्रखर प्रतिभाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। पिछली शताब्दियों में प्रदूषण फैल, दुर्भाव बढ़ा और कुप्रचलन का विस्तार हुआ है। उसमें सामान्य जनोँ का कम और प्रतिभाशालियों द्वारा किये गये अनर्थ का दोष अधिक है। अब सुधार की बेला आई है तो कचरा बिखरने वाले वर्ग की ही उसकी सफाई का प्रायश्चित करना चाहिए। नव निर्माण में लगाई जाने वाली प्रतिभाओं की दूरदर्शिता, कुशलता और तत्परता अधिक ऊँचे स्तर की चाहिए। उनका अन्तराल भी समुज्ज्वल होना चाहिए और बाह्य दृष्टि से इतना अवकाश एवं साधन होना चाहिए कि अनावश्यक विलम्ब न हो। नये युग की नई क्षतिपूर्ति का निर्माण विश्वकर्मा जैसी तत्परता के साथ कर सके। जो एकाँगी न सोचे वरन् बहुमुखी आवश्यकताओं के हर पक्ष को सँभालने में अपनी दक्षता का परिचय दे सके। यही निर्माण आज का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। सृजेता की सृजन कार्य सम्पन्न कर दिखते रहते है। मूक दर्शक तो खड़े-खड़े साक्षी की तरह देखते रहते हैं। ऐसी भीड़ में असुविधा ही बढ़ती है। गंदगी और गड़बड़ी फैलाते रहना ही अनगढ़ लोगों का काम होता है।

सृजेता की सृजन प्रेरणा किस गति से चल रही है और उज्ज्वल भविष्य की निकटता में अब कितना विलम्ब है। इसकी जांच पड़ताल एक ही उपाय से हो सकती है कि कितनों के अन्तःकरण में उस परीक्षा की घड़ी में असाधारण कौशल दिखाने की उमंगें उठ रही है। स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ अपनाना कितना अधिक श्रेयस्कर लग रहा है। किन का अन्तःकरण सतयुगी ब्रह्मकर्मियों की तरह आकुल-व्याकुल हो रहा है, और उसका प्रतिफल कितने न्यूनतम निर्वाह में बन पड़ने का निश्चय क्रमशः अधिक सुदृढ़ होता चला जाता है। समय की सबसे बड़ी आवश्यकता नव सृजन के लिए सोच तो कोई कुछ भी सकता है, पर क्रिया रूप में कुछ कर पड़ना उन्हीं के लिए संभव हो सकता है जो निजी महत्वाकाँक्षाओं में कटौती करके उस अधिक से अधिक समय, श्रम, मनोयोग एवं साधनों को नियोजित कर सकें? भवन खड़ा करने के लिए ईंट, चूना, लकड़ी, लोहा आदि अनिवार्य रूप से चाहिए। युग सृजन भी ऐसे ही अनेकों साधनों की अपेक्षा करता है, उन्हें जुटाने के लिए पहला अनुदान अपने से ही प्रस्तुत करने वालों को ही यह आशा करनी चाहिए कि अन्य लोग भी उनका अनुकरण करेंगे। ऐसा समर्थन सहयोग देने में उत्साह का प्रदर्शन करेंगे।

कहा जा चुका है कि युग सृजन जैसा महान उत्तरदायित्व पूरा करने में स्पष्ट की उच्चस्तरीय सृजन शक्तियाँ ही प्रमुख भूमिका संपन्न करेगी। मनुष्य की औसत बिगाड़ता अधिक है। पर जहाँ बनाना ही बनाना एक मात्र लक्ष्य हो वहाँ तो स्रष्टा की सृजन रोना ही अग्रिम मोर्चा सम्हालती दिखाई देगी। हर सैनिक के लिए अपने ढंग का अस्त्र-शस्त्र होता है। युग सृजन में आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा चाहिए और ऐसी लगन जिसे किन्हीं आकर्षणों या अभाव से विचलित न किया जा सके। ऐसे व्यक्तियों को ही देव मानव कहते है और उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य कर गुजरने की आशा की जाती है। जिनका विचार करने तक की तथा कथित के ठज्ञग्रस्त, मायाग्रस्त लोगों को सुनने विचारने तक की फुरसत नहीं होती, उनसे तो कुछ बन पड़ेगा ही कैसे?

ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते है, जो किसी की पात्रता देखे बिना आंखें बन्द करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है, भले ही वे उचित हो या अनुचित। किन्तु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते है कि आत्म परिष्कार और लोक कल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर भक्त कहे जाने योग्य है। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते है। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य प्रयोजन के लिए ऐसी लग उभरती है, जिसे पूरा किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नर रत्न ऐसों को ही कहते है। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे लोग सृजन करते है। उनके चरण-चिह्नों का अनुसरण करते हुए ही सामान्य सामर्थ्य वाले लोग तक परम लक्ष्य तक पहुँच कर रहते है। यही उत्पादन यदि छोटे-बड़े रूप से उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिए कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें, निकलीं तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देन न लगेगी, जिसमें वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते है।

आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है। बड़े वहाँ किसी देवमानव के आविर्भाव हो रहा है। बड़े वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है। बड़े काम बड़े लोग ही कर पाते है। हाथी का वजन हाथी ही उठाता है। गधे की पीठ पर यदि उसे लाद किया जाय तो बेचारे की कमर टूट जाय। क्षुद्र कृमि, कीटक मात्र अपना अस्तित्व बनाये रहने की परिधि में क्षमताओं को खपा देते है। उनसे यह बन नहीं पड़ता कि आदर्शोँ की बात सोचे, उत्कृष्टता अपनायें और विश्व कल्याण के क्रिया-कलापों में रुचि लेकर कुछ ऐसा करें जिसकी युगधर्म में पुकार लगाई और गुहार मचाई है।

अगले दिनों योजना, प्रेरणा, दक्षता, व्यवस्था और समर्थता भगवान की काम करेगी। श्रेय वे लोग प्राप्त करेंगे जिनकी अन्तरात्मा में युग के अनुरूप श्रद्धा और लगन जग गई है। मुर्गा जग कर अपने जागने की सूचना देता है, पर उस बाँग को सुनकर असंख्यों को ब्रह्म -मुहूर्त की सूचना मिलती है और वे भी अरुणोदय बेला का लाभ लेने के लिए कार्यक्षेत्र में कदम उठाते हुए दृष्टिगोचर होंगे।


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