यान्त्रिकी और मान्त्रिकी का सुव्यवस्थित सुनियोजन

March 1993

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जनमानस को श्रेष्ठता दिशा−धारा अपनाने के लिए अतीत के स्वर्णिम युग में ऋषि−मनीषियों ने आत्मिकी की समर्थता एवं प्रक्रिया के सहारे लोक मान्यताओं में शालीनता के तत्त्वों भर देने में सफलता पायी थी और मनुष्यों में देवत्व का उदय तथा धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव करके दिखाया था। तब आत्मिकी सर्व समर्थ थी। पर आज भौतिक का ही बोलबाला है। उसकी सामर्थ्य प्रत्यक्ष है। वर्तमान में भौतिक विज्ञान की सैकड़ों धाराओं का प्रशिक्षण होता है और उसके सहारे यह बताया जाता है कि प्रकृति क्या करती है और क्या चाहती है? मनुष्य उससे क्या लाभ उठा सकता है? इस संदर्भ में अब तक जो निष्कर्ष निकाले गये है वे उच्छृंखलता अपनाने की आस्थाओं का ही समर्थन नहीं करते, वरन् उच्छृंखलता अपनाने की प्रेरणा देते है। इस आधार पर कुबेर जितनी सम्पदा और इन्द्र जितनी सुविधा बटोर लेने पर भी आंतरिक निकृष्टता मनुष्य को दुख−दारिद्रय की नारकीय आग में जलाती रहती है। इन प्रेरणाओं को उलट सकना तनिक भी कठिन नहीं है। यदि आत्मिकी और भौतिक के सही स्वरूप को समझा और दोनों महाशक्तियों में सुनियोजित बिठाया जा सके तो सुखद परिस्थितियाँ सहज ही विनिर्मित हो सकती है।

ऋषियों का समस्त चिन्तन, प्रतिपादन और समर्थन इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए हुआ, इसलिए इस समस्त विचार परिकर को ऋचा या मंत्र कहा गया और आत्मिकी को माँत्रिकी के नाम से जाना गया। उनका लक्ष्य सदा अध्यात्म और विज्ञान−आत्मिकी और भौतिकी के समन्वय का एवं उस समुद्र मंथन से प्राप्त नवनीत से जन मानस को लाभान्वित कराने का रहा है। यांत्रिकी और माँत्रिकी−दोनों ही विषयों में मनीषियों ने गंभीरता−पूर्वक अनुसंधान किया था। एक का क्षेत्र स्वयं का काय कलेवर तथा दूसरे का पदार्थ जगत था। उन्होंने यह जान लिया था कि यान्त्रिकी की तरह ही मान्त्रिकी भी समर्थ है।

याँत्रिकी एवं मान्त्रिकी के कार्यक्षेत्र अलग−अलग होते हुए भी दोनों के उद्देश्य एक है। प्रकृति के अन्तराल में छिपी हुई भौतिक शक्तियोँ को प्रत्यक्ष करने तथा प्रयोग में लाने के लिए विभिन्न उपाय−उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें ‘यंत्र’ कहते है और प्रयुक्त करने की विद्या यांत्रिकी कहलाती है। चेतना के अन्तराल में छिपी हुई दिव्य शक्तियों के प्रकटीकरण एवं प्रयोगों के लिए जिन माध्यमों को अपनाया जाता है उसे ‘मंत्र कहते है। यन्त्र हर प्रयोजन के लिए अलग−अलग प्रकार के बनाने पड़ते है, पर मंत्र में अपना शरीर और मन ही पर्याप्त माना जाता है। इन दोनों की संरचना बड़ी रहस्यमय है। साधारणतया शरीर अपने जीवन धारण और निर्वाह साधन का परिश्रम करने में लगा रहता है, पर यदि उसकी सूक्ष्म संरचना पर ध्यान दिया जाय तो एक नये विलक्षण प्रकार का ढाँचा उसके भीतर फिट किया हुआ परिलक्षित होता है। षट्चक्र, ग्रंथि संस्थान, उपत्यिकायें, प्राण प्रवाहिनी दिव्य नाड़ियों जैसी अगणित विलक्षणतायें एवं विशेषतायें उपलब्ध करते है जिन्हें अध्यात्म की भाषा में सिद्धियाँ कहा जाता है।

शरीर की संरचना पंचतत्त्वों एवं विभिन्न रसायनों के सम्मिश्रण से हुई है। इसलिए इसमें पदार्थ जगत में पायी जाने वाली शक्यों का समस्त तारतम्य बीजरूप में विद्यमान रहता है। चिनगारी को प्रयत्नपूर्वक प्रचण्ड ज्वाला में प्रकट किया जा सकता है। इसी प्रकार काया में समाहित प्रकृति−शक्तियों के प्रकटीकरण में शरीर साधना के रूप में बने हुए अनेक उपचार काम दे सकते है। आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा, नेति, धौती, वस्ति, उपवास, तप−तितिक्षा आदि साधनों का उपयोग इसी क्षेत्र को निरोग, समर्थ एवं विशिष्ट बनाने के लिए किया जाता है। माँत्रिकी का यह एक पक्ष है।

आध्यात्म में माँत्रिकी का दूसरा क्षेत्र है मन। यों मस्तिष्क को भी शरीर के अंतर्गत ग्यारहवीं इंद्रिय माना गया है, फिर भी इसकी स्थिति ऊँची है। चेतना का घोंसला इसी में है। वह उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाले पक्षी की तरह समस्त काया में और उसके बाहर भी अपने प्रभाव पुरुषार्थ का परिचय देती है। इसलिए घोंसले की रचना और क्षमता अन्य अवयवों से भिन्न एवं विशिष्ट मानी गयी है। मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकों एवं मस्तिष्कीय विद्या में निष्णात वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान निष्कर्षों में बताया है कि मस्तिष्कीय क्षमता की अभी मात्र तेरह प्रतिशत ही जानकारी मिल सकी है और सामान्य मनुष्य उस क्षमता का 6 प्रतिशत ही उपयोग करता है। शेष सब कुछ प्रसुप्त एवं अविज्ञात स्थिति में पड़ा है। यदि उसे जाना, जगाया और सक्रिय किया जा सके तो आज की तुलना में मानवी सामर्थ्यों में अनेक गुनी अभिवृद्धि हो सकती है।

अतींद्रिय क्षमताओं की आश्चर्य भरी चर्चा आये दिन होती रहती है। परामनोविज्ञानवेत्ता भी अब इन विलक्षणताओं को परीक्षण की कसौटी पर कस कर वास्तविकता स्वीकारते और उनके आधार पर तथा कारण प्रस्तुत करते हुए कहते है कि मनःक्षेत्र की समग्र क्षमता एवं विलक्षणता उससे कहीं अधिक है जितनी कि जानी जा सकी है। ऋषि युग के तत्त्वदर्शी और प्रयोक्ता इस रहस्यमय क्षेत्र की सूक्ष्म जगत की जानकारी प्राप्त करने में बहुत आगे तक बढ़ गये थे। उनने शरीर और मन की रहस्यमयी परतों को खोजने और प्रत्यक्ष प्रयोग में लाने के लिए ढंग से प्रयत्न किया था। इस पुरुषार्थ को सूक्ष्म जगत की खोज, व्यक्ति की विलक्षणताओं का प्रकटीकरण तथा सामर्थ्य के विशिष्ट स्रोतों की उपलब्धि कहा जा सकता है। अध्यात्म की भाषा में इसे ‘साधना’ कहते हैं जिसमें काय−कलेवर में सन्निहित प्रसुप्ति को जाग्रत एवं निष्क्रिय को सक्रिय किया जाता है।

भारतीय अध्यात्मवेत्ताओं ने विज्ञान के इस क्षेत्र को महत्त्व दिया था कारण कि काया का एक यंत्र ही जड़ चेतन जगत के रहस्य लोक में प्रवेश करने के लिए क्यों न आत्मिकी को अपनाया जाय? ऋषि युग को संक्षेप में साधना एवं तपश्चर्या का युग कहा जा सकता है। इस युग की महान उपलब्धियाँ आत्मिकी के विशिष्ट प्रयोगों का ही प्रतिफल है। आत्मिकी का प्रत्यक्ष परिचय साधनात्मक उपचारों में मिलता है। साधना में मंत्र शक्ति की प्रमुखता है। इसलिए उसे “माँत्रिकी” कहते है। याँत्रिकी और माँत्रिकी का उद्देश्य एक ही है−गुहा रहस्यों का उद्घाटन और अनुपलब्ध पर आधिपत्य।

भौतिकी उत्पादन भर कर सकती है, पर उसका उपयोग करने के लिए दूसरे बुद्धिमान की आवश्यकता पड़ती है। यह कठिनाई आत्मिकी में नहीं है। प्रयोक्ता अपने शरीर और अपने मन के सदा साथ रहने वाले और बिना खर्च और झंझट के यंत्रों का विशिष्ट उपयोग करके उच्चस्तरीय सामर्थ्य हस्तगत करता है। उन्हें उच्चस्तरीय इसलिए कहा जाता है कि उससे प्रयोक्ता का व्यक्तित्व देवोपम बनता है और उस सामर्थ्य से दूसरों की चेतना तक को प्रभावित परिष्कृत किया जा सकता है, जबकि भौतिकी की समर्थता इन दोनों में से एक भी काम नहीं कर सकती। यंत्र अपने आपको प्रयत्न से उच्चस्तरीय नहीं बना सकता और न वह अपने निजी प्रयत्न से दूसरे यंत्रों को अपने समान बना सकने में समर्थ होता है।

आत्मिकी का सर्वोपरि उपचार मंत्र है, इसलिए उसे माँत्रिकी कहा जाता है। इसके बिना अन्य साधनायें शारीरिक−मानसिक व्यायाम भर कर रह जाती है। चेतना के गहन अन्तराल तक पहुँचने और कुरेदने−उभारने में मंत्रोपचार का आश्रय लिए बिना काम नहीं चलता। मंत्र मात्र शब्द गुच्छक की रटन−पुनरावृत्ति तक सीमित नहीं है। यह कृत्य करना तो पड़ता है, पर उसके साथ और भी बहुत कुछ रहता है। साधक को आहार-विहार में विशेषतायें संपन्न करके शरीर को उन उपचारों के उपयुक्त बनाना पड़ता है और मनःशक्ति को प्रखर करने के लिए उस पर लदी हुई दुर्बुद्धि का निराकरण करना होता है। मंत्रोच्चार में साधक के चरित्र, चिन्तन और स्वभाव की उत्कृष्टता उभारना भी एक अनिवार्य अंग है। इसी प्रकार उस प्रयोग उपचार में एकाग्रता और तन्मयता का समावेश करने के लिए ध्यान, धारण एवं श्रद्धा−भक्ति का−समर्पण का अभ्यास करना पड़ता है। व्यक्ति सत्ता के प्रत्यक्ष पक्ष को उभारने में तपश्चर्या का और परोक्ष पक्ष को परिष्कृत करने में ‘ब्रह्म विद्या’ का आश्रय लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त विधान, अनुशासन एवं उपकरणों की इस परम्परा का ध्यान रखना होता है जो अध्यात्मिकता तत्त्वदर्शियों ने अपने दीर्घकालीन अनुभवों और प्रयोग द्वारा निर्धारित की है।

अतीत की गौरव गरिमा के साथ ‘आत्मिकी’ की उपलब्धियाँ ही जुड़ी हुई है। भौतिकी की महिमा सर्वत्र बिखरी पड़ी है, इतने पर भी सामंजस्य के अभाव में दोनों संकट बनकर रह रही है। आत्मिकी के विधान ही लुप्त नहीं हुए, उसे प्रखर बनाने वाली तत्परता और तन्मयता का अभ्यास भी घट गया। दूसरी ओर भौतिकी पर से आत्मिकी का अंकुश उठ जाने से उसने मदोन्मत्त हाथी की तरह स्वेच्छाचार बरतना आरंभ कर दिया। अतः दोनों ही अपनी गरिमा और महिमा गँवाती चली जा रही है।

पदार्थ के बिना प्राणी का निर्वाह नहीं और प्राणी के बिना पदार्थ की उपयोगिता नहीं। दोनों कि समन्वय से ही जीवन और जगत का महत्त्व बना एवं सौंदर्य निखरा है। पिछले दिनों भ्रांतियों ने भौतिकी और आत्मिकी को परस्पर विरोधी सिद्ध किया। एक को समग्र और दूसरी को व्यर्थ बताया गया। इस विग्रह ने जहाँ भ्रान्तियाँ पैदा की वहाँ असहयोग के कारण प्रगति अवरुद्ध होकर अवगति की और मुड़ गयी। आज की अनेक विपन्नताओं, विपत्तियों एवं विभीषिकाओं का यही सबसे बड़ा परोक्ष कारण है। इस भ्रान्ति को मिटाया जाना चाहिए साथ ही साथ आत्मिकी का उपचार अनुशासन एवं उत्तरदायित्व निखरकर सामने आना चाहिए। इसी प्रकार अनुशासन अनिवार्य माना जाना चाहिए जिसमें सामर्थ्यों का कोई दुरुपयोग न कर सके। विश्व में वही दो प्रमुख सत्तायें हैं यदि वे आपस में लड़ती रहीं अथवा लूली लंगड़ी पड़ी रहीं तो विनाश सुनिश्चित है और यदाकदा अपना-अपना उत्कर्ष करती हुई सहयोगी रहीं तो विकास क्रम चरम सीमा तक उसी प्रकार जा पहुँचेगा जैसे कि पुरातन काल में मनुष्य देवता बनकर रहते थे और इसी धरती को स्वर्गीय परिस्थितियों से भरापूरा रखते थे। आज भी अध्यात्म व विज्ञान, आत्मिकी एवं भौतिकी, माँत्रिकी एवं याँत्रिकी में उपयुक्त समन्वयात्मक तालमेल की सफलता पर ही उज्ज्वल भविष्य की नवयुग के अवतरण की संभावना टिकी हुई है।


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