गाँधीजी काश्मीर जा रहे थे। थर्ड क्लास के डिब्बे में वह यात्रा कर रहे थे, उसमें वर्षा का सारा जल भर गया ओर डिब्बा पूरा गीला हो गया गार्ड ने यह देखा तो गाँधी जी से जाकर बोला वह-”आप डिब्बा बदल लें, आपके लिए अन्यत्र व्यवस्था कर देते हैं।”
“फिर इस डिब्बे का क्या होगा?” गाँधी जी ने पूछा। तो गार्ड बोला-”इसमें दूसरे यात्रियों को बिठा दिया जायगा।”
“अपने आराम के लिए दूसरों को यहाँ बैठाने की बात सोचना भी मेरे लिए कठिन है।” यह कह कर गाँधी जी ने डिब्बा बदलने से इनकार कर दिया। समाज सेवियों द्वारा अपनी सुख-सुविधा की चिन्ता उनके लिए अशोभनीय है।
स्वामी विवेकानन्द के प्रवचनों से प्रभावित होकर किसी ने कहा-”लगता है आपकी पहुँच ईश्वर तक है। आप मुझे उस तक पहुँचा दीजिए। उसको मिलने का स्थान बता दीजिए।”
स्वामी जी ने कहा-”आप अपना पता मुझे लिखा जाइये। जब ईश्वर को फुरसत होगी तब उसे आपके घर ही भेज दूँगा।”
वह व्यक्ति अपने मकान का पता लिखाने लगा।
स्वामी जी ने कहा-”यह तो ईंट चूने से बने घरौंदे का पता है। आप स्वयं अपना पता बताइये कि आप कौन हैं? किस प्रयोजन के लिए नियत थे और क्या कर रहे हैं?”
व्यक्ति इनके प्रश्न में छिपी दार्शनिकता का संकेत समझा और इस नतीजे पर पहुँचा कि पहले आत्म सत्ता के स्वरूप और उद्देश्य का पता लगाना चाहिए। बाद में ही ईश्वर से मिलने की बात बनेगी।