इटली के पोम्पियाई नगर में एक बार भयंकर ज्वालामुखी फटा। नगर पूरी तरह ध्वस्त हो गया। इन प्रलय जैसी घड़ियों में जिससे जिस प्रकार जान बचाना संभव हुआ, वह भाग खड़ा हुआ। लावा का बहाव इतना भयानक था कि उसमें बैठे, चलते-दौड़ते लोग जैसे के तैसे दब गये।
अब जब उस ध्वस्त नगर की खुदाई हुई, तो किले का प्रहरी दरवाजे पर यथावत् पहरा देने की मुद्रा में खड़ा पाया गया। वह उस भयानक समय में भी अपनी ड्यूटी छोड़ने के लिए तत्पर न हुआ।
खुदाई में उस प्रहरी का कंकाल बड़ी द्वार पर उसे काँच से बन्द अलमारी में सुरक्षित रखा गया। उसके नीचे लिखा हुआ है-”वह प्रहरी जिसने मौत की चिंता कर्तव्य की प्रमुखता दी।”
दो बुढ़िया पड़ोस में रहती थीं। एक थी उदार, दूसरी ईर्ष्यालू। दोनों ने लम्बे समय तक तप किया। देवता प्रसन्न हुए। उनसे वरदान माँगने के लिए कहा।
उदार बुढ़िया ने माँगा-”मुझे जो कुछ भी आप दें, उससे दूना पड़ोसियों को अवश्य दें।” उसके सभी पड़ोसी संपन्न हो गए और अहसान मानते रहे।
ईर्ष्यालू बुढ़िया ने माँगा कि-”मरे शरीर के जो दो अंग है, उनमें से एक-एक नष्ट हो जाय। साथ ही पड़ोसियों के दोनों नष्ट हो जांय।”
बुढ़िया ने अपना एक हाथ, एक पैर, एक कान, एक आँख नष्ट करवा दी। फलतः पड़ोसियों के दोनों हाथ, दोनों पैर, दोनों आँखें नष्ट हो गयी। वह स्वयं तो दुःखी रही ही, साथ ही पड़ोसियों को भी भारी विपत्ति में फँसा दिया।
उदारता और ईर्ष्या के ऐसे ही परिणाम होते हैं।