नव-जागरण की धुरी-प्रकाशन व्यक्तित्व

March 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

राष्ट्र जागरण की बात बहुत लोगों द्वारा बहुत अवसरों पर बहुत बार दुहराई जाती है। क्यों? राष्ट्र की सारी गतिविधियाँ चल रही है। नए-नए ढंग नित्य प्रति अपनाए जा रहे है। समस्याओं के समाधान की खोज-बीन में अगणित प्रतिभाशाली हैरान-परेशान हैं। तो क्या यह सब सोते हुए ही किया जा रहा है-इतना सब होते हुए राष्ट्र जाग्रत क्यों नहीं है?

यह स्थूल दृष्टि की विवेचना है। समस्या का स्थूल नहीं सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया जाना चाहिए तथा उसी आधार पर समाधान खोजे जाने चाहिए। यों तो हर ‘मनुष्य’ कहलाने वाला प्राणी बराबर कुछ-न कुछ कर रहा है, सक्रिय दिखाई दे रहा है पर मनुष्यता के अभाव की न जाने कितनी दुहाई दी जा रही है, वह गलत भी नहीं। सतत् दृश्य दिखाई दे रहा है पर मनुष्यता के अभाव बुरी तरह खटकता है। इसी प्रकार कथित राष्ट्र की गतिविधियों के बीच राष्ट्रीयता है और उसके निवारण के प्रयास सार्थक होते न दिखाई देने से हर राष्ट्रप्रेमी व्यक्ति का अन्तःकरण चीत्कार कर उठता है। हानियाँ पर हानियाँ हो रही हैं-होती जा रही हैं पर हम बेखबर है। राष्ट्रीय चरित्र राष्ट्रीय गौरव राष्ट्रीय मर्यादा, राष्ट्रीय आत्मीयता, राष्ट्रीय समृद्धि आदि की वृद्धि और उत्कर्ष की बात क्या की जाय-उसका कोई न्यूनतम स्वरूप भी निर्धारित न हो सकना चिन्तनीय बात है। यह स्थिति देखकर लगता है कि राष्ट्र सचमुच साया पड़ा है, वह भी सामान्य निद्रा में नहीं मूर्छा जैसी गहन अचेतनता के गर्त। उसे चैतन्य, जाग्रत, सक्रिय बनाने के लिए विशेष प्रयास किए ही जाने चाहिए।

पर यह प्रयास कौन करे? राष्ट्रीय चेतना को कौन उभारे, उसे कैसे विकसित किया जाय उसे कैसे सजाया सँवारा जाये? घूम-फिर कर हमारी आदत प्रशासन का मुँह ताकते रहने की पड़ गई है। पर यह बड़ी भारी भ्रान्ति है। प्रशासन कुछ भी क्यों न हो-है तो वह भी उसी सुप्त समाज का अंग-सोया हुआ अंग, सोये हुए शरीर को कैसे जगा सकता है? जिनकी दृष्टि स्वयं में सीमित है उनमें विस्तृत दृष्टिकोण की कामना करना निरर्थक है। यह स्थिति लाई तो जा सकती है पर है नहीं।

राष्ट्र जागरण का यह कार्य तो जाग्रत अन्तःकरण वाले प्राणऊर्जा संपन्न व्यक्तियों का है। ऋषि संस्कृति ने इन्हीं को पुरोहित की संज्ञा से आभूषित किया है। वेद ज्ञान, कोश में इन्हीं के संकल्प स्वर ‘वय’ राष्ट्रें जाग्रयामः पुरोहिताः’ का मंत्र बनकर गुँजित है। प्रचलित मान्यताओं के परे जिनका मस्तिष्क सोच सकता है, चालू ढर्रे से हटकर जो काम कर सकते है उनके सिवा और कौन राष्ट्रीय चेतना के जागरण में समर्थ है? जिनके जीवन की गतिविधियाँ किन्हीं अंशों में स्वार्थ की सीमा के बाहर भी सक्रिय है। व्यक्तिगत स्वार्थों की अपेक्षा सामूहिक हित चिन्तन जिनके स्वभाव में है तथा उसके अनुरूप जीवन प्रक्रिया चलाने के जो थोड़े बहुत अभ्यस्त हैं वे ही इस कार्य में आगे आ सकते हैँ। तात्कालिक लाभ की मृग-मरीचिका में भटकते नागरिकों को जो दूरगामी परिणामों का स्मरण दिलाकर अपेक्षाकृत अधिक स्थाई लाभ प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दे, ऐसे विकसित दृष्टिकोण तथा व्यक्तियों का यह कार्य है।

पुरोहित शब्द में यही सब भाव समाया है। इस शब्द का अर्थ ही है जो सामने का लाभ नहीं, आगे का दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की व्यवस्था बना सकें, हीन स्वार्थों के स्थान पर महत् स्वार्थों की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए परमार्थ तक लोगों को गति दें सकें वही पुरोहित। पुरोहित में चिन्तक और साधक दोनों गुण अनिवार्य है। जो चिन्तन विश्लेषण द्वारा सही परामर्श दे सके तथा आदर्श जीवन पद्धति से मूर्तिमान प्रेरणा रूप बन कर जिए उसी से पुरोहित का दायित्व निभा सकना सम्भव है।

ऐसे व्यक्तित्व विचारकों एवं बुद्धि-जीवियों में ही नहीं सामान्य जन-जीवन में भी हैं। अपने जीवन में आदर्श का अभ्यास करने के साथ-साथ व्यक्तिगत हित के साथ समाज हित की कल्पना जो कर से, ऐसा व्यक्ति इस वर्ग में आ सकता है। समाज निर्माण राष्ट्र जागरण का कार्य प्रमुख रूप से ऐसे ही प्रकाशवान व्यक्तियों का है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118