मनुष्य की समूची प्रगति उसके व्यक्तित्व की उत्कृष्टता पर निर्भर है। यदि व्यक्तित्व ही निकृष्ट या विखण्डित स्तर का हुआ तो व्यावहारिक जीवन में अनेकानेक विकृतियों, असफलताओं का सामना करना पड़ेगा। सारी उपलब्धियों एवं बौद्धिक प्रगति के बावजूद आज जिस तरह मनुष्य अपने को व्यथित, असुरक्षित, उद्विग्न एवं असफल महसूस कर रहा है, उसके मूल में उसके व्यक्तित्व का विखण्डन ही दृष्टिगोचर होता है। मूर्धन्य मनोविदों ने इस समस्या को गंभीरता से लिया है और व्यक्तित्व को अविभाज्य बनाने के सम्बन्ध में शोध प्रयास भी आरंभ किये हैं। इस दिशा में उन्हें आँशिक सफलता भी मिली है।
मनुष्य को व्यक्तित्ववान बनाने के जितने भी पाश्चात्य प्रयत्न हुए हैं वस्तुतः वे सभी मानसिक स्तर तक ही सीमित रहे हैं। जब तक आत्मिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं मिलता, व्यक्ति को अधूरा ही कहा जायेगा। इस तथ्य का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करते हुए सुप्रसिद्ध मनीषी डॉ. आई. वी. पंचदेवा ने अपने ग्रंथ “योग एण्ड साइको एनालिसिस” में कहा है कि व्यक्तित्व को अखण्डित बना सकना मानसिक स्तर से गहरे जाने पर ही संभव है। जहाँ इसको सर्वांगपूर्ण बनाया और समस्त व्यथाओं से छुटकारा पाया जा सकता है, वह आत्मिक स्तर ही है। जब तक इस समस्या के समाधान के लिए किये गये प्रयास वृक्ष की जड़ों को छोड़कर पत्तों को सींचने जैसे ही होंगे। सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान आत्मिक क्षेत्र से ही संभव है।
इस तथ्य का स्वीकरण प्रख्यात मनोविद् लारेन्स हाइउ ने भी अपनी कृति “आइसिस एण्ड ओरिसिस” में किया है। उनका कहना है कि मनोवैज्ञानिक विधियों की अपनी सीमाएँ हैं जिनके द्वारा मनोरोगों से ग्रसित रोगियों को इस परिध में तो लाया जा सकता है, पर व्यक्तित्व विखण्डन जैसी गंभीर समस्याओं का समाधान इसके द्वारा संभव नहीं हो सकता। उनके अनुसार जीवन को आत्म केन्द्रित बनाए बिना किसी भी तरह व्यक्तित्व तथा जीवन के बिखराव की परिसमाप्ति नहीं हो सकती। मनुष्य समाज को आत्म केन्द्रित बनाना भी तभी संभव है जब अध्यात्म का सहारा लिया जाय।
धर्म एवं अध्यात्म का जो प्रचलित है उसको देखकर मनोवैज्ञानिकों का वैज्ञानिक मन एक वितृष्णा से भर उठता है। वे नहीं सोच पाते कि जो धर्म मनुष्यों को भेड़-बकरियों का झुण्ड में शामिल करने को ही अध्यात्म का सर्वस्व मान बैठे हैं, जिनकी सारी आध्यात्मिक इसी फेर बदल या परिवर्तन में सिमट गई है। उससे भला व्यक्तित्व को सर्वांगीण कैसे बनाया जा सकता है। धार्मिकों का एक अन्य समुदाय भी है जो बसत-बात पर जिहाद छेड़ता और दंगे कराने, काफिर -मारने के नाम पर मनुष्यों की हत्या करने ही अपनी शान समझता है। इस धर्म बनाम अखाड़े से भी कोई समाधान निकलने वाला नहीं है।
वस्तुतः आज मानव समाज आध्यात्म के उस स्वरूप की अपेक्षा रखता है, जो प्रथा-परम्पराओं या लोक प्रचलनों पर आधारित न होकर पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक हो। यह कार्यक्षेत्र अध्यात्म मनोविज्ञान का है। वर्तमान समस्याओं का समाधान कर मनस्-शास्त्रियों को एक सशक्त आधार प्रदान कर सकना इसी के सहारे संभव हो सकेगा।
अध्यात्म का मनोवैज्ञानिक स्वरूप भारतवर्ष के ऋषि चिंतन की अपनी विशिष्टता है। ऋषि–मनीषी कहे जाने वाले यहाँ के मनोवैज्ञानिकों ने मानव के व्यवहार एवं अन्तराल का भली-भांति विश्लेषण कर उसके व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाने-तथा जीवन को आत्म-केन्द्रित करने की एक ऐसी प्रणाली विकसित की थी-जिसे अध्यात्म मनोविज्ञान नाम दिया जाना सर्वथा युक्ति संगत है। इस मनोवैज्ञानिक प्रणाली को सुसम्बद्ध रूप से स्थापित करने का प्रमुख श्रेय महर्षि पतंजलि को है। उन्हें पूर्वार्त मनोवान के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकारा जा सकता है। सुविख्यात मनोविशारद कार्ल रोजर्स ने इसी प्रणाली से प्रेरणा ग्रहण कर एक ‘नॉन डायरेक्टिव थेरेपी’ नामक पद्धति भी विकसित की है। जो पूर्णतया अध्यात्म विज्ञान को अपना आधार मानती है।
अध्यात्म भी मनोविज्ञान हो सकता है। यह बात मनोविज्ञान नूतन अध्येताओं को कुछ कौतुक जैसी भी लग सकती है। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से ऐसा लगना स्वाभाविक भी है। किन्तु आध्यात्म को मनोवैज्ञानिक ढंग से परिभाषित करने पर तथ्य सहज ढंग से समझ में आ सकता है। इस प्रणाली के द्वारा चेतन मन को अचेतन मन में तब तक केन्द्रित करते हैं, जब तक दोनों मिल न जाँय। फिर इन दोनों को अति-चेतन में विलय कर दिया जाता है। यह समूची मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ही आध्यात्म है।
इस तरह जीवन का संचालन मनःक्षेत्र से न होकर अतिमन के क्षेत्र से होता है। इस स्थिति में हम अपने मन पर उसी तरह अधिकार कर लेते हैं, जैसे अभी शरीर पर है। तभी सूची मानसिक शक्तियों का पूरी तरह सदुपयोग करना भी सम्भव बन पड़ता है। विश्रृंखलित व्यक्तित्व सहज ढंग से सुसम्बद्ध एवं अखण्डित हो जाता है।
व्यक्तित्व के अखण्डित स्वरूप को प्राप्त करने की इस भारतीय प्रणाली की मनोवैज्ञानिक विवेचना अपने समय के उत्कृष्ट चिंतक स्वामी प्रभवानन्द ने अपनी कृति “हाऊ टृनो गाँड” में गंभीरतापूर्वक की है। तथ्य को स्पष्ट करते हुए उनने बताया है कि मनोचिकित्सक अपने मरीजों का मनोशारीरिक स्तर तक ऐ सन्तुलन भर बिठा सकते हैं, पर इसके परे उनकी पहुँच नहीं हो पाती। जबकि इसके परे ही है व्यक्तित्व का ऊर्ध्वमुखी तथा अखण्डित होना। यह कार्य आध्यात्म करता है। अतएव यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ से आधुनिक मनोविज्ञान की परिसमाप्ति होती है, वहीं से आध्यात्म मनोविज्ञान का प्रारम्भ होता है।
मनोविशारद इरा प्रोगाँफ ने भी अपनी कृति “साइकोलॉजी ऐज ए रोड टू फिलॉसफी” में उक्त मत का समर्थन करते हुए बताया है कि कोई भी मनोवैज्ञानिक प्रणाली मानव जाति की सेवा तभी पूरी तरह कर सकती है, जब वह वैयक्तिक दर्शन के रूप में भी उभर सके। यहाँ वैयक्तिक दर्शन से तात्पर्य उस विद्या से है जो व्यक्ति के चिन्तन को सँवारे तथा परिष्कृत बनाए।
आध्यात्म मनोविज्ञान अपने को इस कसौटी पर भी पूरी तरह से खरा सिद्ध करता है। महर्षि पतंजलि के सूत्र न केवल एक सर्वांगपूर्ण मनोवैज्ञानिक पद्धति है, बल्कि सदियों से उसे भारतीय षड्दर्शनों में मुख्य दर्शन के रूप में भी स्वीकारा गया है। यह वैयक्तिक दर्शन की सभी आवश्यकताओं को पूरा करने में पूर्णतया सक्षम है।
यह पद्धति सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों ही पक्षों को पूरी तरह से सन्तुष्ट करती है। इसका अवलम्बन जहाँ मूर्धन्य मनोविदों को, प्रयोगों को नयी गति देने वाला सिद्ध होगा, वहीं सामान्य जन इसकी प्रविधियों को व्यवहार में लाकर अपनी समूची मनोव्यथाओं से मुक्ति भी पा सकेंगे। आधुनिक मनःचिकित्सकों का भी यह पुनीत दायित्व है कि इस पद्धति को अपनाकर व्यवहार में लाकर मानव तथा मानवता का हित सम्पादन करें।