ईश्वर की सत्ता हमारे रोम−रोम में संव्याप्त हो,

March 1993

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

ईश्वर अतंतः है−क्या व किस प्रकार की सत्ता? कैसे उसे जाना जाय व कैसे यह माना जाय कि उसके ही कारण यह सारा क्रिया व्यापार−जगती के क्रिया कलाप चल रहे हैं, शब्दार्थ के नाते ऐश्वर्यवान −सर्व शक्तिमान सत्ता का नाम है। “ऐश्वर्य “ से यहाँ तात्पर्य उस वैभव से है जो समूची सृष्टि−इकोसिस्टम में विद्यमान नजर आता है। हम प्रार्थना द्वारा ऐश्वर्य−समृद्धि भगवान से सतत् माँगते हैं। पर कभी हमने विचारा कि ऐश्वर्य सही मायने में होता क्या है? संपूर्ण सृष्टि ही जिसका कार्यक्षेत्र हो तथा जिसका अस्तित्व इसके रोम−रोम में, कण−कण में समाया हो, ऐसी अधीश्वर सत्ता को ही ईश्वर मानकर उसकी आराधना−पूजा−उपासना द्वारा स्वयं को आस्तिक बनाया जाता हैँ उस सत्ता के क्रिया−कलापों को आगे बढ़ना, सृष्टि के उद्यान को सुरम्य बनाना और उसके ऐश्वर्य में सतत् निरन्तर वृद्धि करते रहना ही आस्तिकता है−ईश्वर की आराधना है।

ईश्वर शब्द से एक और अर्थ निकलता है−हम उस सर्वोच्च शक्तिमान सत्ता को जो ईश के रूप में सर्वव्यापी है, अचिंत्य −अगोचर−अगम्य है, का वरण करें। वरण उसी का किया जाता है जो सर्वश्रेष्ठ है, आदर्शों का समुच्चय है, समस्त सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों का समूह है। ईश्वर हमें उतना ही प्रिय लगे, जितना कि वरण करने वाले स्त्री के लिए उसका प्रियतम पति। समर्पण उसके प्रति हमारा वैसा ही हो जो भाव−संवेदना से भरी −पूरी किसी स्त्री का होता है। ईश्वर को यदि सही अर्थों में जीवन में ओत−प्रोत किया जा सके, उसका तत्त्वदर्शन हमारे कर्तृत्त्व में दृष्टिगोचर होने लगे तो समझना चाहिए कि ईश्वर उपासना किसी आस्तिक द्वारा सच्चे मायनों में संपन्न की गयी।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles