सुख, समृद्धि और वर्चस् का विज्ञान

March 1993

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ऋग्वेद 10-71-3 में उल्लेख है कि एक बार ऋषि बृहस्पति के पास जाकर कुछ जिज्ञासुओं ने पूछा भगवान।़ हमारी प्रज्ञा और भावी संतति यदि आप जैसा ज्ञान, बल, सिद्धि, स्वर्ग और समृद्धि प्राप्त करना चाहेगी, तो वह किस प्रकार प्राप्त करेगी। उत्तर मिला-

“यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टम्। तामाभृत्या व्यदधुः पुरमा ताँ सप्तरेभा अभि सं नवन्ते॥

अर्थात्-है शिष्यों। वह वाणी गायत्री आदि सात छन्दों में विभक्त होती है। अब और किसी भी काल में जो बुद्धिमान लोग उस वाणी अर्थात् गायत्री मंत्र द्वारा यज्ञ करेंगे, उन्हें ऋषियों के अन्तःकरण में स्थापित ज्ञान मिलेगा। ऐसे छात्रगण उस ज्ञान को सभी देशों में विस्तार करेंगे और जब उस विद्या को गायत्री आदि छन्दों में बद्ध कर गीत रूप में उसका गुणगान करेंगे-तभी मनुष्य समाज में कल्याण की वृद्धि, अशाँति का ह्रास, अन्याय-अनाचार का विनाश और यज्ञ कर्ताओं को सुख समृद्धि और धन-धान्य की प्राप्ति होगी।

वेद,पुराण, उपनिषद् एवं अन्याय शास्त्रों में बताये गये इस कथन को क्त” यह यज्ञ तुम्हारी हर कामना को संतुष्ट करेगा” अब विज्ञान की कसौटी पर भी कसा और सत्य पाया गया है। अब यज्ञ शक्तिवर्धक वस्तुयें जला देने वाला एक अन्ध विश्वासी कर्मकाण्ड मात्र नहीं रह गया है। भूल तभी तक होती रही, जब तक यज्ञ के विज्ञान को नहीं समझा गया।

यज्ञ के इस विज्ञान को समझने के लिए पृथ्वी और ब्रह्मांड की जिन शक्तियों के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है, वह है-(1)शब्द सामर्थ्य-मंत्रशक्ति (2)अग्नि तत्व और उसका प्रकीर्णन (3)सूर्य और उसकी सहस्रांशु शक्ति (गायत्री यज्ञों के परिप्रेक्ष्य में ) (4)पदार्थ परिवर्तन के मौलिक सिद्धान्त और (5)भावना विज्ञान। इनमें सम्पूर्ण या कुछ की आंशिक जानकारी से भी यज्ञ सम्बन्धी भारतीय दर्शन को अच्छी प्रकार समझा और उसका भरपूर लाभ उठाया जा सकता है।

शब्द की सामर्थ्य की माप कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के मूर्धन्य भूगोलवेत्ता डॉ. गैरीलेन की। उन्होंने स्फटिक के प्राकृतिक क्रिस्टल और स्फटिक की ही बहुत पतली पट्टिका के माध्यम से एक ऐसा यंत्र बनाया एवं उसकी अश्रव्य ध्वनियों के माध्यम से ऐसी शक्ति का निर्माण किया, जिसके द्वारा शल्य-चिकित्सा, रोगाणुओं का विनाश, मोटी-मोटी इस्पात की चादरें को काटना, धुलाई, कटाई आदि भारी से भारी काम और नाजुक से नाजुक कार्य भी संपन्न करने में देशों में औद्योगिक क्षेत्रों एवं चिकित्सकीय कार्यों में कर्णातीत ध्वनि के उपयोग ने क्रान्ति मचा दी है।

शब्द की दूसरी विशेषता उसकी संवहनीयता है। वह ठोस माध्यम से भी चल सकता है और विद्युतचुम्बकीय तरंगें के रूप में सारे ब्रह्मांड का भ्रमण भी कर आता है। इन सब बातों का अर्थ होता है कि शब्द की सामर्थ्य अपरिमित होती है। पृथ्वी पर अनेक हलचलें शब्दशास्त्र तो और भी वैज्ञानिक है उनसे एक प्रकार की ऐसी ध्वनि उत्पन्न कर सकती है।

गायत्री महामंत्र की ध्वनि शक्ति तो इन सबसे विलक्षण है। गायत्री यज्ञों में जब सामूहिक रूप से सस्वर मंत्रोच्चारण किया जाता है, तो अव अपने सामान्य सिद्धान्त के अनुसार कुंडलानुसार गति से ऊपर की ओर तरंगें बनाता हुआ बढ़ता है। यज्ञों में प्रज्वलित अग्नि के इलेक्ट्रान उन तरंगों को वहन कर लेते है और उनकी पहली प्रतिक्रिया तो उस क्षेत्र में ही फैलती है, अर्थात् यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले घृत आदि पदार्थ स्थूल से गैस रूप में फैलते है। आग की गर्मी से उन औषधियों के इलेक्ट्रॉन्स अपने-अपने पथों पर इतनी तीव्रता से दौड़ने लगते है कि आपस में लड़खड़ा जाते है और छितर कर स्थूल पदार्थोँ से अलग होकर वायुमंडल में फैल जाते है। यज्ञ के समय फैलने वाली धूम सुवास उसी का एक स्थूल रूप है।

अग्निहोत्र और मंत्रोच्चारण के उससे भी सूक्ष्म विज्ञान को समझने के लिए ‘अयन मण्डल’ आयनोस्फियर का अध्ययन आवश्यक है। धरती की सतह से 35 से 45 मील तक ऊँचाई वायुमण्डलीय भाग को आयनोस्फियर कहते है। अपनी पृथ्वी वायु के समुद्र में डूबी हुई है, अयन मंडल उसका सबसे अधिक ऊँचा और विशाल क्षेत्र है, लेकिन वहाँ हवा की कुल मात्रा वायुमंडल की तुलना में दो-सौवें भाग से भी कम है। यथार्थ में पृथ्वी पर प्राकृतिक परिवर्तनों और ब्रह्मांड के अदृश्य लोकों से संपर्क का मूल अध्याय यहीं से आरंभ होता है। कुछ दिन तक अयन मंडल वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली था, लेकिन अब यह पता लगा लिया गया है कि बहुत ऊँचाई पर अंतरिक्ष में ऐसे बहुत से गुण है जो धरती की हवा में नहीं होते।

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रकाश, प्रचण्ड चुम्बकीय, आँधी, बंतार तरंगों के परावर्तन जैसी घटनायें आयनोस्फियर से ही आरंभ होती है। सूर्य और चन्द्रमा आदि की अनेक नियमित क्रियाओं का भी पता वैज्ञानिकों ने लगा लिया है और कहा है कि इन प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पृथ्वी के आकर्षण वृत्त में परिवर्तन होते है।

यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि हवा में मिश्रित गैसें छोटे-छोटे अणुओं से बनी होती है? यह अणु परमाणुओं में विभक्त होते रहते है जो स्वयं भी इलेक्ट्रान, प्रोटान न्यूट्रान जैसे छोटे कणों से बने होते है जिन्हें शक्ति तरंगें कहा जा सकता है। इनका सूक्ष्म अयन मण्डल भी पृथ्वी की जलवायु एवं वातावरण पर असर डालता है और यहाँ के शब्द प्रवाह को कर्णातीत बनाकर आकाश की ओर फेंकता है। सूर्य का विकिरण भी इस अयन मण्डल को प्रभावित परिवर्तित करता है। परिवर्तन की यह स्थिति अच्छी बुरी गैसों के अनुरूप होती है, वह स्थूल दृष्टि से प्रकृति और जन स्वास्थ्य पर बड़ा अनुकूल प्रभाव डालता है। यज्ञ से उत्पन्न हुई प्राण वर्षा में ही वह शक्ति है जो आज के परमाणु विस्फोटों से विषाक्त वातावरण का परिशोधन कर सके। इसलिये वर्तमान समय में यज्ञों की अनिवार्यता असंदिग्ध है।

यजुर्वेद 23-42 में कहा है-”ब्रह्म सूर्य समज्योतिः” अर्थात् वह सूर्य ब्रह्मत्व ही है, उन्हीं की शक्ति और बाहरी महिमा से जीवन का विकास हो रहा है। पृथ्वी में आँधी तक सूर्य की इच्छा से आती है। इसे सूर्य की तापीय व्यवस्था कहें या प्राण-प्रक्रिया, पर निश्चित है कि यज्ञ और मंत्र की ध्वनि शक्ति उस प्राण या ऊष्मा में खलबली मचाकर अधिक मात्रा में जीवन यज्ञ होते है, वहाँ प्रकृति बहुत अनुकूल रहती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। यह एक तथ्य भी है कि पृथ्वी सूर्य से ही सर्वाधिक प्रभावित है।

मंत्र का भावना विज्ञान उससे भी विलक्षण शक्ति वाला है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-”कि संसार में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है, भले हम उसे जानते हो।” यह ज्ञान इतना समर्थ है कि विश्व के किसी भी भूभाग में विलक्षण हलचल उत्पन्न कर सकता है। प्राचीन ऋषि मनीषी इस तथ्य से भली−भांति परिचित थे। कि यज्ञों के माध्यम से प्रकट होने वाली भावना शक्ति सामान्य भावों की अपेक्षा शब्द शक्ति और अग्नितत्व से प्रेरित होने के कारण सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फैलकर अपने अनुरूप शक्तियों को खींच लाती है। हम यह समझ नहीं पाते कि अदृश्य सहायता या इच्छापूर्ति कैसे हुई, पर यह सब भावनाओं द्वारा एक प्रकार के तत्वों के अणुओं के आकर्षण की ही वैज्ञानिक पद्धति है, उसमें रहस्य जैसी कोई बात नहीं है।

भावना वस्तुतः अल्ट्रा एवं इन्फ्रासोनिक ध्वनि तरंगों का और भी सूक्ष्म स्वरूप है, क्योंकि हम जो कुछ सोचते है, वह आत्मा या चेतन सत्ता द्वारा एक प्रकार बोलना ही है। इसलिए कर्णातीत ध्वनि की समस्त शक्तियों से उसे ओत−प्रोत होना ही चाहिए। यज्ञ तो एक प्रकार से उस यंत्र की तरह है जो अभीष्ट इच्छा के गन्तव्य तक उस शक्ति को पहुँचाने और वहाँ से आवश्यक परिस्थितियाँ खींच लाने में मदद करता है।

अग्निहोत्र का प्रतिफल अन्न आदि के उत्पादन, अयन मण्डल में शक्ति तत्वों का विकास और जलवायु तथा वातावरण की अनुकूलता के रूप में दिखायी देता है, तो यज्ञ कर्ताओं की श्रद्धा भक्ति भावनात्मक स्तर पर मनोवाँछित सफलतायें प्रदान करने वाली होती है। स्थूल की प्रतिक्रिया स्थूल तो सूक्ष्म भी हाथों हाथ देखने को मिलती है। यद्यपि यह दोनों ही बातें मिली-जुली है, इसलिये भावना को विज्ञान विज्ञान को भावना के माध्यम से जाग्रत और प्राप्त किया जा सकता है।

एक समय था जब अभीष्ट प्राकृतिक आवश्यकताओं, सामाजिक परिवर्तनों और व्यक्ति की निजी इच्छाओं के लिए प्रयुक्त होने वाले विशाल महायज्ञों की बहुतायत से लोगों को जानकारी थी, पर उस विद्या का लोप हो गया लगता है, प्रयोग और परीक्षण के तौर पर ही उन रहस्यों की पुनः जानकारी प्राप्त की जा सकती है। प्रस्तुत दस अश्वमेध यज्ञ उसी श्रृंखला की एक कड़ी है जिन्हें सूर्य की अदृश्य किरणों, अयन मण्डल एवं प्राकृतिक परिवर्तन के रूप में समझा जा सकता है।


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