अमंगल से मंगल कहीं अधिक

March 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भवन अमंगल-मकड़ियों ने जहाँ-तहाँ जाले बुन रखे है। शिशुओं की शौच दुर्गन्ध फैला रहा है पशुओं ने सर्वत्र गोबर फैला रखा है। सब ओर अस्वच्छता अमंगल ऐसे घर में रहना तो नरक में रहता है। दिन भर यही विचार उठता रहता, श्रुतिधर बेचैन हो उठे। यह भवन अमंगल है कहकर एक दिन उनने गृह परित्याग कर दिया और समीप के एक गाँव में जाकर रहने लगे। ग्रामवासी निर्धन है, अशिक्षित है, मैले कुचैले वस्त्र पहन कर सत्संग में सम्मिलित होते है। गाँव की गंदगी ने पुनः उनके मन में अकुलाहट भर दी। ग्राम भी अमंगल है इस अमंगल में कैसी जिया जाय? श्रुतिधर ने उसका भी परित्याग किया और निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे एकाकी कुटी बनाकर रहने लगे।

रात आनन्द और शान्ति के साथ व्यतीत हो गयी। लेकिन प्रातःकाल उठते ही पक्षियों का कलरव कुछ जंगली जानवरों ने कुटी के बाहर आखेट किए हुए वन्य पशुओं की हड्डियां बिखरा दी थी। इधर-उधर रक्त के छींटे पड़े हुए थे। आशंका से ओत−प्रोत श्रुतिधर के अन्तःकरण को हैरान-परेशान करने के लिए इतना काफी था। उन्हें वन में भी अमंगल के ही दर्शन हुए। अब क्या किया जाए इसी चिन्ता में थे तभी सामने बहती हुई श्वेत सलिला सरिता दिखाई दी। लगा जैसे आनन्द प्रवाहित हो रहा है। वह विचार करने लगे यह नहीं ही सर्व मंगल संपन्न है।सो कानन कुटी का परित्याग करके उस पयस्विनी के आश्रय में चल पड़े।

शीतल जल के सामीप्य से उन्हें सुखद अनुभूति हुई। अंजलि बाँध कर उन्होंने जल ग्रहण किया तो अन्तःकरण प्रफुल्लित हुआ। पर ये तृप्ति के क्षण अभी पूरी तरह समाप्त भी नहीं हो पाए थे कि उनने देखा एक बड़ी मछली ने आक्रमण किया और छोटी मछली को निगल लिया। इस उथल-पुथल से नदी के तट तक हिलोर पहुँची जिससे वहाँ रखे मेढ़कों -मच्छरों के अंडे-बच्चे पानी में उतरने लगे। अभी यह स्थिति स्थिर भी न हो पायी थी कि ऊपर से बहते-बहते किसी कुत्ते की लाश उनके समीप आ पहुँची। यह दृश्य देखते ही उनका हृदय घृणा से भर गया। उन्हें उन्हें उस नदी के जल में अमंगल नजर आने लगा।

अब कहाँ जाए? इस सवाल ने श्रुतिधर को झकझोरा। वन, पर्वत, आकाश सभी तो अमंगल से घिरे है। उनका हृदय उद्वेलित हो उठा। इससे अच्छा तो यही है कि जीवन ही समाप्त कर दिया जाये। अमंगल से बचने का यही एक उपाय उनकी नजर में शेष रहा।

श्रुतिधर ने लकड़ियाँ चेनी। चित्ता बनायी, प्रदक्षिणा की और उस पर आग लगाने लगे तभी उधर कहीं से महर्षि वैशंपायन आ पहुँचे। यह सब कौतुक देखकर उनने पूछा−तुम यह क्या कर रहे हो। दुख भरे स्वर में उन्होंने अपनी अब तक की सारी व्यथा कथा सुना डाली। रुआंसे होकर कहने लगें “सृष्टि में चारों ओर अमंगल ही अमंगल है। इससे घिरे रहने से मर जाना बेहतर।”

महर्षि हंस पड़े −फिर एक क्षण चुप रहकर बोले “वत्स। तुम चित्त में बैठोगे। तुम्हारा जलेगा, शरीर में भरे मल भी जलेंगे उससे अमंगल ही तो उपजेगा। ऐसे में क्या तुम्हें शान्ति मिल सकेंगी?”

“तात।़ सृष्टि में अमंगल से मंगल कहीं अधिक है। घर में रहकर सुयोग्य नागरिकों का निर्माण, गाँव में शिक्षा संस्कृति का विस्तार, वन में उपासना की शान्ति और जल में प्रदूषण का प्रच्छालन-प्रकृति की प्रेरणा यही तो है। सृष्टि में जो मंगल है उसका अभिसिंचन परिवर्द्धन विस्तार हो। जो अमंगल है उसका शेचि -संस्कार किया जाय। यदि तुम इसमें जुट पड़ो तो अशान्ति का सवाल ही शेष न रहेगा। श्रुतिधर को यथार्थ का बोध हुआ वे घर लौट गए और मंगल की साधना में जीवन बिताने लगे।

परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

ब्रह्मतेजस् के अभिवर्धन की साधना


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118