कामना करें बसंती ज्वाला की

March 1993

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वसन्त पर्व बसंती रंग, विकास और त्याग बलिदान का प्रतीक बन गया है। ‘बसंती ‘ शब्द एक मस्ती लिए हुए है। एक चहक और महक उसमें है। यह मस्ती लौकिक भी है और अलौकिक भी। इसका रस तो अनुभव करने वालों को ही आता है। पर कुछ समय से लगता है ‘बसंती’ प्रभाव कम हो गया। वसन्त तो हर वर्ष आता है। बसंती हवा बराबर बहती रहती है-पर अब उसके प्रभाव से देश के लिए, समाज, संस्कृति और धर्म के लिए कुछ कर गुजरने की, इस राह में कुछ चढ़ा देने की, कुछ लुटा डालने की मस्ती अन्तःकरण में पैदा होती नहीं दिखती।

तो क्या बसंती हवा बेअसर हो गई? उसकी रस संचार की क्षमता समाप्त हो गई? त्याग बलिदान अन्तःकरण की संपन्नता से ही सम्भव होता है। विपन्न और दीन दान समझता है तो माँगने या छीनने झपटने की ही कोशिश करेगा। इसके विपरीत अपने को भगवान का अंश, प्रतिनिधि समझने वाला फक्कड़ भी समाज को बराबर कुछ देता ही रहता है। यह आन्तरिक संपन्नता अब बसंती हवा क्यों नहीं पैदा करती? इस हवा के प्रवाह के साथ वह रस अन्तःकरण में क्यों नहीं प्रवाहित होता जो हर ‘अँखुवे’ में से एक फुगनी, जवन के हर कदम पर एक अनुदान पैदा करने के लिए समर्थ हो सकें?

किन्तु प्रकृति में तो वह क्रम चला रहा है। बसंती हवा की मस्ती ज्यों की त्यों बनी हुई है। कोयल की कूक में उसकी मस्ती, आम के बौर में उसकी महक, जंगल में पलाश-टेसू के फूल से लेकर खेतों की सरसों तक में उसकी रेंगत स्पष्ट झलकती है। जंगली औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ अब भी अपनी रोग निवारण तथा पोषण की क्षमता इन्हीं दिनों चरम सीमा तक बढ़ा लेती है। सब ओर से प्रकृति का एक मूक आह्वान सुना जा सकता है-”आओ हमारे रस से जीवन की नीरसता, हमारी उमंग से जीवन की उदासी, हमारी संपन्नता से अपनी दीनता दूर करो। सरस -उत्साहपूर्ण और गौरवमय जीवन जियों−−−−−−लो कुछ तो ले लों..........।” फिर मनुष्य का अंतर्मन प्रकृति के साथ तरंगित क्यों नहीं हो उठता? क्यों वह दुःख के दीनता और हीनता के रोने रोता है। क्यों नहीं वह स्वयं मस्त होकर, महक कर औरों के जीवन में सुख, सुवास नहीं भर देता?

लगता है गड़बड़ी अन्दर है। रस प्रवाहित नहीं हो पाता। रस का प्रवाह निर्विकार नली में होता है। रस की जगह कुछ धूल–धक्कड़ उसमें भर जावे तो रस उसमें कैसे बहे? शिकायत की जाय तो क्या फायदा?रस के अटूट भण्डार से जुड़ी रहकर विकारों से अवरुद्ध नली में रस संचार कैसे संभव है?

हमारा मन करता है-बसंती हवा बहे और हमारे मनों में गुदगुदी पैदा करे, हलचल मचा दे, हम भी महक उठें आम के बौर की तरह, चहक उठें चिड़ियों की तरह। अन्तर में एक हूक उठे जो कोयल की सी कूक बनकर वातावरण में मस्ती पैदा कर दे। सरसों के पौधों की तरह झूम उठें और नव पल्लवों की तरह थिरक उठें। सारा अवसाद बह जाय-उल्लास उमड़ पड़े। पर वह सब हो तब, जब रस संचारित हो सके? रस है कभी रस के धोखे में कुछ नहीं होने पाता? लगता है कभी रस के धोखे में कुछ ओर प्रवेश पा गया। वह वहीं जम गया..... रास्ता रोक कर। आत्म-विकास के धोखे स्वार्थ घुस गया, इसीलिए सेवा की जगह अहसान की इच्छा होती है, आत्मीयता सेवा अहंकार ने घेर ली। आत्मीयता की जगह अहंकार ने घेर ली। हम धोखा खा गए ......।

तो हम सावधान हो जांय। समर्थ बसंती हवा की कामना करते हुए बैठे न रहें। वह तो सदा समर्थ है और अपना काम करेगी। कामना करें बसंती ज्वाला की, शोलों की जिनके ताप से विकार जल जायें। जिसके संसर्ग से बसंती मस्ती खरी हो जाय और हौसला-पसती गलकर बहे, रस पैदा करे-स्वागत है उसका। पर उसके स्वागत थाल सजाये ही न खड़े रहे। बसंती बयार को प्रभावशाली और सार्थक बनाने के बसंती अंगार भी प्रज्वलित करें, जो विकारों को जला दें पर जिसमें से काला धुआँ नहीं बसंती चमक लेकर-फिर बसंती बयार का मजा लें, प्रकृति से तादात्म्य कर जीवन धन्य बनाएँ।


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