विचार शक्ति की प्रभाव क्षमता के वैज्ञानिक प्रमाण !

March 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अब यह निर्विवाद रूप से सत्य सिद्ध हो चुका है कि विचार सिर्फ चेतना को ही नहीं, वरन् पदार्थ को भी समान रूप से प्रभावित करते हैं । उसे एक से दूसरे रूप में परिवर्तित कर देना-यह विचार शक्ति की ही सामर्थ्य है । उसकी इस अद्भुत क्षमता को ध्यान में रखते हुए हमें उसके अधिकाधिक सदुपयोग की बात सोचनी चाहिए ।

मानवी शरीर विचारों से प्रभावित होता है, अब यह कोई नया तथ्य नहीं रहा । सर्वविदित है कि अच्छे विचारों का शरीर पर अच्छा और बुरे का बुरा असर पड़ता है । इस आधार पर व्यक्ति का स्वस्थ-निरोग रहना अथवा रोगाक्रान्त हो जाना यह बहुत हद तक उत्कृष्ट निकृष्ट चिन्तन पर अवलम्बित होता है । चिकित्सा विज्ञान में मनःकायिक रोगों का आधार ही यही है । इसके विपरीत बीमार व्यक्ति को उदात्त चिन्तन द्वारा स्वस्थता प्रदान की जा सकती है । इसके अतिरिक्त अनेकानेक प्रसुप्त क्षमताओं का जागरण एवं विकास भी संभव है । यह सब ऑटोसजेशन और हेट्रोसजेशन की विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा सम्पन्न किया जाता है ।

पेड़-पौधे भी इससे सर्वथा अप्रभावित नहीं रहते-यह भी भलीभाँति ज्ञात हो चुका है । इसी तथ्य के आधार पर अब ऊसर और अनुपजाऊ जमीन में भी खेती करने की बात सोची जा रही है । इसका प्रथम प्रयोग अमेरिका के फाइण्डहोर्न नामक एक ऐसे स्थान पर किया गया जहाँ की भूमि बिल्कुल बलुआही थी । कृषि विशेषज्ञों का इसके संबंध में विचार था कि यहाँ मात्र जंगली खरपतवारों के कोई अनाज नहीं उपजाया जा सकता । विशेषज्ञों की इस मान्यता को विचार शक्ति पर विश्वास रखने वाले कैडीज एवं उनके मित्रों ने तब झुठला दिया जब कुछ वर्ष पूर्व वहाँ उन्होंने विचार शक्ति के माध्यम से असाधारण आकार-प्रकार की सब्जियाँ उपजायीं । वहाँ की कुछ बन्दगोभियाँ वजन में चालीस पौण्ड के आस-पास थीं । जो स्थान ऊसर-बंजर के कारण कभी उपेक्षित पड़ा था, आज उसे विचारों की अद्भुत क्षमता द्वारा उपजाऊ भूमि में परिवर्तित कर दिया गया है ।

यह विचारों का भूमि और उसकी प्रकृति पर प्रभाव हुआ । इसके अतिरिक्त इसके द्वारा पेड़-पौधों के बाह्य आकार-प्रकार और उसकी फलोत्पादक क्षमता को भी प्रभावित किया जा सकता है । किसी सामान्य नस्ल के पौधे में असामान्य प्रजाति के फल प्राप्त किये जा सकते हैं । बीमार पौधों को स्वस्थ और स्वस्थ को असाधारण आकृति-प्रकृति वाले रूपों में परिवर्तित किया जाना संभव है । इसी आशय का एक प्रयोग कैलीफोर्निया के एक कृषि विज्ञानी एलन फोर्ड द्वारा पिछले दिनों किया गया । उन्होंने अपने बाग में विभिन्न प्रकार के फल-फूल के अनेक पौधे लगा रखे थे एवं उनमें तरह-तरह के प्रयोग-परीक्षण किया करते थे । इसी बीच उन्हें विचारों की विलक्षण सामर्थ्य की जानकारी मिली । इसकी पुष्टि के लिए अपनी बगिया के पौधों पर कुछ प्रयोग करने का उनने निश्चय किया । इस संदर्भ में वे अपनी पुस्तक “मिरैकल्स ऑफ थॉट” में लिखते हैं कि जब उन्हें इसका पता चला , तो सबसे प्रथम प्रयोग उन्होंने एक काँटेदार सफेद गुलाब पर किया । वे हर दिन उस पौधे के पास पन्द्रह मिनट बैठ कर किसी पालतू जन्तु की तरह स्नेह करते और उससे मीठी-मीठी बातें करते हुए सर्वथा कंटकविहीन प्रजाति में बदल जाने का आग्रह करते । इस उपक्रम में तीन महीने बीत गये । चौथा महीना आरंभ होते ही उन्होंने देखा कि उसकी शाखाओं के काँटे स्वतः झड़ने लगे हैं । दो सप्ताह बीतते-बीतते पौधे के समस्त काँटे गिर गये । अब वह पौधे बिल्कुल शूलरहित हो गया था । इससे एलन का उत्साह बढ़ा उनने इसी प्रकार के और भी अनेक प्रयोग दूसरे पौधों पर किये । मिर्च पर किया, तो उसमें बीज रहित मिर्च फलने लगी । उसका आकार भी सामान्य से अनेक गुना बड़ा था नापने पन लम्बाई लगभग छः इंच पायी गई । इसकी प्रकार मटर, बैंगन, टमाटर आदि सब्जियोँ पर प्रयोग किये । प्रत्येक के साथ परिणाम आश्चर्यजनक पाये गये ।

इस लम्बे अनुभव व अध्ययन के उपरान्त ही उनने उक्त पुस्तक लिखी । इस मध्य अपने प्रयोग में विविध परिवर्तन भी किये और अलग-अलग परिवर्तनों के आधार पर प्राप्त परिणामों का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन किया, यथा जब विचार उथले होते हैं, तो उन्होंने देखा कि या तो परिवर्तन संभव ही नहीं होते अथवा यदि होते भी हैं, तो प्रतिफल आशा के अनुरूप नहीं मिलते । इसके विपरीत विचारों में जब प्यारा-प्रेम का अधिकाधिक पुट होता है, तो नतीजा अप्रत्याशित प्राप्त होता है । इस प्रकार अपनी पुस्तक के अन्त में उन्होंने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि यदि इस क्षेत्र में किसी को विफलता मिलती हो, जो कदाचित अप्रत्याशित भी नहीं है, तो इसे प्रयोगकर्ता की अपनी त्रुटि और विचारों की अशक्तता की परिणति भर माना जाना चाहिए न कि सच्चाई पर संदेह करना चाहिए, जो सौ टंच सोने की भाँति खरी साबित हो चुकी है ।

एक ऐसे ही प्रयोग का वर्णन रुथ मोण्टगोमरी ने अपनी पुस्तक “स्ट्रेंजर्स एमोंग अस” में किया है । वे लिखती हैं कि उनकी एक मित्र लॉरा ने जब विचारणा कि सामर्थ्य के बारे में सूना, तो सच्चाई जानने के लिए एक प्रयोग किया । एक दिन तीसरे प्रहर वह अपने लाँन में बैठ गयी । निरभ्र और नीले आकाश में सामने ही एक बादल का एक श्वेत टुकड़ा था । उसने विचारणा शक्ति का प्रभाव उसी पर आजमान शुरू किया । चार मिनट तक उस बादल के अदृश्य हो जाने की भावधारा के साथ विचार-संप्रेषण उसे लक्ष्य कर वह लगातार करती रही । उसने देखा कि धीरे-धीरे बादल की सघनता समाप्त होती जा रही है और चार मिनट पश्चात् वह आँखों से ओझल हो गया । उसने इस प्रयोग को कई बार दोहराया, तब इसकी सत्यता पर उसे विश्वास हो सका । मोंटगोमरी लिखती हैं कि इस प्रयोग को प्रख्यात प्रोफेसर एवं वैज्ञानिक पुस्तकों के लेखक एच. हैपगुड, जिनकी अनेक पुस्तकों की भूमिका आइंस्टीन ने लिखी है, ने भी कई बार दोहराया एवं सत्य पाया ।

अभी दो वर्ष पूर्व कीव यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने एक बड़ा विलक्षण प्रयोग किया । उनने यह जानना चाहा कि क्या समान चिन्तन का चेहरे-मोहरे पर भी असर पड़ता है? यदि हाँ तो कैसा ? इसके लिए मनोवैज्ञानिक दल ने समान विचारधारा वाले 20 विवाहित जोड़ों का चयन किया । उनके विवाह से पूर्व के और शादी के दस वर्ष पश्चात् के चित्र इकट्ठे किये गये इसके बाद निर्धारित लोगों को दोनों प्रकार की तस्वीरें बारी-बारी से दिखायी गई । शादी से पहले के चित्र को इकट्ठे रख कर उनमें से उनकी सही जोड़ियाँ तैयार करने को कहा गया । इसमें सफलता नगण्य जितनी ही मिली । सही चयन एक प्रतिशत ही किया जा सका । इसके बाद विवाह के पश्चात् के चित्र उनके सामने रखे गये और पुनः उसी क्रिया को दोहराने को कहा गया । आश्चर्य इस बात का है कि इस बार जोड़ी मिलाने में नब्बे प्रतिशत सफलता हाथ लगी । भिन्न लोगों और जोड़ियों के साथ उक्त प्रयोग को कई बार किया गया । थोड़े बहुत अन्तर के साथ परिणाम लगभग एक ही जैसे प्राप्त हुए । इसके आधार पर मनोविज्ञानियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि एक ही प्रकार की विचारधारा शरीर-आकृति पर भी असर डाले बिना नहीं रहती और उसे सामान आकार-प्रकार प्रदान करने लगती है ।

सर्वथा इनकार नहीं किया जा सकता कि विचारणा में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उससे जड़ एवं चेतन पदार्थों को भी समान रूप से प्रभावित किया जा सकता है । यदि उसका सुनियोजन कर आतिशी शीशे की भाँति किसी एक दिशा-एक लक्ष्य पर संधान किया जा सके , तो निश्चय ही उसका चमत्कारी परिणाम उपलब्ध हो कर रहेगा । इसकी दुर्धर्ष सामर्थ्य को देखते हुए हमें इसका लाभ उठाने और जीवन को उन्नतिशील-प्रगतिशील बनाने की बात सोचनी चाहिए । ध्यान में यही तो किया जाता है । वस्तुतः सार्थकता भी अध्यात्म अनुशासनों की इसी प्रक्रिया के अपनाने में है ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118