प्रकृति-पुत्रों का एक सुविकसित संसार

March 1992

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मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का गौरव प्राप्त है । वह अपनी कुशलता , दक्षता, कलाकारिता, शिल्प आदि पर गर्व कर सकता है और यह मान सकता है कि अपनी वैज्ञानिक बुद्धि के सहारे वह गगनचुम्बी इमारतें बनाने से लेकर बड़े-बड़े पुल बाँधने-बाँध निर्माण करने तक में समर्थ है । पर वह यह भूल जाता है कि इसके लिए उसे शिक्षा, अनुकरण तथा उपकरणों पर निर्भर रहना पड़ता है, जबकि क्षुद्र समझे जाने वाले अन्य प्राणी अपनी अन्तःप्रेरणा के आधार पर वह सब कुछ सीख लेते हैं । न तो वे उसके लिए किसी के पास शिक्षा लेने जाते हैं और न उन्हें किन्हीं उपकरणों की आवश्यकता होती है । वे मनुष्य से भी बढ़ चढ़ कर अपनी कुशलता का परिचय देते हैं । बीवर जैसा चतुर और कुशल इंजीनियर तो बिना प्रशिक्षण प्राप्त किये ही अपनी क्षमता का जिस तरह परिचय देता है, वह हमारे लिए कहाँ संभव है? इसी तरह लोमड़ी, बिलाव तथा शृंगालों आदि के निवासकक्ष देखते ही बनते हैं । वे अपनी माँदों तथा बिवरों में सब प्रकार की सुविधाओं का समावेश रखते हैं । बया का सुन्दर घोंसला पक्षियोँ की निर्माण कला का श्रेष्ठतम जीवंत नमूना है । नगण्य-सी समझी जाने वाली चींटियों और मधुमक्खियोँ की कलाकारिता देखी जाय तो उनकी कुशलता देखकर यही कहना पड़ता है कि परमात्मा ने इस क्षुद्र समझे जाने वाले जीवों को गजब की निर्माण बुद्धि दी है । उनके सूक्ष्म शिल्प को देखकर मानव मन ईर्ष्या से भर उठता है ।

बाँध कैसे बनायें जायँ, यह कला मनुष्य ने संभवतः बीवर से सीखी है । बीवर खरगोश जाति का एक छोटा सा प्राणी है जिसकी लम्बाई पूँछ समेत चार फुट से कम ही होती है । यह अपने रहने के लिए नदी किनारे ऊँचे बाँध खड़े करता है और संरक्षित घर बनाकर उनमें सुखपूर्वक रहता है । यह बाँध लकड़ी के लट्ठों मोटी टहनियों, पत्थरों तथा कड़ी मिट्टी के सहारे बनाये गये होते हैं । बीवर यह रचना सामुदायिक सहयोग के आधार पर करते हैं । वे जिस पेड़ को उपयुक्त समझते हैं, उसे अपने पैने दाँतों से जड़ से काटकर धराशायी कर देते हैं । बाद में उसके टुकड़े-टुकड़े कर मिलजुल कर निर्माण स्थल पर घसीट ले जाते हैं और जमीन में गाढ़कर बाँध की इतनी मजबूत नींव रखते हैं जिस पर पत्थर, लकड़ी आदि जमाते हुए बाँध को नदी की सतह से बारह फुट ऊँचा तक ले जाया जा सके । यह बाँध पाँच सौ फुट तक लम्बे पाये गये हैं और इतने मजबूत देखे गये हैं कि नदी के पानी की लहरें उन्हें विनष्ट नहीं कर पातीं । एक बाँध में दर्जनों बीवर परिवार रहते हैं । मध्य योरोप में नदी तटों पर पाया जाने ताला यह छोटा सा जीव अपनी श्रमशीलता, सहकारिता, सूझबूझ एवं शिल्प के कारण मनुष्य के लिए एक आदर्श बन गया है ।

इसी तरह ऊदबिलाव भी अपनी शिल्पकला के लिए विख्यात है । जीवशास्त्रियों ने इसे कुशल इंजीनियर की पदवी तक दे डाली है, वह सुरंगी नहरें बनाने तथा मिट्टी के पुल निर्माण करने में बड़ा पटु होता है, हैम्पटन नगर में समुद्री किनारे पर रहने वाले लोग इस प्राणी के कारनामों से बहुत ही परेशान रहते हैं । यह नगर झील एवं समुद्र के बीच स्थित है । ऊदबिलावों ने वहाँ से नगर के भीड़भाड़ भरे इलाके तक में भीतर ही भीतर सुरंगें बना रखी हैं । बहुत प्रयत्न करने के पश्चात् भी आज तक न तो वे पकड़े जा सके हैं और न वह नहरें ही बन्द की जा सकी हैं जो इन्होंने अन्दर ही अन्दर बना रखी हैं ।

अभियाँत्रिकी दक्षता को आज का वैज्ञानिक मनुष्य अपनी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानता है । विशालकाय भवनों, बाँधों के निर्माण से लेकर सेटेलाइट कम्प्यूटर आदि तक की डिजाइनिंग में उसने जो बुद्धि खर्च की है उसे देखकर लगता है कि वह दूसरा परमात्मा है । पर जब यही योग्यता चींटी, दीमक जैसे तुच्छ से प्राणियों में हो तो उसे भी परमात्मा आ अंश ही कहा जायगा । यों देखने पर चींटियाँ ढेर में बिलबिलाती दीखती भर हैं, पर बारीकी से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि उनका हर कार्य व्यवस्थित-नियंत्रित एवं कलाकारितापूर्ण होता है । मनुष्य की तरह पेट भरने और संतति उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं होता इस सम्बन्ध में सुविख्यात जीवविज्ञानी डॉक्टर बोल्ट ने हिमालय की चार हजार फुट ऊँची एक चोटी पर चढ़ कर एक ऐसे चींटी परिवार का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया है जो गृह निर्माण का कार्य कर रहा था । उन्होंने लिखा है कि नदी के किनारे होने के कारण बिल से निकाली हुई मिट्टी नीचे गिर जाती थी और इस कारण मकान बनाने में श्रमिक चींटियों को सफलता नहीं मिल पा रही थी । अंततः इस स्थिति से निपटने का काम कुछ विशेषज्ञ चींटियों को सौंपा गया । उन्होंने उस स्थान का विधिवत् निरीक्षण करके एक योजना बनाई । उस योजना के अनुसार मजदूर चींटियों को हटा लिया गया और उन्हें पहले छोटी-छोटी कंकड़ियाँ बीनकर लाने का आदेश दिया गया । वे सभी कंकड़ एकत्र करके लाने लगीं और विशेषज्ञों के हवाले करती गयीं । इन कंकड़ों से पहले मजबूत पथ का निर्माण किया गया और तब आगे का कार्य आरंभ हुआ। अब मिट्टी के लुढ़कने की कोई गुंजाइश नहीं रही । इस संबंध में मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. वैरन मैकुबला का कहना है कि निर्माण सम्बन्धी जो कार्य योजना चींटियाँ तैयार कर सकती हैं, वह मानव निर्मित कंप्यूटर द्वारा भी संभव नहीं ।

सुप्रसिद्ध जीवविज्ञानी कैथी कीलपैट्रिक ने जीव-जन्तुओं की स्थापत्य कला पर एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखी है-”एनीमल आर्चीटेक्ट ।” यूरोप में पायी जाने वाली “वुडएन्ट्स” प्रजाति की चींटियों के बारे में उनने लिखा है कि वह अपनी सूक्ष्मबुद्धि का जिस तरह उपयोग करती है, वैसा अपनी बुद्धि का सदुपयोग कर पाना मनुष्य के लिए अभी तक संभव नहीं हुआ है । इन चींटियों के टीले दस से लेकर बीस फुट ऊँचे होते हैं और प्रायः उतने ही भूगर्भ में नीचे गहरे धँसे होते हैं । इनमें चींटियों की लाखों प्रजातियों के साथ अन्य जाति के जीव भी पाये जाते हैं । टीले की सबसे निचली सतह पर शंकुदुम की सुइयाँ, सूखी डालियाँ एवं पत्ते बिछे होते हैं । सभी टीले वातानुकूलित होते हैं जिनका निर्माण चींटियाँ मिट्टी के साथ अपने लार मिला कर करती हैं। ऊपर से देखने पर ये सीमेन्ट के बने मालूम पड़ते हैं , पर अंदर से उसे सतत् परिवर्तित किया जाता रहता है, ताकि हवा का प्रवेश अवरुद्ध न हो ।

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि इस प्रकार टीले की मिट्टी बार-बार बदलते रहने से भूगर्भ में जहाँ मिट्टी ज्यादा ठंडी और नमी रहती है, वह ऊपर आ जाती है और उसे पर्याप्त मात्रा में रोशनी और धूप मिल जाती है । ऊपर की गरम मिट्टी नीचे पहुँच जाती है, फलतः अन्दर का भाग वातानुकूलित बना रहता है । इसके अतिरिक्त चींटियाँ धूप स्नान के लिए समूहों में बारी-बारी से ऊपर आती रहती हैं । टीलों का बाह्य आवरण सीमेण्ट जैसा कठोर होने से एक ओर जहाँ वातावरण अनुकूलन की सुविधा मिलती है, वहीं दूसरी ओर चींटियाँ दुश्मनों के आक्रमण से अपनी रक्षा करने में भी सफल होती हैं । आपत्ति का में निकल भागने के लिए भी टीले में समुचित व्यवस्था होती है ।

जीवविज्ञानियों के अनुसार दीमकों के महल तो और भी शानदार होते हैं । इनकी स्थापत्य कला अद्वितीय होती है जिसका केंद्रबिंदु शाही महल होता है जहाँ राजा-रानी निवास करते हैं । इनमें अनेक चैम्बर और दीर्घायें बनी होती हैं । टीलों का स्थापत्य ऐसा होता है कि उनके उत्तर और दक्षिण की बाजुएँ छोटी होती है जिससे अधिक धूप और गर्मी से आसानी से बचा जा सके । अन्य बाजुयें लम्बी रखी जाती हैं जिसके कारण प्रातः एवं सायंकाल के समय सरलतापूर्वक धूप मिलती रहे । इन प्रासादों में हर समय ताजी हवा ऊपर से अन्दर आती रहती है । विषैली गैसें निकलने का भी बढ़िया प्रबंध होता है दीमकों की बेहतरीन अभियाँत्रिकी कला को देखकर अपने को कुशल समझने वाले अभियंता भी हैरान रह जाते हैं ।

जीव−जंतुओं के इस तरह सुव्यवस्थित शिल्पज्ञान एवं विवेकपूर्ण सुविकसित जीवनक्रम का लम्बे समय तक अध्ययन करने के पश्चात् प्रख्यात जीवशास्त्री डा. हेनरी वेस्टन ने लिखा है कि प्रकृति से परे कृत्रिम जीवन जीने वाला मनुष्य अपने से इतर प्राणियों को क्षुद्र समझता है । वह उनकी अपूर्णता पर दया दिखाता और उनकी विवशता पर तरस खाता है, किन्तु यह उसकी जबरदस्त भूल है । वस्तुतः मनुष्य को अपने सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार त्याग देना चाहिए और अन्तःप्रेरणा के आधार पर चलने वाले अपने से छोटे इन प्रकृति पुत्रों से कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । समग्र प्रकृति एक पाठशाला है, व हम विद्यार्थी । यदि सतत् सीखते रहे तो जीवनभर इन प्रकृति पुत्रों से बहुत कुछ पा सकते हैं ।


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