संतुलित उल्लसित जीवन कैसे जियें ?

March 1992

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शरीर और मन का अन्योन्याश्रित संबंध है। दोनों सही स्थिति में रहते हैं और एक दूसरे की सुरक्षा में सहायक बन कर रहते हैं तभी काम चलता है। इनमें से एक के गड़बड़ा जाने पर दूसरा भी कंध डाल देता है। गाड़ी में दो बैल जुतते हैं। इसमें से एक बैल अपना कार्यभार उठाने में असमर्थ बन जाय तो दूसरे को दूना परिश्रम पड़ता है और वह भी डगमगाने लगता है। दो फेफड़े, दो गुर्दे मिलजुल कर अपना काम निपटाते हैं। पर जब उनमें से एक रुग्णता से घिर जाता है तो दूसरे को भी अपना काम ठीक तरह चलाने में असुविधा होती है। इसलिए दोनों की ही स्वस्थता का, स्वच्छता का निरन्तर ध्यान रखने की आवश्यकता है।

छोटी आयु के बच्चे ठीक तरह समझ सोच नहीं पाते, क्योंकि उनका मानसिक विकास तब तक हो नहीं पाता। बुद्धि अपना पूरी तरह काम करने की स्थिति में नहीं होती। परिपक्वता के अभाव में बालक ऐसा ही सोचता और करता है जिन्हें बचकाना कहा जाय।

यही बात बुढ़ापे में भी होती है। काया जीर्ण−शीर्ण हो जाती है। इन्द्रियाँ जवाब देने लगती हैं। पाचन सही नहीं होता और नींद पूरी नहीं आती। फलतः मस्तिष्क पर भी बुरा असर पड़ता है। बुद्धि सठिया जाती है। सरकारी नौकरियों से छुटकारा मिल जाता है। घर के लोग भी उनकी सलाह को कम महत्व देते हैं। चिड़चिड़ाना और भूल जाने की शिकायत शुरू हो जाती है, दुर्बल शरीर उपार्जन के उपयुक्त भी नहीं रहता। कड़ा परिश्रम करने से थकान आती है और खटते रहने पर दुर्बलता रुग्णता में बदलने लगती है। युवावस्था में जो जोश, साहस और बुद्धि का बल रहता है, आयु के ढलने पर वह भी घटता चला जाता है। बच्चों का सा दुराग्रह पनपने लगता है। यह शारीरिक दुर्बलता का मन पर पड़ने लगता है। यह शारीरिक दुर्बलता का मन पर पड़ने वाला प्रभाव है।

मन की स्थिति सन्तुलित न रहने पर शरीर का भी बुरा हाल है। उद्विग्न, विक्षिप्त, चिन्तित, आक्रोशग्रस्त व्यक्ति यदि शरीर से निरोग हो, तो भी उनका शरीर वैसा काम नहीं करता जैसा करना चाहिए। शोक समाचार सुनकर भूख भाग जाती है और सामने परोसी थाली पर हाथ डालने की इच्छा नहीं होती। भले ही पेट खाली हो। क्रोध के आवेश में भी ऐसा ही होता है। कहते हैं कि एक घण्टे का क्रोध चौबीस घण्टे के बुखार जितनी कमजोरी लाता है। चिन्तित और निराश रहने वाला नींद खो बैठता है और दिन-दिन क्षीण होता जाता है। यह मन का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव है।

शरीर स्वस्थ रहे तो मन शुद्ध भले ही न हो पावे, पर सन्तुलित और विचारशील तो बना रहता है।

योजनाएं क्रमबद्ध बनाता है और उन्हें परिश्रमपूर्वक पूरी कर लेता है। भले ही वह निर्धारण अनुचित स्तर का ही क्यों न हो। बीमार और कमजोर आदमी तो चोरी डकैती करने का मन होने पर भी कायिक असमर्थता के कारण वैसा नहीं कर पाता। यही बात पुण्य-परमार्थ के सम्बन्ध में है। उन्हें करने के लिए आत्मसंयम और उदार चेतना की आवश्यकता है। पर रोगी को अपनी ही व्यथा कोंचती रहती है। उस पर स्वार्थ ही छाया रहता है और हर बात के लिए पराश्रित रहने की स्थिति में आत्मग्लानि भी कम नहीं होती । जो उस स्थिति में भी कुछ तो किया ही जा सकता है, पर मानसिक असंतुलन उसे भी ठीक तरह करने नहीं देता ।

गाड़ी के दोनों पहिए सही रहने चाहिए । इसी प्रकार न केवल शरीर को स्वस्थ रखने में पूरी-पूरी सतर्कता बरती जाय, वरन् मन को संतुलित रखने में भी कुछ उठा न रखा जाय ।

शरीर की दुर्बलता एवं रुग्णता दैवी विपत्ति की तरह नहीं घटती वरन् मनुष्य की अपनी बुलाई हुई होती हैं । असंयम शरीर को खाता है । जीभ का चटोरापन और कामुक प्रसंगों में अतिवाद अपनाने से मनुष्य भीतर ही भीतर खोखला हो जाता है । उसका ऊपरी ढकोसला भले ही ज्यों का त्यों दीखे, पर भीतरी जीवनी शक्ति क्षीण होती जाती है । फलतः बाहरी विषाणुओं का आक्रमण आये दिन दबोचता रहता है । असंयम का पेट पर भी कुछ असर पड़ता है । चटोरे व्यक्ति बिना भूख लगे आवश्यकता से अधिक मात्रा में अंटसंट खाते रहते हैं । फलस्वरूप पेट की भट्टी में पूरी तरह परिपाक न होने की स्थिति में रक्तमाँस में अशुद्धता बढ़ती है और न्यूनता पड़ती है । चटोरा अपना पेट खराब करता है और साथ में अनेक बीमारियाँ की कोताही करने के संबंध में भी है । आलसी अकर्मण्य बैठेठाले आराम तलब लोग अपने अवयवों को जंग खाये लोहे की तरह निकम्मा बना लेते हैं । समय पर निर्धारित काम करने की जिनकी रीति-नीति नहीं होती समय का पालन नहीं करते, दिनचर्या बेतुकी-बेढंगी, अस्त-व्यस्त रखते हैं,उनके लिए स्वस्थ रह सकना कठिन पड़ता है । शरीर की प्रकृति ऐसी है कि नियत समय पर नियम कार्य की माँग करती है । यदि उसमें व्यवधान पड़ता है तो शरीर की क्रिया-प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है और शरीर पर रुग्णता छाने लगती है ।

इन साधारण सी बातों का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखा जाय तो मनुष्य आसानी से निरोग रह सकता है और दीर्घजीवी भी बन सकता है । पर नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन अपनाकर कोई अपने पैरों स्वयं ही कुल्हाड़ी मारे, तो उसे आघात से बचाने के लिए दूसरा कोई क्या कर सकता है ?

मन-मस्तिष्क को असंतुलित बनाने में सबसे बड़ा कारण है-आत्म-विश्वास की कमी । जिसमें साहस, स्वावलम्बन, मनोबल नहीं है, वह हितैषी व्यक्तियों पर भी संदेह करता है और आशंका अविश्वास से घिरा रहकर भीतर ही भीतर भयभीत बना रहता है । भले ही उस पर कोई विपत्ति न आये, पर भविष्य में कोई विग्रह खड़ा हो जाने के भय से सदा बेचैनी बनी रहती है । साहस के अभाव में इतना भी सोचते नहीं बन पड़ता कि जब कठिनाई सामने आवेगी तब उससे साहसपूर्वक निपट लिया जायेगा । डरपोक व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियाँ त्रास देती हैं, उससे कहीं अधिक वह आशंकाओं से आतंकित बना रहता है ।

मानसिक उद्विग्नता का दूसरा कारण है, बढ़ी-चढ़ी महत्वाकाँक्षाओं के घटाटोप । लोकेषणा, वित्तेषणा और पुत्रेषणा को भी शान्ति खा जाने वाली डाकिनें माना गया है । बहुत धन होना चाहिए , बड़ा पद मिलना चाहिए । विलास के बढ़े-चढ़े ठाट-बाट हों । ख्याति और सम्मान से अहंकार का पोषण होता रहे, आदि-आदि इच्छायें जब-जब साधारण स्तर से ऊँची उठ जाती हैं तो वे लिप्सा-तृष्णा कहलाने लगती हैं। हर किसी की हर मनोकामना पूरी हो सकना संभव नहीं । वैभव बटोरने के लिए ललकों का उछलते रहना ही पर्याप्त नहीं, वरन् परिस्थितियाँ भी अनुकूल होनी चाहिए । सघन सहयोगी भी उपलब्ध होना चाहिए । यह सब इच्छामात्र से ही उपलब्ध होते रहें , यह आवश्यक नहीं । बढ़े-चढ़े अपने शेखचिल्ली की तरह असफल भी रह सकते हैं और अपमान भी करा सकते हैं । असंतोष की आग से बच सकना उन्हीं के लिए संभव है जो औसत नागरिक भर का निर्वाह पर्याप्त मानते हैं । उन्हीं के लिए यह संभव है कि तृष्णा द्वारा उत्तेजित की गई अनावश्यक महत्वाकाँक्षाओं को काबू में रखकर आय के अनुरूप व्यय का बजट बना सके और स्वल्प-संतोषियों की तरह हँसता-हँसाता जीवन जी सके । ऐसे ही लोग पाप , अनाचार से भी बचे रह सकते हैं और आजीवन शालीनता बनाये रह सकते हैं । अपने से बड़ों की अपेक्षा छोटों के साथ तुलना करते रहने का दृष्टिकोण बना लिया जाय, तो यही अनुभव होगा कि जो उपलब्ध है वह सौ से कम भले ही हो, पर हजार से अधिक भी है । ऐसी मनःस्थिति संतुलित कही जाती है और वह शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए पौष्टिक टॉनिक एवं बचाव की दृष्टि से ढाल का काम करती है ।

शरीर और मन दोनों में से किसी की भी उपेक्षा न की जाय । बहुमूल्य जीवन तभी तक स्थिर है जब तक कि शरीर में प्राणों को धारण किए रहने की क्षमता रहे । जो भी पुरुषार्थ करना चाहते हैं वे स्वस्थ शरीर के सहारे ही बन पड़ते हैं । वह अपना निरन्तर साथ रहने वाला और सेवा निरत रहने में तत्पर सबसे स्वामिभक्त सेवक है । रूखा-सूखा खाकर काम चला लेता है और हर स्थिति में प्रसन्न रह लेता है । ऐसे सन्मित्र के साथ यदि सद्व्यवहार करते रहा जाय , उस पर अनाचार का अवाँछनीय भार न लादा जाय तो अन्य प्राणियों की तरह मानवी काया भी निरोग रह सकती है । स्वस्थ रहने के लिए किन्हीं बड़ी रहस्यों को ढूंढ़ने या रसायनों के सेवन करने की आवश्यकता नहीं है । यदि प्रकृति के संकेतों पर चला जाय, संयम, अनुशासन पाला जाय तो आरोग्य से बिछुड़ने की कभी नौबत न आवेगी, साथ ही मनोबल भी बढ़ेगा । पुरुषार्थ भी जगेगा और चित्त भी प्रसन्न रहेगा ।

मानसिक व्यथायें परिस्थिति जन्य नहीं होतीं । मनःस्थिति के विकृत होने पर ही मनुष्य उद्विग्न होता है और अनेकों दुष्प्रवृत्तियों से घिर जाता है । यदि हलकी-फुलकी जिन्दगी जी जाय और मिलजुल कर सुख बाँटते दुःख बटाते रहा जाय तो चित्त सदा हलका रहेगा ।

मन को इतना नहीं उछलने देना चाहिए कि शरीर को उसके पीछे घिसटना पड़े । शरीर पर असंयम के इतने चाबुक नहीं मारने चाहिए कि वह तिलमिला जाय और जीवन सुख के राजमार्ग पर चलने से इन्कार कर दे । शरीर और मन के बीच परायापन नहीं रहना चाहिए । दोनों एक दूसरे का ध्यान जीवन जिया जाय तो निरोग भी रहा जा सकता है और आनन्दित , उल्लसित भी ।


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