सहानुभूति मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। इस एक विशिष्ट गुण का विकास करके मनुष्य देवत्व के पद पर पहुँच सकता है। प्रेम अथवा सहानुभूति में वह शक्ति तथा ऊष्मा है कि कठोर हृदय को भी नम्रता के साँचे में ढाल देती है। उसकी शीतल और मनोरंजक लहरें दुखी आत्माओं में प्रसन्नता की झलक ला देती हैं। इसी हमदर्दी और सम्वेदना के बल पर मनुष्य दूसरों को भी अपना बना लेता है। कठोर को कोमल निर्दयी को दयावान, शत्रु को मित्र बना लेना सहानुभूति-हृदयी व्यक्ति को अधिक सरल तथा सुगम है। जिस भी व्यक्ति के अन्दर यह प्रचुर मात्रा में विद्यमान है वही उन्नति के शिखर पर होगा।
जिसके हृदय में सच्ची सहानुभूति है, वह दूसरों को प्यार, आत्मीयता और ममता से देखेगा तो वह अपने ही दिखाई पड़ेंगे। अपने छोटे से कुटुम्ब को देखकर हर कोई आनन्दित होता है। यदि हम दूसरों को अपने परिवार परिकर से बाहर वालों को भी उसी सहानुभूति की दृष्टि से देखने लगें, तो वे भी अपने ही घनिष्ठ प्रतीत होंगे। हम अपने कुटुम्बियों के जब अनेक दोष, दुर्गुण बरदाश्त करते हैं, उन्हें भुलाते, छिपाते और क्षमा करते हैं, तो फिर बाहर वालों के प्रति वैसा क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसी सहानुभूति प्रदर्शित करने वाला व्यक्ति ही उच्चकोटि की श्रेणी में गिना जायेगा।
आजकल की सभ्यता में सहानुभूति दिखाने का दूसरा ही ढंग चल पड़ा है। लोग पीड़ित अथवा दुखी व्यक्ति के पास जाकर उसकी वेदना, दुख अथवा दर्द के विषय में पूछताछ करते हैं। वाणी द्वारा इस प्रकार मात्र पूछ लेना ही वास्तविक सहानुभूति नहीं कही जा सकती। सच्चे सहानुभावक को किसी का दुख-दर्द पूछने की आवश्यकता नहीं होती, वरन् उसके हृदय से स्नेह का अजस्र स्रोत निकल कर चुपचाप पीड़ित को शाँति एवं सान्त्वना देने लगता है।
वस्तुतः कृत्रिम सहानुभूति दिखाना पीड़ित के प्रति कठोरता या निर्दयता का व्यवहार ही कहा जा सकता है। जो मनुष्य किसी के दुख-दर्द को सच्ची सहानुभूति के रूप में न पूछ कर केवल अपनी मौखिक हमदर्दी दिखाता है, उसके सम्बन्ध में निःसन्देह यही निश्चय कर लेना चाहिए कि वह अपने घड़ियाली आँसू बहाकर पीड़ित व्यक्ति की सद्भावना को ठगने में प्रयत्नशील है।
सच्ची सहानुभूति का प्रसार सीमित नहीं, वरन् विश्वव्यापी है। इसकी करुणा, कोमलता तथा दया का प्रवाह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन, राष्ट्र धर्म, काले-गोरे, ऊँच-नीच, निर्बल-सबल में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानती। सभी के लिए समान रूप से बहती है। उदार और श्रेष्ठ आत्मायें तो शत्रु की विपत्ति से भी विचलित न होकर सहानुभूति के साथ सहायता करने के लिए उत्सुक हो उठती हैं। ऐसी ही सहानुभूति सराहनीय है।
ऐसी सहानुभूति सराहनीय नहीं जो केवल हृदय की भावुकता तक सीमित रहे। वह सजीव होते हुए भी जड़ ही मानी जायगी। किसी की पीड़ा को देखकर अवाक् रह जाना और खड़े-खड़े आहें भरना समझी जा सकती है जब दुखियों का दुख निवारण करने में यथासाध्य कुछ किया जावे। यही सहानुभूति सराहनीय है और श्रेष्ठ भी। यह विभूति जिसके भी पास होगी, वह मात्र भावमुद्रा प्रदर्शित करके निष्क्रिय न रह जायगा, वरन् सेवा-सहायता के लिये भी आगे बढ़ेगा। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों की ओर, जिनमें जीवन्त सहानुभूति की प्रधानता है, पीड़ित और निराश व्यक्ति सहज ही आकर्षित होते और आशा तथा उत्साह का प्रकाश पाकर दुखदायी परिस्थितियों से लोहा लेते हैं।