प्रसन्नता की कुंजी

March 1992

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दुःख संसार में बहुत है । जीवन में ऐसी अगणित समस्यायें हैं जो मनुष्य को खिन्न करती हैं । सुख और प्रसन्नता देने वाले अवसर तो कभी-कभी ही आते हैं । अन्यथा ऐसी उलझनें ही सामने खड़ी रहती हैं जो हैरानी अनुभव कराती रहती हैं । इस बहुसंख्यक कठिनाइयों से क्या किसी प्रकार बचा जा सकता है ? क्या कोई ऐसा भी उपाय है जिसके आधार पर प्रसन्नता बनी रहे ? खिन्नता से पीछा छूटा रहे ?

इस संदर्भ में गीताकार ने एक नुस्खा बताया है उसे कोई भी परख सकता है । जो भी परखेगा वह उसे सही पावेगा । गीता कहती है-

प्रसादे सर्वदुःखानाँ हानिरस्योपजायते । प्रसन्न चेतसो ह्याशु ,बुद्धि पर्यवतिष्ठति । ।

अर्थात् प्रसन्न रहने से समस्त दुःखों का निवारण हो जाता है । चित्त को प्रसन्न रखने से बुद्धि स्थिर, स्थायी हो जाती है । वह डाँवाडोल नहीं होती ।

जहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रसन्न रखने वाली सुखद परिस्थितियां हों तब, न मन प्रसन्न रहेगा । अथवा मन को प्रसन्न रखने से दुःखों की हानि होगी । यह बात तो समक्ष में आती है कि प्रसन्नतादायक परिस्थितियाँ हों, सुखद, अनुकूल, श्रेय सफलता से भरे अवसर हों, तो चित्त प्रसन्न रहे । पर यह समझना कठिन पड़ता है कि चित्त को प्रसन्न रखने का स्वभाव बना लिया जाय तो दुःखों का समापन हो जाता है । प्रश्न कठिन है, और समझ में आने वाला भी, पर जो इसका प्रयोग परीक्षण करके देखेंगे उन्हें तथ्य की सचाई में कोई संदेह प्रतीत न होगा ।

स्वभाव बना लेना अपने हाथ की बात है । वह अभ्यास से बन जाता है । कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो रूखे , नीरस, उदास स्वभाव के होते हैं । परिस्थितियाँ अनुकूल ही क्यों न हों, पर उनके चेहरे पर सदा उदासी ही छाई रहती है, गंभीर मुखमुद्रा बनाये रहते हैं, भंवें चढ़ी रहती हैं । मस्तक पर झुर्रियाँ खिंची रहती हैं । ऐसा लगता है कि यह किसी से लड़कर आये हैं अथवा इनसे कोई लड़ा है । इन्हें किसी बड़े घाटे का सामना करना पड़ा है । घाटा हो चुका है या होने वाला है । कारण पूछने पर वे ऐसा कुछ कारण बता नहीं पाते जिससे वे परेशानी में फँसे मालूम पड़ते हैं । यह स्वभाव ही है जो बहुत दिन के अभ्यास से पड़ जाता है ।

स्वभाव और आदत एक ही बात है । बहुत दिन किसी काम को करते रहने से उस काम की आदत पड़ जाती है । लुहार इतना भारी हथौड़ा दिन भर चलाते हैं, पर हाथ में दर्द नहीं होता । यदि वैसी आदत न हो, कोई व्यक्ति अनायास ही एक दिन उतना हथौड़ा चलावे तो हाथ में दर्द होने लगेगा । पहलवानी करने वाले ढेर सारे दण्ड बैठक करते हैं, पर उन पर कोई दबाव नहीं पड़ता, किन्तु कोई अजनबी आदमी अचानक एक दिन उतनी कसरत करे तो फिर सारे शरीर में दर्द होने लगेगा । दर्द के मारे उठना बैठना तक कठिन हो जायगा । यह आदत की बात है । इसी प्रकार नशे की आदत होती है । पीने वाले एक-एक बोतल चढ़ जाते हैं, पर नया आदमी एक दिन उतनी पी बैठे तो लेने के देने पड़ जायेंगे यह बात स्वभाव के संबंध में भी है । नाराजी , खीज, उदासी आदि की भी आदत होती है । आवश्यक नहीं कि कोई निमित्त कारण वैसा हो । अकारण ही स्वभाववश झल्लाहट का स्वभाव बन जाता है । कितने ही बच्चों को रोने की आदत पड़ जाती है । बिना किसी कष्ट के भी वे रोते रहते हैं । इसी प्रकार हँसने मुस्कराने का स्वभाव भी है जो अभ्यास करने से आदत में सम्मिलित हो जात है । चेहरे की माँसपेशियाँ इस प्रकार ढल जाती हैं कि साधारण रीति से बात चीत करने पर भी ऐसा लगता है मानो हँस या मुस्करा रहे हैं ।

हर आदत का अभ्यास करना पड़ता है । इसमें समय लगता है । आरंभ में उसका ध्यान रखना पड़ता है कि इच्छित आदत के अनुरूप मुखाकृति बन रही है या नहीं । इसके लिए दर्पण की सहायता ली जा सकती है । अकारण हँसने-मुस्कराने का अभ्यास शीशे के सामने खड़े होकर किया जा सकता है । कुछ समय उपरांत वैसी आदत पड़ जाती है और बिना किसी प्रयत्न के अनायास ही चेहरे की माँसपेशियाँ, होंठ, दाँत सब इस ढाँचे में ढल जाते हैं कि चेहरा हँसता मुसकराता दृष्टिगोचर हो ।

ऐसी आकृति का चेहरा सामने वाले को देखने में बहुत सुन्दर लगता है । उसे प्रतीत होता है कि इसे किसी लाभदायक परिस्थिति में रहने का अवसर मिला है । ऐसे आदमी के समीप रहने का , बात करने का, दोस्ती बढ़ाने का हर किसी का मन होता है । सामने वाले की प्रसन्नता देखकर अपनी प्रसन्नता बढ़ती है अपनी बढ़ने से सामने वाले की । इस प्रकार एक चक्र बन जाता है ।

इसके विपरीत यदि खीज, उदासी की आदत हो तो अपना चेहरा देखकर सामने वाले को उदासी आवेगी । सामने वाले से अपनी । यह भी एक चक्र बन जाता है । उदासी, असफलता का , खिन्नता का चिन्ह है जिसके बारे में ऐसा अनुमान होता है कि यह किसी हैरानी में फँसा हुआ है उससे हर आदमी बचने की कोशिश करता है उसे अभागा या मूर्ख मानता है । सोचता है कि इसकी मुसीबत में हमें भी हिस्सेदार बनना पड़ सकता है । ऐसा सोचकर हर आदमी उससे बचने की , दूर रहने की कोशिश करता है। ऐसी मुखमुद्रा नाराजी की सूचक है । जो अपने से नाराज है उससे अपनी भी नाराजी क्यों न हो । यह भी एक चक्र है जो समूचे वातावरण को बिगाड़ देता है । अकारण ही वातावरण में विषाक्तता भरती है । उसका परिणाम अपने लिए अनेक प्रकार से अहितकर ही होता है ।

सुख और दुःख परिस्थितियों पर उतना निर्भर नहीं, जितना मनःस्थिति पर । मनःस्थिति में यदि प्रसन्नता का पुट हो तो छोटी-छोटी विपत्तियों का पता भी नहीं चलता । वे ऐसे ही हँसी मजाक में हलकी फुलकी होकर उतर जाती हैं । बड़ी विपत्ति हो तो भी आधी रह जाती है । विपत्ति में भी जो मुसकराता रहता है उसे धैर्यवान, हिम्मतवाला, दूरदर्शी माना जाता है । उसका वजन हर किसी की आँखों में बढ़ जाता है । उसकी सहायता करने की, सहानुभूति प्रदर्शित करने की हर किसी की इच्छा होती है ।

मनोविज्ञानी और शरीरविज्ञानी कहते हैं कि हँसने मुस्कराने की आदत स्वास्थ्य को अच्छा रखने एवं सुधारने की दृष्टि से रामबाण औषधि के समान है । इससे हृदय, मस्तिष्क तो बलवान रहता ही है , पाचन तन्त्र, श्वासतन्त्र, आंतें आदि सभी ठीक रहते हैं । यदि कारणवश कोई मशीन खराब भी हो जाय तो उसे ठीक होने में देर नहीं लगती । न डॉक्टर की जरूरत पड़ती है, न हकीम की । न इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं न कैप्सूल निगलने पड़ते हैं । रोग का कायदा यह है कि वह हँसने मुस्कराने वाले के पास या तो आता ही नहीं या फिर ठहरता नहीं ।

मनोविज्ञानी कहते हैं कि प्रसन्नचित्त व्यक्ति का मानसिक विक्षेप नहीं होता । बुद्धि का डाँवाडोल होना मनुष्य की सबसे बड़ी हानि है । अर्धविक्षिप्त आदमी सही निर्णय नहीं ले सकता । विचारतन्त्र ही जिसका गड़बड़ा गया है वह कभी सही निर्णय नहीं ले सकता । जिसके सही निर्णय नहीं है वह किसी गुत्थी को सुलझा नहीं सकता । कोई महत्वपूर्ण कदम सही रूप में नहीं उठा सकता । यदि सही कदम नहीं उठाया गया है तो सीधे सरल कामों में भी सफलता नहीं मिल सकती।

मनुष्य शरीर साढ़े पाँच फुट लम्बा तथा एक सौ तीस पाउण्ड भारी होता है । सबके हाथ पैर, नाक कान एक जैसे होते हैं । आदमी-आदमी में साधारणतया कोई फर्क नहीं होता । फर्क केवल अकल का होता है । उसी के कारण कोई बुद्धिमान कोई मूर्ख, कोई महान, कोई क्षुद्र, कोई धनी, कोई निर्धन, कोई सफल, कोई असफल होता है । इस बुद्धितन्त्र का सही गलत होना इस बात पर निर्भर है कि व्यक्ति

संतुलित है या नहीं । मानसिक संतुलन का एक ही चिह्न है कि चेहरे पर उदासी, निराशा, खीज चढ़ी हुई है या हर स्थिति में मन स्थिर और बुद्धि संतुलित है ।

बात घूम फिर कर वहाँ आती है कि सफलता-समृद्धि हस्तगत होने पर मनुष्य प्रसन्न रहे अथवा प्रसन्न रहने की आदत होने पर व्यक्ति हर दृष्टि से सही सुदृढ़ और सुनिश्चित रहे । दोनों में से कौन सी बात सही है ? इसका उत्तर देते हुए गीता में भगवान ने कहा है कि प्रसन्न रहने वाले के समस्त दुःखों का निवारण हो जाता है । उसकी बुद्धि स्थिर रहती है । इतना जिसे उपलब्ध है समझना चाहिए कि उसे सब कुछ उपलब्ध है । प्रसन्न रहने की आदत डालना अपने हाथ की बात है । इच्छित सफलतायें मिलने पर जो प्रसन्न रहने का इच्छुक है उसे सदा निराश ही रहना पड़ेगा । पर जो प्रसन्न रहने की आदत का अभ्यास कर लेगा उसे किसी बात की कमी न रहेगी । न उसे दुःख शोक हैरान करेंगे और न बुद्धिभ्रम का शिकार होना पड़ेगा ।


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