अपनों से अपनी बात:- - साँस्कृतिक नवोन्मेष ही नवयुग का आधार खड़ा करेगा

March 1992

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भारतीय संस्कृति उस आदर्शवादी क्रियापद्धति का नाम है जो सामूहिक जीवन में आत्मीयता, उदारता, सेवा भावना सहकारिता का वातावरण उत्पन्न करने का शिक्षण देती है। यह क्रियाप्रणाली भारतभूमि में निवास करने वाले देवमानवों की रही, इसीलिये यह धरती स्वर्ग कहलायी व यहाँ रहने वाले महामानव-देवपुरुष कहलाये। संस्कृति शब्द का अर्थ होता है “परिष्कृति” कच्ची अनगढ़ वस्तुओं को कुशलतापूर्वक सुधारकर उनका परिष्कार कर उन्हें सुगढ़ आकर्षक व उपयोगी बनाने की प्रक्रिया को संस्कृति कहा जाता है। भारतीय संस्कृति मानवीचेतना पर जन्म जन्मांतरों से चढ़े पशु संस्कारों का निराकरण कर उन्हें देवत्व के पथपर चलना सिखाती है। यह विशेषता किसी और सभ्यता या संस्कृति में देखने में नहीं आती। मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की क्षमता से ओतप्रोत इस देवसंस्कृति को विश्वसंस्कृति नाम इसी कारण दिया गया क्योंकि यह प्रकाश कभी भारत तक सीमित

“देवसंस्कृति विस्तार”वर्ष में विश्वभर में महोत्सवों की धूम

न रहकर सारी विश्व वसुधा में फैला व सर्वजनीन बना।

सबसे बड़ी विशेषता जो हम भारतीय संस्कृति में देखते हैं, वह है विचार स्वातंत्र्य। हर किसी प्रकार की विचार पद्धति के विकास की ऋषि-मुनि गणों ने पूरी छूट देते हुए इसे एक उदार व विराट रूप दिया। सारे मत-मतान्तर वाले इस संस्कृति के झण्डे तले पनपे व पुष्पित पल्लवित हुए हैं। आस्तिकवाद व नास्तिकवाद दोनों को ही हमारी संस्कृति में स्थान प्राप्त है। भक्तिवाद भी यहाँ है, वेदान्त का “जीवों ब्रह्मेव नापर” वाला तत्वदर्शन भी तथा चार्वाकवाद भी। जैन धर्म -बौद्धधर्म ईश्वर को मान्यता नहीं देते परन्तु फिर भी वे सभी भारतीय संस्कृति के सम्मानित सदस्य हैं। साकार एवं निराकार ईश्वर की परिकल्पना की संस्कृति में पूरी छूट है। सगुण ईश्वर की कल्पना में इतनी छूट दी गयी कि हर व्यक्ति अपनी रुचि के अनुरूप अपनी कल्पना के अनुरूप अपना भगवान निर्धारित करता हुआ आस्तिक बना रह सकता है। हर मनुष्य का इष्टदेव भिन्न-भिन्न हो सकता है, यह मान्यता व इस कारण आस्तिकता की, परमतत्व में आस्था की, भावना न केवल भारतीय संस्कृति ने अपने यहाँ जिन्दा रखी, अन्यान्य दर्शनों को प्रभावित कर उनके यहाँ भी नास्तिकता को पनपने से रोका। विचार स्वातंत्र्य के कारण ही सत्य की शोध के विभिन्न प्रयोगों की भारत वर्ष में अनादिकाल से गुँजाइश रही। यही कारण था कि इतने धर्म-सम्प्रदाय मत मतान्तर पंथ हमारे यहाँ पनपते चले गए। अन्याय संस्कृतियों में उन्हें बलात् दबाया कुचलाया गया पर देवसंस्कृति की उदारता ही थी जिसने सभी को एक समान स्थान दिया।

भारतीय संस्कृति बुद्धि क्षेत्र के प्रज्ञा ताँत्रिक पक्ष को प्रधानता व प्रश्रय देती आयी है। जहाँ अन्य धर्म एक ही पैगम्बर, एक ही धर्मशास्त्र, एक ही विधान को मान्यता देते आए हैं एवं अधिनायकवाद-तानाशाही-धर्मान्धता को जन्म देते हैं, वहाँ भारतीय संस्कृति के मनीषी वैज्ञानिक ढंग से विचार कर जनमानस की प्रबुद्ध चेतना, विवेक बुद्धि पर यह निर्णय छोड़ देते हैं कि वह जिसे उपयुक्त समझे, अपनाये। इसी कारण नास्तिकवादी व्यक्तियों को भी भारतीय संस्कृति का अंग बनने की छूट है जबकि अन्य धर्मों में उनके लिए द्वार बन्द है।

एक सबसे महत्वपूर्ण विशेषता जो भारतीय संस्कृति व धर्म−दर्शन की सब एक स्वर से स्वीकार करते हैं, वह है जीवन की अखण्डता और निरन्तरता को मानते हुए उसे यहाँ के व्यक्तियों द्वारा दैनंदिन व्यवहार में परिलक्षित करना। जीवन की अखण्डता से तात्पर्य है पिण्ड व ब्रह्माण्ड में एक ही चेतन प्रवाह को स्वीकार करते हुए प्राणियों चर-अचर अप्राणियों को परस्पर संबद्ध मानना। अद्वैत को मान्यता देते हुए व्यष्टि व समष्टि प्रवाह का संबंध स्थापित कर आज की अनेकानेक समस्याओं का, जिनमें पर्यावरण संकट भी है, हल निकाला जा सकता है। जीवन की निरन्तरता स्वीकारने वाला इस संस्कृति का अनुयायी यह मानता है कि मृत्यु एक रूपांतरण प्रक्रिया मात्र है। वह अन्त नहीं है। कर्मफल की मान्यता व पुनर्जन्म का सिद्धान्त एक विज्ञानसम्मत चिन्तन है जो भारतीय संस्कृति से ही उपजा है। यही आज की नैतिक मूल्यों के ह्रास से पनपी आस्था संकट की समस्या का समाधान भी है। जीवन की निरन्तरता को मानने का अर्थ यह है कि हम जो भी कुछ करते हैं, सोचते हैं, वह कभी नष्ट नहीं होता। उसका फल निश्चय ही मिलता है।

अद्वैतवाद, जन्मान्तरवाद के बाद भारतीय संस्कृति कर्मवाद की प्रेरणा भी देती है। कर्म का सिद्धान्त जो हिन्दूदर्शन में प्रतिपादित है, उसमें नियतिवाद को कोई स्थान नहीं है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है व अपने संकल्प के द्वारा उसे जैसा चाहे बना सकता है यह दर्शन व व्यवहार देवसंस्कृति में ही देखने को मिलता है। मनुष्य को ऋषिगण यह भी बताते आए हैं कि कर्मवाद का अर्थ होता है अपने संकल्पों से कर्म करते हुए कर्म के फल को त्यागना व इस प्रकार उससे लिप्त न होना। कर्म के फल का विराट पुरुष को समर्पण किया जाय, यह अभ्यास देवसंस्कृति की विभिन्न शिक्षाओं के माध्यम से सतत् कराया जाता है व यही इसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है।

यजुर्वेद (714) में एक पद आता है-”सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा” अर्थात् यह प्रथम संस्कृति है जो विश्वव्यापी बनी। सृष्टि के आरंभ में संभव है छिटपुट संस्कृतियों का उद्भव हुआ हो जो वर्ग विशेष, काल विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी रही हों। उन सभी को पीछे छोड़कर भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई कि उसे सारे विश्व की संस्कृति कहा जा सके। यही हुआ। सर्वसाधारण ने उसकी सर्वोच्चता-सर्वश्रेष्ठता को स्वीकारा। इतिहास न माने तो भी तथ्य एक ही है जिसे कोई नकार नहीं सकता। वह यह कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएँ भारतीय संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएँ भारतीय संस्कृति में समग्र रूप में विद्यमान हैं। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए शब्द आता है “कल्चर”। उसका शब्दार्थ भी वही कहता है जो उसका संस्कृत में अभिप्राय है-अस्तव्यस्तता को अनगढ़ता को मिटाकर व्यवस्था के, सुगढ़ता के, निर्माण के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों को कल्चर कहते हैं। संस्कृति शब्द का यही अर्थ भारतीय संस्कृति में चरितार्थ होता दीखता है जब वह बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार क्षेत्र में छाई कुसंस्कारिता का विच्छेदन कर सुसंस्कारिता की संस्थापना की बात कहती है। विश्व संस्कृति होने के नाते उससे आज सबको अपेक्षा भी यही है।

यहाँ भारतीय संस्कृति के विवेचन से तात्पर्य विगत की महत्ता का गुणगान मात्र नहीं है जो समसामयिक संदर्भों में समस्या का समाधान दे व युगानुकूल हो, उसे पर्याप्त सम्मान दे अपनाया ही जाना चाहिए। किन्तु विडम्बना एक ही है कि जहाँ देवसंस्कृति जन्मी-पनपी पूरे विश्व में फैली वहीं पर भारतभूमि पर साँस्कृतिक दासता का निविड़ अंधकार ही चारों ओर दिखाई देता है। पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण की प्रवृत्ति ही समाज में छाई दिखाई देती है। मध्यकाल में जोड़ी गई विकृतियों से पनपी भ्रान्तियों के निवारण का तो कोई प्रयास नहीं किया जाता, उलटे उनकी विस्तार से चर्चा कर हिंदू धर्म दर्शन को, प्रतिगामी ठहराने की कोशिश की जाती है। विदेशी आक्रान्ताओं ने भाग्यवाद, ईश्वर इच्छा, पलायनवाद, मायावाद, कर्म-संन्यास जैसे पक्षों को मिलाकर जनमानस को मूर्च्छित व कायर बना दिया ताकि इन्हीं मान्यताओं में उलझा भारतीय चिन्तन कभी विकास पथ पर बढ़ने न पाए। शाश्वत चिन्तन सत्य पर छाए इन आवरणों को हटाने का प्रयास जो किया जाना चाहिए था, वह पूरी विश्व मान्यता के हित में था। किन्तु छिटपुट कोशिशों के अलावा यहाँ पाश्चात्य संस्कृति भोगवादी चिन्तन व पलायनवादी विचारधारा ही पनपती रही है व इसमें हममें से प्रत्येक का योगदान रहा है, यह कड़ुआ सत्य सबको स्वीकार करना चाहिए।

अँग्रेजों के भारत में प्रवेश के बाद से अबतक कोई समूहबद्ध प्रयास ऐसा नहीं हुआ, जिसमें उनके द्वारा फैलाये गए षड़यंत्र से मुक्ति दिलाने की कोशिश की गयी हो। शिक्षा क्षेत्र से लेकर नौकरी व नेतृत्व तक व संगीत कला से लेकर साहित्य तक सब ओर अंग्रेजियत का वर्चस्व छाया दिखाई देता है तो उसमें हम सभी का यत्किंचित् योगदान अवश्य है। अच्छाई हर संस्कृति से, सभ्यता से, ली जानी चाहिए पर अपनी मूल थाती को तो नहीं भुलाया जाना चाहिए। विगत दो हजार वर्षों में यही होता रहा है। अब प्रायश्चित का समय आया है।

परमपूज्य गुरुदेव को हम सभी “संस्कृति पुरुष” के रूप में मानते हैं। उनने अपना सारा जीवन देवसंस्कृति के निर्धारणों को जन-जन तक विस्तार करने में होम कर दिया। भारतीय संस्कृति उनके रोम रोम में श्वास-श्वास में विद्यमान थी। इसी के आधार पर उनने हम सभी को, पूरी विश्वमानवता को सतयुग की वापसी का स्वप्न दिखाया व सारे निर्धारण बनाकर वे सूक्ष्म शरीर को प्राप्त हो वातावरण बनाने हेतु चल गए। उनने ऋषि संस्कृति, देवसंस्कृति का मात्र दर्शन पक्ष ही प्रतिपादित नहीं किया, वरन् उसे व्यवहार में कैसे उतारा जाय यह अपने जीवन के साथ लाखों व्यक्तियों के जीवन में चरितार्थ कर दिखाया। यदि हमें नवयुग की आधारशिला इस बदलती संक्रमण वेला में रखनी है तो पुनः भारतीय संस्कृति को विश्वसंस्कृति बनाकर ही यह संभव हो सकेगा।

इसके लिए निर्धारण यह किया गया है कि एक विराट स्तर पर “शपथ समारोह” परमपूज्य गुरुदेव की द्वितीय पुण्यतिथि पर 8, 9, 10 जून की तारीखों में शाँतिकुँज में आयोजित होगा। जिस प्रकार रावी तट पर काँग्रेस के चुने हुए संकल्पवानों ने राष्ट्र को स्वतंत्रता दिलाने की शपथ ली थी, उसी प्रकार गंगातट पर सप्तर्षियों की तपःस्थली इस देवभूमि में युग के विश्वमित्र की कार्यस्थली में सभी संकल्पनिष्ठ प्रज्ञापरिजन शपथ लेंगे कि राष्ट्र को साँस्कृतिक दासता से मुक्ति दिलाकर भारतीय संस्कृति का प्रकाश आगामी नौ वर्षों में हम विश्व के कोने-कोने में पहुँचा देंगे। शक्ति−संचार साधना में भाग लेने वाले उन सभी संकल्पनिष्ठों को जो अपना समय समाज व संस्कृति के लिए निकालेंगे, इसी निमित्त जुटाया जाएगा व यह वर्ष विशेष रूप से देव संस्कृति विस्तार वर्ष के रूप में मनाया जाएगा।

इसके लिए कई प्रकार के निर्धारण किए गए हैं। पहला तो यह कि शाँतिकुँज में तीन मास का प्रखर प्रशिक्षण देवसंस्कृति के पाठ्यक्रम के आधार पर चलेगा, जिसमें देवसंस्कृति के उद्धार हेतु निष्ठावान परिजन भाग लेंगे। जो यहाँ न आ सकें, उन्हें पत्राचार द्वारा प्रशिक्षण दिया जा सके इसकी सुविधा दी जाएगी। दूसरा यह साँगोपाँग विवेचन जिसके आधार पर देवसंस्कृति कभी विश्व संस्कृति बनी थी व अगले दिनों बनेगी, अखण्ड-ज्योति के विशेषाँकों के रूप में जून माह से दिसम्बर 92 के अंकों में प्रकाशित होगा। कलेवर उनका यथावत ही रहेगा, परन्तु सामग्री साँस्कृतिक मार्गदर्शनपरक होगी।

तीसरा निर्धारण यह किया गया है कि भारत के सभी महानगरों व बड़े नगरों में विराट स्तर पर संस्कार महोत्सवों का आयोजन होगा, जिनमें देवसंस्कृति के सभी निर्धारणों का प्रदर्शनात्मक शिक्षण होगा व महत्वपूर्ण संस्कार उनमें संपन्न किये जायेंगे। विदेशों में भी इसी प्रकार महोत्सवों के आयोजन होंगे। भारत में तो ये आयोजन शारदेय नवरात्रि से आरंभ होंगे। विदेश के लिए शाँतिकुँज की टोली के मार्गदर्शन में ये आयोजन इस वर्ष एक मई से ही आरंभ हो जाएँगे व इनकी शृंखला आगामी वर्ष वसन्तपर्व तक चलेगी। प्रायः देशों में निर्धारित चौबीस इन आयोजनों द्वारा निश्चित ही पूर्व की ओर ताकती मानवजाति को समग्र विश्व की मनीषा को एक नया मार्गदर्शन मिलेगा, कराहती मानवता को एक नया जीवन मिलेगा।

भारत से बाहर आयोजित इन कार्यक्रमों की तिथियाँ इस प्रकार हैं-यू. एस.ए. में 9, 10 मई (लॉसएंजेल्स), 16, 17 मई (ह्यूस्टन टेक्सास), 30, 31 मई (न्यूयार्क), 4, 5 जुलाई (शिकागो), 18, 19 जुलाई (डेट्रायट), 25, 26 जुलाई ओकलाहोमा। कनाडा में 1, 2 अगस्त माँट्रियल तथा 8, 9 अगस्त टोरोण्टो। डेनमार्क में 13 अगस्त कोपेनहेगन। पुर्तगाल में 15, 16 अगस्त लिस्बन। नीदरलैंड में 22, 23 अगस्त में एम्स्टर्डम में।

यू.के. (इंग्लैण्ड) में 5, 6 सितम्बर-लन्दन, 18, 19, 20 सितम्बर कम्बी 25, 26, 27 सितम्बर लीस्टर तथा 3, 4 अक्टूबर मेनचेस्टर। मारीशस में 12, 13 दिसम्बर पोर्टलुई। साउथ अफ्रीका में 19, 20 दिसम्बर जोहान्सवर्ग तथा 26, 27 दिसम्बर डर्बन में। आगामी वर्ष 1993 में जिम्बाब्वे (हरारे) में 2, 3 जनवरी, जम्बिया (लुसाका) में 9, 10 जनवरी तंजानिया में दारएस्स्लाम में 16, 17 जनवरी तथा 23, 24 जनवरी अऊशा में केन्या में 30, 31 जनवरी नैरोबी तथा 6, 7 फरवरी को मोम्बासा में।

विश्वामित्र, वशिष्ठ, जमदग्नि, कश्यप, याज्ञवल्क्य, धौम्य, पिप्पलाद जैसे ऋषिगणों तथा आद्यशंकराचार्य, कुमारिल, नानक, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थ, तुलसी, कबीर, मीरा, चैतन्य, दयानंद, जलाराम, नरसी मेहता व विवेकानन्द जैसे संतों ने जिस भारतभूमि में देवत्व की स्थापना कर उसे समय-समय पर जीवन दिया, वह आज जिस स्थिति में पहुँचने को नियति के द्वारा संकल्पबद्ध है, सतयुग की पुनः वापसी के प्रज्ञा परिवार के प्रयासों द्वारा अगले दिनों वह निश्चित रूप से उस लक्ष्य तक पहुँचेगी, उसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए।

*समाप्त*


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