हठधर्मिता से परे एक ध्रुव सत्य.

March 1992

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पति-पत्नी दोनों अपने बच्चे की ओर अचरज से ताकने लगे। निशादेवी साँवले रंग की सितारों जड़ी चादर समूची धरती पर फैलाती जा रही थी। इस अनोखी चादर के फैलाव की तरह इनका आश्चर्य पता नहीं कब तक बढ़ता रहता पर अचानक सहकारी की आवाज ने उन्हें चौंका दिया। ‘डॉक्टर! इस एक शब्द ने जैसे जुड़ती चली जा रही विचारों की कड़ियों को एक बारगी बिखरा दिया। वे आगन्तुक की ओर देखने लगे। पाँच वर्ष का वह सलोना बालक इस सबसे बेखबर कुछ कहे जा रहा था।

यह कौन सी भाषा बोल रहा है? डॉक्टर ने अपने सहयोगी की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। सहयोगी वैज्ञानिक होने के साथ कई भाषाओं का जानकार था। उनके कथन में अपने सहकारी के प्रति विश्वास था। मैं कुछ कुछ अधिक जानता समझता तो नहीं, पर इतना बता सकता हूँ यह शुद्ध संस्कृत बोल रहा है।

डॉक्टर ह्यूमवान एरिच के पूर्व पुरुष इटली से अमेरिका आये थे। उनकी पत्नी भी इटेलियन है। जहाँ तक डॉक्टर की जानकारी है दम्पत्ति में किसी की चार छः पीढ़ियों में से कोई संस्कृत का ज्ञान कहाँ से मिला? समस्या जटिल थी। इसके अतिरिक्त और क्या किया जा सकता था कि बच्चे की बात को टेप कर लें और उसका अनुवाद प्राप्त करने का प्रयत्न करें।

बच्चा स्वयं अपनी बात का अनुवाद अपने पिता को बतला रहा था और जब संस्कृत में बोली उसकी बातों का टेप अनुवाद के लिए भेजा गया, तब अनुवाद आने पर इस बात की पुष्टि हो गई कि बच्चा अपना अनुवाद ठीक करता है।

“मैं एक भारतीय योगी हूँ। मेरा नाम ज्ञाननाथ है। काँगड़ा (भारत) से थोड़ी दूर मेरी कुटी है। एक बार दो अमेरिकन यात्री मिले थे मुझे। उनके संग से मुझे अमेरिका देखने की इच्छा हुई। यह इच्छा बनी रही और शरीर छूट गया। मुझे यहाँ के दो-चार बड़े नगर दिखा दीजिए फिर मैं भारत जाकर अपनी साधना पूरी करूंगा।’ बच्चे की सब बातों का यही साराँश था।

बच्चे को वैज्ञानिकों-मनोवैज्ञानिकों तथा शरीर विशेषज्ञों की देख-रेख में रखा गया। संस्कृत के ज्ञाताओं ने उससे पूछ-ताछ की। बच्चा काँगड़ा के आस-पास के स्थानों, निवासियों रीति रस्मों का ठीक-ठीक वर्णन करता था। वह कहता था कि उसने काशी में संस्कृत पढ़ी है। उसके पिता के घर कोई नहीं है। नाथ मार्ग के किसी योगी से उसने दीक्षा ली थी। सबसे विचित्र बात यह कि वह अब बड़े सबेरे अँधेरा रहते ही स्नान करना चाहता था। स्नान करके फर्श पर बैठकर आंखें बन्द करके पता नहीं क्या करता रहता था देर तक और कभी-कभी जोर से चिल्लाकर बोलता था “अलख!”

आनुवांशिकी के वैज्ञानिक हयूमवान अच्छी तरह जानते थे, माता-पिता के द्वारा जब प्रथम दिन बालक गर्भ में आता है, तब होता है एक निषेचित अण्डा। इस घेरे में बँधे केन्द्रक से घिरे होते हैं गुणसूत्र। इन गुणसूत्रों में जगह-जगह गाठें होती हैं। इन गाँठों को संस्कारकोश (जीन) कहते हैं। अरबों की संख्या में होते हैं संस्कारकोश।

एक संस्कारकोश में प्रकृति के एक अरब अक्षरों में यह लिखा होता है कि गर्भस्थ शिशु की आकृति, रंग, कद आदि कैसे होगा? प्रकृति के इन अक्षरों को वैज्ञानिक अमीनो एसिड कहते हैं जो विभिन्न क्रम से लगे होते हैं। डॉक्टर एरिच लम्बे समय से परमाणु विकिरण तथा विषाणु के द्वारा इन नैसर्गिक अक्षरों के क्रम में परिवर्तन की चेष्टा में लगे हैं। एक सीमा तक उन्हें सफलता भी मिली है।

सभी गुणसूत्रों के संस्कारकोशों में समान लिपि नहीं है। डॉक्टर एरिच ने यह नवीन खोज की है। ‘लगता है-शरीर के विभिन्न अंगों की बनावट के आदेश विभिन्न संस्कारकोशों में हैं।’ इनमें से अनेक आदेश कई-कई पीढ़ियों तक अक्रिय पड़े रहते हैं और कभी किसी समय सक्रिय हो सकते हैं। क्यों होता है ऐसा? सोचते-सोचते उन्होंने अपने सिर के बालों को हल्के से थपथपाया।

यह सब तो रही माता-पिता द्वारा प्राप्त आनुवंशिकता की बात। पर बच्चे का संस्कृत बोलना क्या है।?

यह उसका पुनर्जन्म? उनकी समझ में यह बात एकदम नहीं आ रही थी। साथ ही इसे आनुवंशिकता कह देने का भी कोई कारण नहीं दीखता।

वैज्ञानिक हठधर्मी नहीं होता। वह सत्य का शोधार्थी होता है। डॉक्टर एरिच को लगा कि उनके बच्चे के सम्बन्ध में शोध करने के लिए विज्ञान के वर्तमान साधन पर्याप्त नहीं है। परलोक विधा के विशेषज्ञों की सहायता उन्हें अपेक्षित है।

कैसे होता है पुनर्जन्म? दो-तीन दिनों के बाद एक दिन मध्याह्न में परलोक विद्या के एक ज्ञाता बच्चे से पूछ रहे थे। ‘इनमें से किसी टुकड़े को पकड़ो। बच्चे ने अपना प्लास्टिक के खिलौने का वह बॉक्स उलट दिया, जिसके टुकड़ों से वह अक्षर बताया करता था।

‘इस टुकड़े से जो टुकड़े जुड़ सके, उनसे एक अक्षर बनता है। झटपट बच्चे ने एक अक्षर बनाने वाले टुकड़े जोड़ दिए और बोला-अब ऐसे ढंग से इससे मिलाते अक्षर जोड़ते जाना है कि कम से कम अक्षर बनाकर हम ‘एम’ तक पहुँच सकें।

‘तुम खेल में लग गए। मेरे सवाल का जवाब तुमने दिया नहीं।’ प्रश्नकर्ता ने बच्चे को रोका।

‘मैं आपको उत्तर ही दे रहा हूँ। मैं एक भारतीय साधु हूँ। साधु खिलौनों से खेला नहीं करते। बच्चा तनिक अप्रसन्न हुआ ‘तुम क्या कुछ समझते नहीं हो?’

“हम सचमुच कुछ समझ नहीं सके। प्रश्नकर्ता ने स्वीकार किया। “मनुष्य मरते समय जो कामना करता है, वह उस टुकड़े के समान है जिसे तुमने जीवन और पहले के अनेक जन्मों के लाख-लाख संस्कार होते हैं। यहाँ तो ये थोड़े से टुकड़े हैं। बच्चे ने उन टुकड़ों को एक बार हाथ से उलट-पलट दिया।

‘मरने के समय की अन्तिम कामना से मेल करने वाले संस्कार भी अनेक प्रकार के प्रारब्ध बना सकते हैं, किन्तु ध्यान यह रखना पड़ता है कि ऐसा प्रारब्ध बने जिससे मेल खाते दूसरे प्रारब्ध बने और ‘एम’ तक पहुँचने के लिए प्रारब्धों की छोटी से छोटी जंजीर बनें। बच्चे ने इस भाव से देखा, जैसे वह अपनी पूरी बात समझ चुका हो।

‘एम’ तक पहुँचने की बात ही क्यों? प्रश्नकर्ता ने पूछा। ‘मनुष्य का प्रारब्ध ही अन्तिम प्रारब्ध होता है। केवल मनुष्य के मरने पर प्रारब्ध शृंखला बनती है और मनुष्य जन्म का प्रारब्ध बनाकर वह पूरी हो जाती है। बच्चे ने बताया ‘दूसरे प्राणी तो उस शृंखला के बीच के प्रारब्धों से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य ही साधना करके पूर्ण हो सकता है।’

“यदि आप अपनी साधना को इस जीवन में भी पूर्ण न कर सके।” सवाल पूछने वाला बच्चे को आदरपूर्वक ही सम्बोधित कर रहा था, क्योंकि उसे मालूम था कि उपेक्षा इसे असन्तुष्ट कर सकती है।

“मैं इस बार अवश्य पूर्णत्व प्राप्त करूंगा।” बच्चा तनिक उत्तेजित हुआ पर तुरन्त शान्त हो गया। मानलो तुम्हारी बात ठीक निकले, ऐसा सम्भव नहीं हो तब भी

कुछ हानि नहीं है। मैं सावधान रहूँगा कि जीवन में साधना के विरोधी भाव न आवें। कुछ प्रमादवश आ गए तो वे अगले प्रारब्ध बनते समय संचित में चल जाएँगे और फिर मैं साधना में आगे बढूँगा। साधक का पतन नहीं होता। वह जितना चल चुका, अब उससे आगे ही उसे चलना रहता है।

‘संचित क्या ?’ प्रश्नकर्ता को यह बात समझ में नहीं आयी। ‘ये टुकड़े जिनका हमने उपयोग नहीं किया, संचित के समान हैं। बच्चे ने बताया जिन कर्म संस्कारों का उपयोग प्रारब्ध शृंखला के निर्माण में नहीं हुआ

उनकी राशि का नाम संचित है।

उनका उपयोग कब होगा?

‘अगली बार प्रारब्ध बनते समय। यदि मनुष्य जीवन में मुक्त न हो जाय। बच्चे ने कहा मुक्त पुरुष का संचित भस्म हो जाता है और यह याद रखो कि साधना के संस्कार संचित में कभी नहीं फेंके जाते। वे सदा प्रारब्ध बनाने के लिए चुने जाते हैं।

“यह सब व्यवस्था कौन करता है?”

प्रश्नकर्ता देर से वह बात पूछने को उत्सुक थे। ‘ईश्वर ही सम्पूर्ण व्यवस्था करता है?’

“ईश्वर करता है ऐसा कह सकते हैं।” बच्चा बहुत गम्भीर हो गया । वस्तुतः यह व्यवस्था ईश्वर का विधान करता है।

‘मृत्यु के पश्चात् और जन्म से पूर्व आपकी जो अवस्था थी, उसके सम्बन्ध में आप कुछ बताएँगे।’ प्रश्नकर्ता ने अपना अन्तिम प्रश्न किया।

‘नियामक सत्ता नहीं चाहती कि यह रहस्य प्रकट हो।’ बच्चे ने इस सम्बन्ध में बात करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। बड़ी कठिनाई से अनेक बार पूछने पर उसने कहा आपको इससे कोई लाभ नहीं होगा। देह त्याग के पश्चात् जीव केवल जीव नहीं होता। कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर तो उसके यहाँ के होते हैं। एक अतिविहिक शरीर भी उसे मिल जाता है जिसकी आकृति प्रायः उसके भौतिक स्थूल शरीर जैसी होती है। वह भावलोक है जहाँ उसे अतिवाहिक देह में जाना पड़ता है। अतएव जिसकी जैसी भावना जीवन में होती है उस प्रकार ही उसे वह भावलोक दिखता है।”

बच्चा थक चुका था उस दिन का प्रश्न कार्य रोक देना पड़ा। ‘मुझे अमेरिका देखना है। पहले मुझे यहाँ के मुख्य स्थान दिखला दो। अगले दिन बालक ने हठ पकड़ लिया जब वह किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए राजी नहीं था। डॉक्टर एरिच को उसका हठ रखना पड़ा। प्रयोगशाला अपने सहयोगी को सौंप कर पत्नी और पुत्र के साथ वे यात्रा के लिए निकले।

डॉक्टर एरिच का पुत्र सामान्य बालकों से नितान्त भिन्न था। वह केवल फल मेवे खाता और दूध पीता था। अनेक बार संस्कृत बोलने लगता। किसी भी दृश्य के प्रति उसने कोई विशेष आकर्षण नहीं प्रकट किया।

यात्रा अधिक दिन चली भी नहीं। बच्चा बार-बार हटकर रहा था कि उसको भारत भेजने की व्यवस्था कर दी जाय। डॉ. एरिच देश से बाहर जाने को प्रस्तुत नहीं थे। उनका प्रयोग अधूरा पड़ा था। पत्नी ने अवश्य प्रस्ताव किया कि यदि डॉक्टर छः महीने बाद भारत आने का वचन दे तो वह पुत्र को लेकर जा सकती है और वहाँ पति की प्रतीक्षा करेगी।

यह सब कुछ करना नहीं पड़ा। अभी पासपोर्ट के लिए निवेदन भेजा ही गया था कि बच्चा एक दिन प्रातः स्नान करके आसन लगाकर बैठा और कुछ क्षण पीछे ‘अलख’ की उच्च ध्वनि के साथ उसने देह त्याग दिया, सम्भवतः उसका देह धारण पुनर्जन्म की प्रक्रिया को कर्मफल की अनिवार्यता एवं संस्कारों की महत्ता समझाने के लिए था। इसे समझने और जीवन लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास करने का दायित्व हम सब पर है। मानव जीवन का हेतु और महत्व भी यही है।


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