समूचा विश्व इन दिनों संक्रमणकाल से गुजर रहा है । जहाँ एक ओर मानवी दुष्कृत्यों से उत्पन्न प्रकृति प्रकोपों की विभीषिका नियामक सत्ता की दण्ड व्यवस्था के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है, वहीं दूसरी ओर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से विश्वशाँति के निमित्त किये जा रहे निर्माणात्मक प्रयास बताते हैं कि ध्वंस एवं सृजन की दोनों ही प्रक्रियायें एक साथ चल रही हैं । मनीषियों ने इसे “साँस्कृतिक परावर्तन” के रूप में विश्व इतिहास का एक युगान्तरकारी मोड़ बताया है । उनका कहना है कि इससे आशा बँधती है कि जो भी कुछ त्रास अभी झेला जा रहा है, उससे शीघ्र ही त्राण मिलेगा तथा शाँति के प्रयास और तीव्रगति से अग्रगामी बनेंगे । अगले ही दिनों सम्पूर्ण मानवजाति चिन्तन चेतना के एक नये युग में प्रवेश करेगी , तब न केवल उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावनायें साकार होंगी, वरन् मनुष्य के सारे क्रियाकलाप महानता के लक्ष्य को सामने रखते हुए संचालित होंगे । निश्चय ही वह समय मानव का गौरवपूर्ण काल होगा ।
इस संदर्भ में वैज्ञानिकों, मनीषियों एवं भविष्यदर्शियों ने अपने-अपने ढंग से अनुसंधान निष्कर्म व आकलन प्रस्तुत किये हैं । सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता फ्रिट्जाफ काप्रा कहते हैं कि इतिहास बताता है कि नया जमाना आने के पूर्व हमेशा दो-तीन दशक बड़े व्यापक उथल-पुथल भरे रहते हैं, वैसे ही जैसे कि आज दिखायी दे रहे हैं । नयी सभ्यता के अथवा नवयुग की आधार शिला रखे जाने के पूर्व ऐसी साँस्कृतिक प्रत्यावर्तन प्रक्रिया सदैव देखी जाती रही है, उनके अनुसार परिवर्तन की यह उथल-पुथल हर बार पूर्व से ही आरंभ हुई है तथा “स्टेटिक” से “डाइनैमिक” अर्थात् स्थिरता से सक्रियता की ओर उन्मुख हुई है । इसके लिए वे अर्नाल्ड टायनबी की बहुचर्चित पुस्तक “ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री” का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने पूर्व इतिहास व भावी संभावनाओं की बड़ी गहन समीक्षा प्रस्तुत की है ।
चुनौतियाँ मनुष्य समाज की हों या पर्यावरण की समूचा विश्व उसमें प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । क्षेत्र विशेष में उठी वैचारिक-क्रान्ति की लहरें वहीं तक सीमित नहीं रह जातीं , वरन् व्यापक क्षेत्र में परिवर्तन की गतिशीलता बड़ी तेजी से लाती हैं । इन दिनों यही प्रक्रिया द्रुतगामिता के साथ चल रही है और आगामी बारह पंद्रह वर्षों में सम्पूर्ण विश्वमानव को अपनी लपेट में ले लेगी, ऐसी डॉ.काप्रा की धारणा है । सही मायने में देखा जाय तो असंतुलन को मिटाने हेतु सक्रिय सृजन प्रयास गीताकार के “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति” वाले उद्घोष की ओर ही संकेत करती है। इसी प्रक्रिया को विभिन्न पाश्चात्य दार्शनिकों, वैज्ञानिक मनीषियों ने अपने-अपने चिन्तन के अनुरूप प्रस्तुत किया है और कहा है कि नवसृजन में एक ओर जहाँ ध्वंसात्मक गतिविधियाँ तीव्र होती दिखाई देती हैं, वहीं दूसरी ओर निर्माण की प्रक्रिया भी स्थायी रूप से चल रही होती हैं। प्रख्यात दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर ने इसे विघटन एवं समन्वधी करण का मिला−जुला रूप कहा है, तो हेगल ने इसे ही यूनिटी एवं डिसयूनिटी का संयुक्तिकरण माना है । इस प्रकार नवनिर्माण की सभी परिभाषायें पूर्वात्य अध्यात्म के एक बिन्दु पर आकर मिल जाती हैं ।
इंटरनेशनल कल्चरल फाउण्डेशन के संस्थापक तथा “द प्लेन ट्रथ” पत्रिका के प्रधान संपादक हर्बर्ट डब्ल्यू आर्मस्ट्रांग अपने मानवतावादी दृष्टिकोण के लिए विख्यात हैं । अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “द वंडरफुल वर्ल्ड टूमारो “में मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य की उनने जो परिकल्पना की है, उसके अनुसार-इक्कीसवीं शताब्दी का आगमन ही नवयुग की सभ्यता का शुभारंभ माना जायेगा । अशिक्षा, गरीबी, और बेकारी की समस्याएं जो अभी मनुष्य की सबसे बड़ी समस्याओं में प्रमुख हैं, उनका समाधान खोज लिया जायगा । आक्रामक एवं अपराधी प्रवृत्तियों को उभारने के स्थान पर मनुष्य स्नेह-सद्भाव को जाग्रत कर दैवी गुणों से सम्पन्न बनने में ही अपनी शक्तियों का नियोजन करता हुआ दृष्टिगोचर होगा । तब अनीति, अनाचार एवं शोषण की आसुरी प्रवृत्तियाँ धरती पर से अपना पसारा समेट कर शून्य में विलीन हो जायेंगी । भाषाओं की भिन्नता के कारण मनुष्य को आज जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, अगले ही दिनों वह मिटकर एक विश्वभाषा का रूप ग्रहण करेगी । इस ‘गॉड्स लैंग्वेज’ के नाम से जाना जायगा । जिस भाषा के माध्यम से साहित्य , संगीत और कला को विधेयात्मक एवं सृजनात्मक दिशा-प्रवाह मिले, उसी को मानव जाति हृदयंगम करेगी ।
भविष्यवक्ताओं का मत है कि वह समय अब अधिक दूर नहीं है जिसमें पृथ्वी की समूची सत्ता सूर्य में विलीन हो जायगी अर्थात् मनुष्य सविता शक्ति से ओतप्रोत हो उत्कर्ष की ओर अग्रगामी होगा, क्योंकि यही वह प्रत्यक्ष सर्वव्यापी सत्ता है जिसका कार्य क्षेत्र समूचा विश्व ब्रह्माण्ड है । देवलोक की शक्तियों का पृथ्वी पर अवतरण इसी के माध्यम से होता है ।
वस्तुतः इन दिनों हम सब युगान्तरकारी परिवर्तन के मोड़ पर खड़े हुए हैं । विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत विचारणा एवं कल्पना का विधेयात्मक सुनियोजन ही उज्ज्वल भविष्य का आधार स्तंभ है । इस तथ्य को जितना जल्दी समझा जा सके उतना ही अच्छा है ।