दर्शन और विज्ञान हैं, परस्पर पूरक व अभिन्न

March 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ज्ञान दो भागों में विभक्त है । एक को दर्शन और दूसरे को विज्ञान कहते हैं । विज्ञान में पंच तत्वों से विनिर्मित वस्तुओं की- विधियों की जानकारी और उनके उपयोग की विधा सम्मिलित है । दर्शन में चेतना को प्रभावित करने वाली भावनागत एवं पदार्थगत संवेदनाओं का विश्लेषण, विवेचन किया जाता है । नीति, धर्म, सदाचार, अध्यात्म इसी परिधि में आते हैं । विज्ञान की असंख्य धारायें हैं-शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, पदार्थविज्ञान, रसायन, भौतिकी, याँत्रिकी, तकनीकी आदि । सामान्यतया विज्ञान और दर्शन के यह दोनों ही क्षेत्र पृथक्-पृथक् और असम्बद्ध माने जाते हैं । कई बार इन्हें परस्पर विरोधी भी ठहराया जाता है, पर गंभीरता से देखने पर स्पष्ट होता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता । फिर जहाँ तक सत्य के शोधन का प्रश्न है, वहाँ इन दोनों में कभी किसी प्रकार का विरोध हो ही नहीं सकता ।

वस्तुतः हमारा प्रगतिशील एवं सुख-सुविधा सम्पन्न जीवन रथ के दो पहियों की तरह विज्ञान और दर्शन के समन्वय से ही गतिशील हो रहा है । दर्शन अंतर्ज्ञान शक्ति इन्टरनल पावर, तर्क, भाव संवेदना और दूरदर्शी विवेक पर अवलम्बित है और विज्ञान बौद्धिक शक्ति पर, प्रयोगात्मक तथ्यों पर । इस प्रकार से उनके साधन तो पृथक्-पृथक् हैं, पर सत्य के समीप तक पहुँचाने का दोनों का मूलभूत उद्देश्य एक है ।

सुप्रसिद्ध मनीषी बिल डूरण्ट ने “द स्टोरी आफ फिलॉसफी” नामक अपने ग्रंथ में इसी से मिलते जुलते हुए विचार व्यक्त किये हैं । वे कहते हैं कि विज्ञान का आरंभ दर्शन में होता है और अन्त कला में । यदि विज्ञान में मानवी चेतना की सुसंवेदना उत्पन्न करने की क्षमता न होती तो उसके लिए कठोर श्रम करने में किसी को भी उत्साह न होता । केवल कौतूहलभर के लिए विज्ञान की शोध नहीं होती है। उसके पीछे मानवी सुख-शान्ति का जो उत्साह भरा लक्ष्य जुड़ा है, उसी ने विज्ञान की उन्नति का पथ प्रशस्त किया है। विज्ञानवेत्ता करनर हाईसवर्ग ने भी अपनी कृति “फिजिक्स एण्ड फिलॉसफी” में अनिश्चितता के नियमों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि विज्ञान वस्तुतः दर्शन शास्त्र की स्थूल जाति का निरूपण करने की एक शैली मात्र है। सिद्धान्तों के हाथ में लगने के बाद ही वैज्ञानिक प्रयोगों में पूर्णता आती है।

विज्ञान और दर्शन आपस में अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, इस तथ्य को बुद्धिजीवियों ने अब बिना हिचक के स्वीकार कर लिया है। फलस्वरूप “वैज्ञानिक दर्शन” एक नया ही विचारणीय विषय सामने आया है। इस संबंध में ख्यातिलब्ध विद्वान केसरलिंग ने अपनी पुस्तक “क्रिएटिव अण्डरस्टैडिंग“ में कहा है कि ज्ञान की दो धारायें-विज्ञान और दर्शन अविच्छिन्न हैं। इन दोनों को मिलाकर एक शब्द “वैज्ञानिक दर्शन अथवा ‘दार्शनिक विज्ञान’ नाम दिया जाना इस युग के ज्ञान विस्तार को देखते हुए सब प्रकार उपयुक्त ही होगा। उनके अनुसार जिस प्रकार विज्ञान के अंतर्गत रसायनशास्त्र, शरीरशास्त्र, याँत्रिकी आदि धारायें आती हैं, उसी प्रकार ज्ञान मीमाँसा, प्रमाण मीमाँसा, मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र और अध्यात्म जैसे दार्शनिक विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। दोनों के बीच परस्पर सहयोग से ही समग्र सत्य का दर्शन हो सकता है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक एफ. सी. नार्थरोम का कहना है कि वैज्ञानिक सिद्धान्त को जितना वास्तविक माना जाता है, उससे अधिक वे काल्पनिक हैं कि प्रयोग का सही उतरना इस बात की गारंटी नहीं है कि प्रयोग की जो व्याख्या विवेचना की गई है, उसके जो आधार कारण बताये गये हैं, वे सही हैं। प्रायः ऐसा होता रहता है कि पुराने सिद्धान्त काटकर उनके स्थान पर नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है। भूतकाल के कितने ही सिद्धान्त, जो कभी पत्थर की लकीर समझे जाते थे, देखते-देखते निरस्त हो गये। यह क्रम आगे भी चलते ही रहने वाला है। इसी प्रकार अनेक सामाजिक एवं धार्मिक प्रथा-परम्परायें ऐसी हैं जिन्हें स्वभाव में सम्मिलित कर लिया गया है, पर आज के संदर्भ में यथार्थ से उनका कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है। तर्क और तथ्य की कसौटी पर भी वे खरे नहीं उतरते। अतः भ्रान्तियों की गुंजाइश दोनों में समान रूप से है और इन्हें छोड़ा जा सकता है। इतने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि दोनों ने गिरते-पड़ते सत्य के अधिकाधिक निकट मनुष्य की ज्ञान चेतना को पहुँचाने में अतिमहत्वपूर्ण योगदान दिया है। आइन्स्टीन ने इस तथ्य को स्वीकारा है कि विज्ञानी भी दार्शनिकों की ही तरह अपने सिद्धान्त की स्थापना कल्पना के आधार पर करते हैं। प्रयोगों की कसौटी पर उस कल्पना का खरा खोटापन परखा जाता है। इस पर भी सत्य और असत्य का सम्मिलित घोटाला कहीं न कहीं रह ही जाता है और एक समय की स्थिर मान्यता को दूसरे समय में बहुत कुछ सुधारना पड़ता है। दर्शन को भी इसी मार्ग का अनुसरण करना होगा।

दार्शनिक लिनयुताँग के अनुसार वस्तुओं के परखच्चे उधेड़ते रहने पर जगत का न तो स्वरूप समझ में आ सकता है और न उसका प्रयोजन स्पष्ट होता है। इसके लिए दर्शन का सहारा लिये बिना काम नहीं चल सकता। दर्शन की परिभाषा करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने उस सत्य को समझने का बौद्धिक प्रयास कहा है। उनका कथन है कि विज्ञान के लिए बिना दर्शन की सहायता के विश्व का तात्विक स्वरूप समझ सकना आशक्त है। दार्शनिक जीन ड्यू प्लेसिस का मत है कि जगत का स्थूल स्वरूप ही विज्ञान हमें समझा सकता है और पदार्थों की प्रकृति पहचान कर उससे लाभ उठाना संभव कर सकता है। इसके आगे उसकी गति नहीं। जो है सो क्यों है। इसके आगे उसकी गति नहीं। जो है सो क्यों है? किस लिए है? कैसा है? इन प्रश्नों का उत्तर दर्शन के अतिरिक्त और किसी माध्यम से मिल ही नहीं सकता।

महर्षि कात्यायन ने ‘यथार्थता के मर्मस्थल तक पहुँच सकने वाली तीखी विवेक दृष्टि को दर्शन की संज्ञा दी है और कहा है कि अध्यात्म अन्धता का निराकरण मात्र दार्शनिक दृष्टि मिलने पर ही हो सकता है। “फिलॉसफी आफ फिजीकल साइन्स” के लेखक सर ए.एस. एडिंगटन ने इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि विज्ञान के सिद्धान्तों का समझना और समझाना दर्शनशास्त्र के सिद्धान्तों के सहारे ही संभव हो सकता है। “फ्राम युक्लिड टू एडिंगटन” नामक अपनी कृति में सर एडमण्ड हृटेकार ने लिखा है कि प्राचीन दर्शनशास्त्र के विवादास्पद सिद्धान्तों को वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अधिक प्रामाणिक रीति से परखा और जाना जा सकता है। ‘दि फिलॉसफी आफ स्पेश एण्ड टाइम प्रिफेस” के लेखक हन्स राइशन वाच ने भी लिखा है कि वह जमाना अब लद गया, जब विज्ञान और दर्शन को एक दूसरे से सर्वथा पृथक कहा जाता था। अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि दर्शन और विज्ञान की जोड़ी में से एक को हटा देने पर दूसरा लड़खड़ाने लगा है। थ्योरी आफ रिलेटिविटी जैसे सिद्धान्तों की उपज दर्शन और विज्ञान को अन्योन्याश्रित मान कर ही हो सकती है।

ज्ञान का मूल आधार है-जिज्ञासा, जानने की इच्छा। इसी प्रवृत्ति ने भौतिक पदार्थों के स्वरूप, स्वभाव एवं उपयोग की विधि-व्यवस्था पर चढ़ते हुए आवरणों को हटाकर भौतिकी विद्या का विशालकाय भाण्डागार प्रस्तुत किया और उसका उपयोग-उपभोग करके मनुष्य ने अन्य प्राणियों की तुलना में असंख्य गुने सुविधा साधनों भरे जीवन का रसास्वादन किया है। जिज्ञासा का ही विस्तार चेतना को प्रभावित करने वाले तथ्यों की गूढ़ जानकारियों के रूप में हुआ है। समाज विज्ञान, शासन तंत्र, कला, नीति-न्याय, शिक्षा, अध्यात्म, भावसंवेदना, स्नेह, संयम आदि के अनेक उपयोगी तंत्र दार्शनिक चिन्तन के ही फलस्वरूप सामने आये हैं और मनुष्य क्रमबद्ध एवं परिष्कृत पद्धति से चिन्तन कर सकने योग्य बना है। भौतिक विज्ञान एवं दार्शनिक चिन्तन के सुसंतुलन का सम्मिश्रण ही मानव जीवन के

समग्र विकास की पृष्ठभूमि बन सकता है।

ग्रीक के शब्द कोशों में उल्लेख मिलता है कि यूनान के सुकरात से भी पुराने दार्शनिक दर्शन का अर्थ-’बहिर्जगत का अध्ययन’ करते रहे। इससे स्पष्ट है कि पाश्चात्य जगत में भी दर्शन और विज्ञान की गणना एक स्तर पर ही होती रही है। अन्यान्य प्राचीन मनीषियों ने भी लगभग इसी स्तर की व्याख्या की है। इन दोनों क्षेत्रों का जब अधिक विस्तार हुआ, तभी यह बटवारे की बात सामने आयी और अन्तरंग चिन्तन की धारा को दर्शन तथा बहिरंग हलचलों के ऊहापोह को विज्ञान कहा जाने लगा। इतना होते हुए भी यह एक स्पष्ट तथ्य है कि दोनों के मिलाये बिना न तो चिन्तन में स्पष्टता आती है और न वैज्ञानिक प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। यथार्थता के मर्मस्थल तक पहुँचने के लिए दोनों में समन्वय का होना आज की अनिवार्य आवश्यकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118