संकटों से उद्विग्न न हो (Kahani)

March 1992

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समुद्र को सूर्य का ताप खौलाने लगा तो डरी-सहमी जल की बूँदों ने विधाता से प्रार्थना की कि हमें कष्ट क्यों दिया जा रहा है। हमने ऐसा क्या बिगाड़ा है कि हमारा अस्तित्व तक संकट में डाल दिया गया है। विधाता ने समझाया- “बूंदों! इसके बाद तुम्हारी जो नियति होगी, वह महानतम होगी। तुम जहाँ बरसोगी, वहाँ हरियाली का साम्राज्य होगा। तुम अस्तित्व मिटा कर तो देखो”।

जिन्हें यह समझ में आ गया वे वाष्पीभूत बादल बनकर आकाश में गयी, धरती पर गिरी व बहते-बहते समुद्र में जा पहुँची। स्वातिनक्षत्र आते ही बूंदें एक बार फिर उमड़ी बिना किसी भय के हँसती खिलखिलाती आकाश से झरकर बाँस में गिरी तो वंशलोचन बन गई, कदली में गिरीं तो कपूर और सीपी के मुख गिरकर मोती बन गयीं।

विधाता सोचने लगे बूँदों की तरह मनुष्य भी संकटों से उद्विग्न न हो, स्वयं को विसर्जित करना, मिटाना सीख ले तो उसकी परिणति भी बूँदों के समान वंशलोचन, कपूर और मोती की तरह हो जाय।

मनोवैज्ञानिक जो एक सुप्रसिद्ध चित्रकार भी था, एक ऐसे निर्मम, क्रूर, अपराधी का चित्र बनाना चाहता था, जिसे देखते ही रोंगटे खड़े हो जायँ, चीख निकल पड़े । इसके लिए वह जेल के अन्दर गया और जघन्य हत्यारों में से एक को चित्र बनाने के लिए चुना । जब वह चित्र बनाने लगा , तो उसे चेहरा परिचित-सा जान पड़ा । अन्ततः उस चित्रकार से न रहा गया और अपराधी से पूछ ही लिया-क्या मैंने तुम्हें पहले भी कभी देखा है ? अपराधी की आँखों में से झर-झर आँसू झरने लगे । उसने पूछा-तुम रोते क्यों हो ? क्या मैंने तुम्हारा कोई घाव उभार दिया । उस आदमी ने कहा-मैं यही डर रहा था कि तुम यह बात जरूर पूछोगे । बीस वर्ष पहले भी तुमने मेरी तस्वीर बनाई थी, किन्तु तब दुनिया के श्रेष्ठतम और सरलतम आदमी के रूप में । तब मेरे चेहरे पर इंसानियत झलकती थी, किन्तु बीस वर्ष के अन्तराल में मेरे ही कुकृत्यों ने मेरी दुर्गति कर दी और तस्वीर भी बिगाड़ दी । अब चेहरे पर कुरूपता एवं निष्ठुरता उभर कर आ गई है । संयोग की बात आदमी वही है रोये न तो क्या करे ।

दोनों ही चित्र आदमी के भीतर हैं । यह उस पर निर्भर करता है कि वह अपनी विकृति को उभारे या सुकृति को ।

एक व्यक्ति रास्ता भटककर एक गाँव में पहुँचा । रात काफी हो गयी थी । एक दरवाजे पर दस्तक दी । द्वार खुलने पर रात्रि रुकने की इच्छा व्यक्त की । घर के लोगों ने उसका धर्म पूछा । व्यक्ति का धर्म पता चलने पर उनने कहा- “आपके धर्म से हमारा तालमेल नहीं बैठता । आप दूसरे धर्म के हैं । आप और दरवाजों को भी मत खटखटाइए क्योंकि सभी हमारे धर्म के हैं ।” अजनबी ने दरवाजा खोलने का धन्यवाद देकर बाहर निकल कर देखा । पूर्णिमा की चाँदनी रात थी। पास में मौलश्री का वृक्ष था । वह उसके ही नीचे सो गया । रातभर उस पर सुगंधित फूलों की वर्षा होती रही । प्रातः नींद खुली तो ताजगी थी ।

पुनः अजनबी ने उसी व्यक्ति के घर पर दस्तक दी । दरवाजा खुलने पर उसने रात अंदर न आने देने के लिए तीन बार धन्यवाद दिया । गृहस्वामी के असमंजस को मिटाते हुए वह बोला “यदि आपके छप्पर में शरण मिल गयी होती तो प्रकृति के अनुदानों से वंचित रह जाता व रातभर आपके धर्म की संकीर्णता के बोल सुनता रहता । मानव मात्र का धर्म बड़ा है । विराट प्रकृति का यह रूप व इसमें धर्म का मर्म मुझे समझ में न आया होता यदि आपने अंदर आने दिया होता । इन सब के लिए धन्यवाद ।” गृह स्वामी ही नहीं, पूरे गाँव को उस दिन धर्म की नयी परिभाषा समझ में आई ।


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