मात्र यथार्थता को ही अपनाया जाय

March 1992

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मन सभी के पास है, पर कितने हैं जो उसका समुचित और सर्वांगीण प्रयोग कर पाते हैं । अधिकाँश व्यक्ति आयु की दृष्टि से बड़े हो जाने पर भी मन को वैसा ही बनाये रहते हैं जैसा कि बचपन में था और जैसा कि परिवार के वातावरण में उसका ढलाव हुआ था । यह परावलम्बी मन ही बड़े होने पर संपर्क क्षेत्र से प्रभावित होता रहता है जो लोगों को करते देखता ही वही करने लगता है । जो सुनता है, उसी को सच मानने लगता है ।

बच्चों की मानसिक संरचना ऐसी ही होती है । उसमें अनुकरण की लालसा का सबसे बड़ा अंश होता है । बड़ों को जिस प्रकार बोलते, चलते, करते, खाते, हँसते, झल्लाते देखते हैं उसी की नकल वे भी करने लगते हैं । गुण-दोष पर विचार नहीं करते । उन दिनों मन ही प्रधान होता है । मन का स्वभाव है दूसरों की विशेषतया बड़ों की नकल करना । वस्त्र, आभूषण, साज-सज्जा जिस प्रकार की सामने आती और आकर्षक लगती है उसी को अपनाने के लिए मन मचलता है । इसी को कहते हैं भेड़िया धसान । कीर्तन, डिस्को या गरबे में औरों को गाते, नाचते देखकर अपनी हरकतें भी अनायास वैसी ही होने लगती हैं इसी को कहते हैं वातावरण का प्रभाव । दुर्बल मन वाले उसी से प्रभावित होते तथा वैसी ही रीति नीति अपनाते हुए दिन गुजारते हैं ।

उचित और अनुचित की विवेचना कर पाना परिपक्व बुद्धि का काम है। यह परिपक्वता निजी प्रयासों से बढ़ती है । आरंभ में हर काम को शंका की दृष्टि से देखा जाय और निरखा-परखा जाय कि वह स्वयं कहीं गलत ही तो नहीं है । गलत साँचे में ढालने पर पुर्जे या खिलौने भी गलत ही ढलते हैं । इसके लिए जन समुदाय या वातावरण को औचित्य की कसौटी पर कसकर यह देखा जाना चाहिए कि वे अपने आप में सही हैं या नहीं । यदि संदेह हो तो तर्कों और तथ्यों की कसौटी पर कहकर यह देखा जाय कि जो प्रस्तुत है उसमें से किसे सीमा तक स्वीकार किया जाय ?

प्रस्तुत समाज में अवाँछनीयता की भरमार है । जिधर भी देखा जाय अनैतिक विचार और अन्धविश्वास-दुराग्रहों की भरमार है। इनमें ऐसे कम ही हैं जिन्हें मन मार कर अपनाया जा सके । अधिकाँश तो ऐसे हैं जिन्हें अमान्य ठहराया जाय और अस्वीकृत किया जाय । भले-बुरे के घुले मिले प्रचलन में हमें कसौटी बन कर रहना चाहिए और उस प्रकार जाँच-पड़ताल करनी चाहिए जिस प्रकार खरे-खोटे सिक्कों को कई प्रकार से जाँचने के उपरान्त स्वीकार किया जाता है । हर किसी की हाँ में हाँ मिलाने से, हर किसी बड़े कहलाने वाले व्यक्ति के कथन को मान्यता देने से हम भ्रम में पड़ते हैं । इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें तर्क और तथ्य के आधार पर उसी को अँगीकार करना चाहिए जो मान्यता प्राप्त करने योग्य अपनी गुणवत्ता के आधार पर रही है ।

कोई समय था जब सतयुगी चलन थे । मानवों में देवत्व की मात्रा बढ़ी-चढ़ी थी । सम्मान मात्र श्रेष्ठता को ही मिलता था । उन दिनों यह उचित और-उपयुक्त था कि जिस राह पर बहुत जन चलते हैं, जिसे बड़े लोग कहते हैं उसे यथावत स्वीकार कर लिया जाय, किन्तु आज की स्थिति विपरीत है । आज लोग धूर्तता के बल पर बड़े बनते हैं और विडंबनाएं रचकर प्रचार माध्यमों से निजी जीवन में हेय होते हुए भी सम्माननीय पद पर जा पहुँचते हैं । तब अविचारवान वर्ग में उनके कथन और चरित्र को भी गले उतारा जाने लगता है । यह अन्धानुकरण पतन का मार्ग है । अन्धी भेड़ों के पीछे चल पड़ना किसी भी प्रकार बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हैं ।

किसी पर संदेह करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसमें छिद्रान्वेषण या दोषारोपण की प्रवृत्ति न घुस पड़े । संदेह का तात्पर्य इतना ही है कि वस्तुस्थिति जानने के लिए सभ्य ढंग से प्रयास किया जाय । ऐसा न हो कि किसी पर लाँछन लगाया जाय, अविश्वास किया जाय । इस प्रकार की जाँच-पड़ताल अविश्वास उत्पन्न करती और अपमान जनक लगती है जो जाँचा या पूछा जाय उसमें स्नेह, सद्भाव , और जिज्ञासा का समावेश होना चाहिए । समय को देखते हुए फूँक-फूँक कर कदम रखना आवश्यक है । लोगों ने आडम्बर के ऐसे जाल बिछा रखे हैं कि भावुक या विश्वासी प्रकृति कि व्यक्ति का सहज फँस जाना स्वाभाविक है । यह विपत्ति अपने ऊपर न टूटे इसके लिए आवश्यक सतर्कता बरती जानी आवश्यक है ।

संदेह के अन्वेषण का उद्देश्य इतना ही है कि यथार्थता को जाना जा सके । जहाँ सदाशयता है वहाँ विश्वास किया जाना चाहिए और सराहा जाना भी । इसके भी एक कदम आगे बढ़ कर सद्भावना, सदाशयता को समर्थन एवं सहयोग दिया जाना चाहिए ।

यह भी हो सकता है कि व्यक्ति चरित्रवान हो और शुद्ध हृदय भी । इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वही व्यक्ति सही विचार भी रखता होगा । पिछले दिनों भक्ति और अहिंसा क्षमा का ऐसे जोर-शोर से प्रतिपादन हुआ कि उसे अनुपयुक्त ही नहीं अव्यावहारिक भी कहा जा सकता है । यों इन प्रतिपादनों का प्रचार भोले भाले लोगों द्वारा किया गया था । उन पर दुर्भावना का दोषारोपण नहीं किया जा सकता, पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि वे अतिवाद के शिकार हो गये । भावुकता के प्रवाह में बह गये और अनुयायियों पर ऐसा प्रभाव डालने लगे, जिसे उन्हें भटकाव से ग्रसित होकर उस राह पर चलाया गया जो किसी भी दृष्टि से उपयुक्त न था ।

क्षमा धर्म अपनाने से हृदय परिवर्तन की आशा की गई थी, पर हुआ उसका ठीक आतंकवाद को दूने उत्साह से अनीति पर आरुढ़ होने का प्रोत्साहन मिला । इसी प्रकार भक्ति का तात्पर्य परावलम्बन से जुड़ गया । अदृश्य सत्ता को भक्तवत्सल कहा गया और माना गया कि मनुहार-उपहार के सहारे उसे अपना पक्षधर बनाया जा सकता है और मनचाहा काम करवाया जा सकता है । वस्तुतः ऐसा होता नहीं । निराकार को किसी आकृति विशेष में अवरुद्ध करना और उसे दर्शन देने के लिए प्रकट होने का आग्रह करना सर्वथा अवैज्ञानिक है । दिवा स्वप्न कोई भी देख सकता है , पर पवन को किसी प्राणी विशेष का रूप धारण करके प्रकटाने के लिए मचलना उपहासास्पद है । ब्रह्म को शरीरधारी देखने में अपनी आस्था को तो श्रेय दिया जा सकता है पर वैसी वस्तुस्थिति नहीं हो सकती । चूँकि किन्हीं त्यागी तपस्वी ने ऐसी बातें कही या लिखी हैं इस कारण उसे मान्यता नहीं मिलनी चाहिए ।

वर्गीकरण-विश्लेषण की इन दिनों काफी सुविधा है । तर्क और तथ्य को अपनाने वाला प्रत्यक्षवाद भी बलिष्ठ हुआ है । इतने पर भी छद्म का विस्तार होता चला गया । प्रवंचना और विडंबना बढ़ी । साथ ही ऐसा भी हुआ कि नये किस्म का अन्धविश्वास पुराने की अपेक्षा नये कलेवर में प्रकट हुआ। कुछ समय पहले मिथ्यात्व को पकड़ एवं समझ सकना सरल था, पर अब सत्य के साथ असत्य इतना घुल−मिल गया है कि वस्तुस्थिति को समझ पाना सरल नहीं रह गया है ।

अनुकरण की स्वाभाविक प्रवृत्ति सजीव रहें, पर उससे पूर्व यह निश्चित होना चाहिए कि जिस पर श्रद्धा का आरोपण किया जा रहा है वह यथार्थ भी है या नहीं । कितनी ही अन्धपरम्पराएँ पूर्वजों से लेकर अब तक यथावत चली आती हैं । कुरीतियों को सनातन धर्म माना जाता है व यह कहा जाता है कि जो चल रहा है , उसे चलने देने में ही भलाई है । युगधर्म यह कहता है कि किसी वस्तु को ग्रहण करने या समर्थन देने से पूर्व उसकी उपयोगिता और यथार्थता को अनेक कसौटियों पर कस लिया जाय ।


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