साधना विज्ञान में विभिन्न प्रकार के साधना उपक्रमों के साथ-साथ आहार को भी महत्वपूर्ण माना गया है। आत्मिक प्रगति भलीभाँति होती रहे, इसके लिए साधना का ही नहीं, वरन् आहार का भी सही और सात्विक चयन आवश्यक है। अस्तु इस पथ के पथिकों को इसके निर्धारण में अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि आहार से रक्त और माँस ही नहीं, मन भी बनता है तथा उसका मानसिक कार्यक्षमता पर अनिवार्य रूप से असर पड़ता है। चाय, काफी जैसे गरम व उत्तेजक पदार्थ मन पर उत्साहवर्धक प्रभाव डालते हैं। शीतल पेय पीने पर मुँह एवं पैर में ही ठंडक नहीं लगती, मन भी शान्त होता है। क्रोध से उद्विग्न व्यक्ति को ठंडे पेय पीने पर आवेश में कभी अनुभव होती है। आहार का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसे उष्ण व शीतल पेय पीकर तत्काल अनुभव किया जा सकता है।
आहार के प्रभाव को और भी प्रत्यक्ष देखना हो, तो नशे के रूप में देखा जा सकता है। ब्राउन सुगर, गाँजा, भाँग, चरस, अफीम, शराब, हेरोइन, एल.एस.डी. आदि के सेवन से मस्तिष्क की जो स्थिति हो जाती है, उससे भारी आश्चर्य होता है। नशा पीकर आदमी अपने स्तर को ही भूल जाता है और लोक-व्यवहार की सामान्य क्रिया-प्रक्रिया तक लड़खड़ा जाती है। उद्धत, अनर्गल, संभाषण और आचरण करते देखकर यह अनुमान लगता है कि कम से कम कुछ समय के लिए तो नशेबाज की स्थिति विक्षिप्त जैसी ही हो जाती है। नशे के आवेश में लोग दूसरों पर आक्रमण करते तथा अपनी दुर्गति बनाते देखे जाते हैं। शराब पीने से व्यक्ति का आक्रामक आवेश फूट पड़ता है और सहृदयता एवं विवेक को ताक पर रखकर व्यक्ति उचित अनुचित न जाने क्या-क्या कर गुजरता है। क्रूर कर्म करने वाले इसीलिए नशीली तथा उत्तेजक चीजों का सेवन करते हैं कि सहृदयता अथवा विवेकशीलता उभर कर उनकी क्रूरता को कम न करें, अपितु और अधिक उभारें व भड़कायें।
यह आहार का हानिकारक एवं निषिद्ध पक्ष हुआ। इसका दूसरा पक्ष यह है कि सात्विक आहार से बुद्धि सतोगुणी होती है। संसार में अनेक ऐसे खाद्य पदार्थ भी हैं, जिनसे मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ती है, बुद्धि-कौशल, मनोबल, दूरदर्शिता, यथार्थ चिन्तन एवं सही निर्णय लेने जैसी मानसिक क्षमताएँ बढ़ाने में भी खाद्य पदार्थ विशिष्ट भूमिका निभाते हैं ऐसे भोज्य पदार्थों की सहायता ली जा सकती है, जिनमें मानसिक परिपोषण के लिए उपयुक्त तत्व प्रचुर परिमाण में विद्यमान हों।
मस्तिष्क के विकास में ऐसे भोजन का बड़ा योगदान रहता है, जो सात्विक प्रकृति के और सुपाच्य माने जाते हैं। गरिष्ठ, चटपटे , तले-भुने, शक्कर, नमक की अनावश्यक मात्रा वाले, मसाले डालकर सुगंधित एवं रंग डालकर आकर्षक बनाये गये पदार्थ सात्विक प्रकृति के नहीं होते। उनमें उत्तेजना भरी रहती है और यह प्रायः तामसिक स्तर के होते हैं। ऐसे पदार्थों का सेवन अपच-अजीर्ण जैसी शिकायत एवं रक्त विकार जैसी विकृतियाँ उत्पन्न करता है और फिर उनसे तरह-तरह की बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। स्वाच के लिए गरिष्ठ और उत्तेजक पदार्थों को खाने से न केवल सामान्य स्वास्थ्य को वरन् मस्तिष्कीय कोमलता एवं सक्षमता को भी हानि पहुँचती है।
सात्विक खाद्यों की श्रेणी में कौन-कौन से पदार्थ आते
हैं? इस संबंध में यही कहा जा सकता है कि कुछ एक को छोड़कर बिना भुने तले अपने प्राकृतिक रूप, रस, गंध और स्वाद से हमारी तृप्ति करने वाले उन सभी पदार्थों को अपनी शरीर रचना के हिसाब से अनुकूल एवं प्राकृतिक कहा जा सकता है, जो प्रायः आध्यात्मिक क्षेत्र के साधक मनोभूमि वाले लोग ग्रहण करते हैं। ऐसे आहार पर निर्भर रहने वाले अध्यात्मवेत्ता अपनी बौद्धिक व आत्मिक विशेषता बनाते और बढ़ाते रहते हैं।
कुछ विशेष पदार्थ ऐसे भी हैं जो सामान्य भोजन की तरह तो नहीं, औषधियों के-अतिरिक्त परिपोषण के रूप में लिये जा सकते हैं। इनमें कई उपयोगी जड़ी-बूटियों की गणना होती आयी है। आयुर्वेद में अमृत मधुयष्टि शतावरी, बच, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, जटामाँसी आदि का उल्लेख बुद्धिवर्धक एवं शामक पदार्थों के रूप में हुआ है।
सन् 1989 में कनाडा के मेडिकल रिसर्च सेण्टर के शरीर शास्त्रियों ने जब भारतीय आयुर्वेद की बढ़ी-चढ़ी प्रशंसा सुनी, तो उन्होंने इसकी सत्यता परखने के लिए कुछ भारतीय जड़ी-बूटियों पर प्रयोग परीक्षण आरंभ किये। इनमें स्मरण शक्ति बढ़ाने वाली ब्राह्मी बूटी प्रमुख थी। हर्मेपोनिन मोनिए सानम नाम से जानी जाने वाली इस वनस्पति का सत्व इंजेक्शन द्वारा कुत्तों के मस्तिष्क में पहुँचाया गया, उससे कोर्टिकल भाग की क्रियाशीलता में अपेक्षाकृत अधिक तेजी पाई गई। इसके आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ब्रेन की सक्रियता और क्षमता में बढ़ोत्तरी आ गई। इसी प्रकार अन्य बूटियों पर भी उनने परीक्षण किये। सभी को वैद्यक शास्त्र में वर्णित उनके गुणधर्म के अनुरूप ही पाया गया।
आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में भी उपयुक्त आहार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपने मन में जमे कषाय-कल्मषों के ही कारण सबसे ज्यादा अवरोध उत्पन्न होता है। सात्विक आहार इन कल्मषों के निवारण का प्रथमोपचार है। इस प्रकार के शोधन उपचारों में पंचगव्य प्राशन और हविष्यान्न सेवन की चिर परम्परा है। गोरस में समाविष्ट सतोगुणी संस्कारों का बाहुल्य सर्वविदित है। गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोबर, गौमूत्र की आयुर्वेद में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई और उसे उदर रोगों तथा रक्त विकारों की अमोघ औषधि माना गया है। यही बात गोबर के संबंध में है। लीपने से स्थान शुद्धि और यज्ञाग्नि में प्रयुक्त होने के लिए उपलों की महत्ता बतायी गई है। उनका तनिक सा रस होम्योपैथी दवाओं की तरह कितने ही प्रकार के लाभ उत्पन्न करता है। पंचगव्य में यों गाय का दूध, दही, घृत ही प्रधान होता है। गौमूत्र और गोबर के रस की मात्रा अत्यन्त स्वल्प रहती है। इस सम्मिश्रण को यों आरोग्य की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी माना जा सकता है, साथ ही भावनात्मक शोध-उपचार की दृष्टि से भी उसका महत्व कम नहीं है। प्रायश्चित विधानों में पंचगव्य प्राशन का पग-पग पर निर्देश है।
हविष्यान्न में तिल, जौ, चावल इन तीन अन्नों की गणना है। इन्हें भी परम सात्विक सुसंस्कारों से युक्त माना गया है। यज्ञ कार्य में आहुतियाँ देने के लिए इन तीनों का उपयोग होता है। सामयिक अन्न संकट के कारण इन दिनों उनकी मात्रा घटा दी गई है पर प्रतीक रूप में उन्हें कुछ तो रखा ही जाता है। इन तीनों धान्यों को यज्ञ सामग्री में प्रयुक्त होने वाली औषधियों की तरह ही प्रतिष्ठा दी गई है।
तपस्वियों के सामान्य आहार में इन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है। कई तो गायत्री पुरश्चरण जैसी लम्बी तप साधनाएँ इनमें से किसी एक अथवा तीनों के सम्मिश्रण से पूर्ण करते हैं। सामान्य आहार में तीनों के सम्मिश्रण से पूर्ण करते हैं। सामान्य आहार में भी इनको आधार मानकर चला जाय तो उससे शरीर और मन में सात्विकता का अंश और बढ़ेगा, साधना-तपस्या में आशाजनक प्रगति होगी।
“जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाला निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है। कुधान्य खाकर अभक्ष्य अपनाकर किसी की तप-साधना ध्यान-धारण सफल नहीं हो सकती। ऐसा अन्न पेट में जाकर ऐसे उपद्रव खड़े करता है, जिनके कारण मन में न शाँति रहती है, न स्थिरता। इस विग्रह के निवारणार्थ साधक सबसे पहले अपने आहार में सात्विक तत्वों के समावेश का प्रयास करते हैं। इस प्रयोजन के लिए मिर्च-मसालों से रहित सात्विक अन्न सर्वाधिक उपयोगी है।
ब्राह्मणोपनिषद् में कहा गया है-”आहार शुद्धौ सत्वशुद्धौः ................” अर्थात् आहार पवित्र होने से अन्तःकरण पवित्र होता है। अन्तःकरण की शुद्धि से विवेक-बुद्धि प्रखर होती है। उस विवेक से अज्ञानजन्य निविड़ बन्धन खुलते हैं। अध्यात्म क्षेत्र के लोगों को यह तथ्य भलीभाँति ज्ञात होना चाहिए। आत्मिक उन्नति निर्विघ्न तभी जारी रह सकती है अस्तु साधकों को स्वविवेक अथवा अनुभवी मार्गदर्शक की सहायता से अपनी साधना के अनुरूप उपयुक्त सात्विक आहार का निर्णय और निर्धारण करना चाहिए। ऐसा आहार स्वास्थ्य की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण होता ही है, उसका मुख्य लक्ष्य अन्तःकरण चतुष्ट्य का स्तर तमोगुणी, रजोगुणी भूमिका से ऊँचा उठाकर सतोगुणी स्तर तक पहुँचाना है इसीलिए साधना विज्ञान में आहार को इतना महत्वपूर्ण माना गया है और उसके चयन में पूर्ण सतर्कता बरतने की सलाह दी गई है।