जानने को भो अभी बहुत कुछ कुछ शेष है !

March 1992

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भगवान ने यह सृष्टि बड़ी बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से बनायी है । उसकी सभी संरचनाएँ सोद्देश्य हैं । उसने एक-से एक बढ़ कर न जाने कितने जीवधारियों का निर्माण किया है । हर एक के पीछे मनुष्य के लिए बहुमूल्य शिक्षाएँ निहित हैं । मानवी बुद्धि के लिए आज यही सबसे बड़ी चुनौती है, कि वह स्रष्टा की उस शिक्षा को अनावृत्त कर अपने जीवन को अधिक सुखी सम्पन्न एवं उन्नतिशील-प्रगतिशील बनाये, जिसे उसने हर प्रकार के प्राणियों में सँजोयी है । विज्ञान ने इससे कुछ हद तक लाभ भी उठाया है । उसने पक्षियों को आकाश में उड़ते देखा, तो वायुयान बना डाला, मछलियों को पानी में तैरते देखा तो उसी के आकार-प्रकार (स्ट्रीम लाइन) के जहाज पनडुब्बी बना डाले । इसी प्रकार उसने और अन्यान्य जन्तुओं पर आधारित अनेक यंत्र-उपकरण विकसित किये, किन्तु इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी पदार्थ, प्राणी के सम्पूर्ण अविज्ञात का उद्घाटन कर लिया । सच तो यह है कि इनके अतिरिक्त भी अन्य अनेकों संभावनाएँ उनमें विद्यमान हो सकती हैं, जिनका अनावरण होना शेष है ।

मनुष्य ने आँख की बनावट देखी तो फोटो खींचने वाले कैमरे का आविष्कार कर लिया । उसकी इसी क्षमता के कारण आज हम घर बैठे रंग-बिरंगी तस्वीरें देखने में समर्थ हो सके हैं । इसे निश्चय ही मनुष्य की अद्भुत क्षमता और योग्यता कहनी चाहिए , पर विकास की गति यहीं अवरुद्ध नहीं हो जानी चाहिए, वरन् उसमें छिपी अन्य अगणित संभावनाओं पर आगे भी विचार होता रहना चाहिए, तभी हम किसी के सम्पूर्ण तथ्य को सत्य के रूप में हस्तगत कर सकते हैं, अन्यथा किसी जीव अथवा पदार्थ के कुछ रहस्य ज्ञात कर लेने के उपरान्त ही शोध कार्य रोक देने से हम उस सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते, जो हमारा चरम लक्ष्य है । हमारा उद्देश्य अर्ध सत्य से पूर्ण सत्य की ओर अग्रसर होना है, सम्पूर्णता को जानना है, किन्तु सम्प्रति विडम्बना यह है कि अर्थ को ही पूर्ण सत्य मान लेते एवं आगे उस पर विचार करना बन्द कर देते हैं जिससे हमारा हमारा ज्ञान एकाँगी व अधूरा बन कर रह जाता है जो निश्चय ही अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने की दिशा में मानवी प्रयास में एक गहरा आघात है ।

पिछले दिनों विज्ञान ने आँख के आधार पर फोटोग्राफी वाले कैमरे का विकास तो कर लिया, यह निस्संदेह सराहनीय बात है , पर उसकी अन्य संभावनाओं की उपेक्षा कर दी , जो विकास मार्ग में उपस्थित अवरोध कर सूचक है । कैमरे का विकास जर्मन शरीरशास्त्री विलियम कुन्हे के प्रयोग-परीक्षणों की ही परिणति कहना चाहिए, जो वस्तुतः आँख के देखने की प्रक्रिया समझना चाहते थे, फलतः अनेक जन्तुओं पर अनेक प्रयोग किये । इसी क्रम में एक दिन वे एक खरगोश पर प्रयोग कर रहे थे। उसे एक अँधेरे कमरे में रखा । तत्पश्चात कमरे की जालीदार खिड़की खोल दी और खरगोश का ध्यान उससे आने वाले प्रकाश की ओर आकृष्ट किया । फिर दस मिनट के लिए उसकी आँखों को काले कपड़े से ढँक दिया । इसके बाद दो मिनट के लिए कपड़े को आँखों से अलग कर दिया अब खिड़की से आने वाला प्रकाश उसकी आँखों में पड़ने लगा । तत्पश्चात् आँखों पर काली पट्टी पुनः बाँध दी । इसके उपरान्त खरगोश का सिर धड़ से अलग कर दिया । इतना करने के बाद कुन्हे से उसकी आँख की रेटिना निकाल कर उसे फिटकरी और नमक के मिश्रण के घोल में तीन दिन तक छोड़ दिया । चौथे दिन रेटिना में खिड़की का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा । इससे कुन्हे को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनने प्रयोग की त्रुटिहीनता सुनिश्चित करने के लिए इस प्रकार और कई परीक्षण किये । बन्दर पर भी ऐसा ही प्रयोग किया और परिणाम पूर्ववत प्राप्त हुआ । अर्थात् बन्दर को जो अन्तिम दृश्य दिखाया गया था, उसी का प्रतिबिम्ब उसकी रेटिना पर दृष्टिगोचर हुआ । अपराध करते हुए एक अपराधी की मृत्यु हो गई तो कुन्हे को मनुष्य में यह प्रयोग करने का अच्छा अवसर उपलब्ध हुआ । उनने उपरोक्त प्रयोग की पुनरावृत्ति की परिणाम यहाँ भी पूर्ववत पाया गया । अब कुन्हे को यह विश्वास हो गया कि उसका प्रयोग दोषरहित है । खरगोश की रेटिना में खिड़की का दृश्य किसी संयोग की परिणति नहीं, वरन् एक सुनिश्चित परिणाम का द्योतक था यह विचार उनके मन में दृढ़ हो गया ।

अब उनने यह सोचना प्रारंभ किया कि क्या उक्त प्रक्रिया द्वारा अपराधियों को पकड़ पाने में मदद मिल सकती है ? अपनी बहुचर्चित पुस्तक “इज इट पोसिबल टू स्पाट दि कल्प्रिट ?” में ऐसी ही अनेक संभावनाओं पर विचार किया है । इस संदर्भ में एक संभावना उनने यह यह व्यक्त की है , यदि अभियुक्त के साथ संघर्ष करते हुए व्यक्ति की आँखों में संघर्ष के तुरन्त बाद काली पट्टी बाँध कर किसी अँधेरी कोठरी में उसे रखा जाय और उसकी रेटिना पर अपराधी की बनी तस्वीर को किसी भाँति उभारा जा सके , तो दोषी को पकड़ पाना सरल हो सकता है । एक अन्य बड़ी ही विलक्षण संभावना का प्रतिपादन करते हुए वे लिखते हैं कि मनुष्य के परोक्ष और अतींद्रिय क्षमता सम्पन्न तृतीय नेत्र की भाँति ही वृक्ष-वनस्पतियों में ऐसे अनेकानेक अदृश्य नेत्र होते हैं, जिनके सहारे वे अभियुक्त को देख व पहचान सकते हैं। यदि घटनास्थल के पेड़ पौधे को किसी “पॉलीग्राफ” से संलग्न कर संदिग्ध अपराधियों को उसके निकट से बारी-बारी से गुजारा जाय तो संभव हैं, वृक्ष उसे समीप आते देख अपने भय-प्रदर्शन द्वारा विशेष प्रकार के ग्राफों से उसके अपराधी होने की सूचना दे दें। ऐसी ही कई और संभावनाओं का उनने उल्लेख किया है।

कोई भी कल्पना आरंभ में संभावना ही होती है। साकार रूप तो वह बाद में ग्रहण करती है। उपरोक्त संभावनाओं पर विज्ञान को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह सत्य के कितना करीब है। यदि ऐसा हो सका तो विज्ञान को न सिर्फ एक नई विधा हाथ लग सकेंगी, अपितु समाज को कई आपराधिक समस्याओं का सरल हल मिल सकेगा।

विज्ञान के क्षेत्र में किसी सिद्धान्त को शाश्वत सत्य मान लेना उसके साथ अन्याय करना होगा। वह हमें विराम नहीं, अविराम की शिक्षा देता है, स्थिरता नहीं, निरन्तरता की प्रेरणा देता है। इसी कारण से कल हम जहाँ थे, विज्ञान के क्षेत्र में आज उससे कहीं ऊंचाई पर और सत्य के अधिक निकट खड़े हैं यदि ऐसा न होता तो सापेक्ष-निरपेक्ष का अन्तर रह नहीं जाता और जो कुछ ढूँढ़ा जाता उसे पूर्ण सत्य मान लिया जाता, जिससे अनेक समस्याएँ उठ खड़ी होतीं एवं इससे विज्ञान की प्रगति भी प्रभावित होती। कभी आइन्स्टीन ने बड़े जोर देकर कहा था कि दुनिया में प्रकाश से अधिक लेत संभव नहीं। इस आधार पर उनने जैसे सूत्र की स्थापना भी कर ली, जिस पर अनेक गणितीय गणनाएँ आधारित हैं। तब इसे स्वीकार भी लिया गया, किन्तु अनन्त संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए प्रगति-यात्रा यहीं रुक नहीं गई, वरन् खोज आगे भी जारी रही। इसी के परिणाम स्वरूप हम “टैकियोन” जैसे प्रकाश से भी अति वेगवान कण ढूँढ़ सकने में सफल हुए और उपरोक्त सूत्रों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी।

अनुसंधान मात्र स्थूल पदार्थ-प्राणियों तक ही सीमित न होना चाहिए, अपितु चेतना क्षेत्र में भी समान रूप से गतिमान रहना चाहिए, तभी हम विज्ञान के साथ-साथ ज्ञान अर्थात् अध्यात्म क्षेत्र में उन्नति-प्रगति करते रह सकते हैं, जो निरपेक्ष है। यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य और उद्देश्य है। हमें इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।


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