अनाचार से निपट सकें, ऐसा सत्साहस जगे!

March 1992

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मनुष्य में सज्जनता, शालीनता, आत्मीयता, सद्भावना आदि आत्मिक विभूतियों की कमी नहीं। उन्हें जगाने के लिए समुचित प्रशिक्षण और अवसर दिया ही जाना चाहिए, पर भुला यह भी नहीं दिया जाना चाहिए कि संसार में पाप, अनाचार का आतंक भी कम नहीं है और उससे निपटने के लिए ऐसी समर्थता का उद्भव भी आवश्यक है जिसके प्रदर्शन मात्र से अनाचारियों के हौसले पस्त हो सकें। इस ओर इन दिनों एवं भविष्य में अनेकानेक दुष्परिणाम उत्पन्न किये बिना न रहेगी। वैयक्तिक एवं सामाजिक अनाचारों के विरुद्ध असहयोग, विरोध और संघर्ष करने की तैयारी को उतना ही महत्व मिलना चाहिए जितना कि सेवाधर्म के अनुरूप समृद्धि , शान्ति और सद्भावना के उन्नयन हेतु किया जाता है। खेती को खाद-पानी आवश्यक है, पर खर-पतवार उखाड़ने और कीटनाशक छिड़कने की आवश्यकता से इनकार नहीं किया सकता। रखवाली न की जाय तो न खेत बच सकते हैं न बगीचे, न देश सुरक्षित रह सकता है और न समाज में व्यवस्था कायम रह सकती है। अगले दिनों इस तथ्य को और भी अधिक उजागर, व्यवहारिक एवं कार्यान्वित करने की आवश्यकता पड़ेगी।

इन दिनों समाज में अनेकानेक प्रकार के कुप्रचलन अपराध, अनाचार गतिशील हैं। उनके ऊपरी रोकथाम के लिए पुलिस, अदालत आदि का राजकीय कानूनी नियंत्रण है, पर वह सफल नहीं के बराबर ही हो पाता है, अपराधी नगण्य अनुपात में पकड़े जाते हैं। जो पकड़े जाते हैं वे कानूनी कमजोरियों का लाभ उठाकर छूट निकलते हैं। जो जेल पहुँचते हैं वे वहाँ साथियों के परामर्श से और भी अधिक हरफन मौला होकर निकलते हैं ऐसी दशा में शासनतंत्र का सहयोग करते हुए भी पूर्णतया उस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है। हमें अपने पैरों खड़ा होना भी सीखना चाहिए। आत्मरक्षा के लिए इतनी सतर्कता, समर्थता और संगठन विनिर्मित करना चाहिए जिससे आक्रमणकारियों के हौसले पस्त होते रहें।

आक्रान्ताओं को अनाचार करने का साहस तभी पड़ता है जब कड़े प्रतिरोध के न होने के संबंध में वे निश्चिन्त हो जाते हैं। बकरे की बलि प्रायः सभी धर्म वाले चढ़ाते हैं, पर किसी का भी हौसला चीते एवं भेड़ियों को पड़कर बलिदान देने का नहीं होता। सिंह, व्याघ्र आमतौर से हाथी को नहीं छेड़ते। अतः दुर्बल स्तर के जन साधारण को संगठित होना चाहिए। परस्पर सघनता बढ़ानी और अनीति के विरुद्ध मिलजुल कर आवाज उठानी चाहिए। आन्दोलनों का रास्ता अपनाना चाहिए। आन्दोलनों का रास्ता अपनाना चाहिए। अनीति के आगे सिर न झुक ने की नीति अपनायी जाय तो इतने भर से आक्रमण की आधी आशंका समाप्त हो जाती है। असहयोग, विरोध और संघर्ष का वैध तरीका एकाकी भी अपनाया जा सकता है और मिलजुल कर भी। उसके लिए समुचित शौर्य पराक्रम सर्वसाधारण में उत्पन्न किया जाना चाहिए और यह मानस बनाना चाहिए कि किसी पर किया गया आक्रमण या अनाचार लोग अपने ऊपर किया गया आक्रमण या अनाचार लोग अपने ऊपर किया गया आक्रमण समझें और संत्रस्त की सहायता सुरक्षा में कोताही न रहने दें।

आज जब दूसरे पर हमला होता है तो अन्य लोग यह सोचकर चुप हो जाते हैं कि दूसरों की कटी में हम क्यों हाथ दें। लेकिन जब कल अपने ऊपर कुछ बीतती है तो आशा करते हैं कि दूसरे सहायता के लिए आगे आयें। यह दुहरी नीति कभी सफल नहीं हो सकती। अपनी निजी सुरक्षा के लिए भी दूसरों पर होने वाली अनीति में अपने को भागीदार होना चाहिए। इस आधार पर यदि अवाँछनीयता उन्मूलन के लिए आन्दोलनात्मक प्रयास चल पड़े तो उस आधार पर सभी की सुरक्षा के साथ-साथ अपनी सुरक्षा भी सुरक्षित हो सकती है। अग्निकाण्ड के फैलने से पहले ही सुलगती चिनगारी को बुझानी चाहिए। बाँध में बड़ा छेद होने पर बाढ़ आने तक उपेक्षा में नहीं बैठे रहना चाहिए वरन् छेद के देखते ही तत्परतापूर्वक उसे रोकने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। महामारी के व्यापक बन जाने पर उसके पीड़ितों को एक-एक करके सेवा करने की अपेक्षा यह अधिक कारगर है कि जिन कारणों से वह संकट उभरता है, उसके उद्गम स्थल पर ही काबू पाया जाय। बलिष्ठों की तुलना में दूसरा बलिष्ठ उसी स्तर का मिल सके, इस आशा में बैठे रहने पर काम चलने वाला नहीं है। जब हम अपनी समस्याओं से निपटने के लिए स्वयं ही साहस नहीं जुटा सकते, तो कैसे किसी से यह आशा की जाय कि वह पराई आग में कूदे?

समाज में एक ऐसा भावनाशील पराक्रमी वर्ग भी उभरना चाहिए जो पीड़ितों के लिए छतरी बन कर उन्हें दुष्प्रभावों से बचा सके। प्राचीन काल में क्षत्रिय इसी दायित्व को सँभालते थे। निजी विद्वेष प्रतिशोध के लिए तो कितनों को मोर्चा सँभालते देखा जाता है, पर आवश्यकता आज उनकी है जो सार्वजनिक हित को दृष्टि में रखते हुए अपने को दाँव पर लगाते हुए अनीति का प्रतिकार और न्याय का संस्थापन करने में समर्थ हो सकें। भगवान इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए अवतार लेते रहे हैं। जिन मनुष्यों ने इस प्रकार का व्रत धारण किया और साहस दिखाया उन्हें भी अवतार का प्रतिनिधि कहा जा सकता है।

सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में अनेकों परोपकारी धर्मोपदेशक, सेवाभावी संलग्न देखे जा सकते हैं। क्योंकि वह सरल भी है और उसके साथ यश श्रेय भी मिलता है किन्तु उससे भी महत्वपूर्ण एक पक्ष प्रायः पूरी तरह छूटा हुआ है जिसमें अज्ञान, अंधकार, अभाव और अनाचार के विरुद्ध मुहिम खड़ी की जाती है। ऐसी दुष्प्रवृत्तियां एक नहीं अनेकों हैं। दहेज, जेवर, धूम-धाम, बाल विवाहों ने सर्वसाधारण की आर्थिक कमर ही तोड़कर रख दी है। नशेबाजी और रिश्वतखोरी के कारण कितनों को कितना त्रास सहना पड़ रहा है, इसे सभी जानते हैं। नारी अवमूल्यन जाति पाँति से जुड़ा हुआ पिछड़ापन, भिक्षा व्यवसाय, अन्धविश्वास, भाग्यवाद, खाद्य पदार्थों में मिलावट मुनाफाखोरी, कर-चोरी, आलस्य, प्रमाद जैसी बुराइयाँ भी प्रायः उसी स्तर के दुष्परिणाम उत्पन्न करते हैं जैसे कि चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि से उत्पन्न होते हैं। अनाचार का आक्रमण अपने ऊपर या अपनों के ऊपर हो तभी सजग हुआ जाय और लोहा लिया जाय उसकी अपेक्षा यह सोचा जाय कि विपत्ति को समय रहते ही रोका जाना है। आक्रमण करने पर भेड़िये से निपटने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उसे माँद से निकलते समय ही धर दबोचा जाय।

व्यक्तिगत अहमन्यता अथवा प्रतिशोध के लिए तो आये दिन कड़े कदम उठते रहते हैं। उदारचेता व्यक्तिगत कारणों को सामान्य मानते हुए व्यापक अनाचारों से जूझने की योजनाबद्ध संगठित रूप से दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली रणनीति बनाते हैं।

अखाड़े व्यायामशालायें, स्काउटिंग आदि की आवश्यकता स्वास्थ्य संरक्षण से भी अधिक उस साहस को जगाने के लिए होती है जो सेवा धर्म अपनाने के अतिरिक्त अनाचार से लोहा लेने के लिए समुद्यत रहता है। संभवतः खेल-कूदों के पीछे भी प्रतिरोध की, प्रतिद्वन्द्वी को परास्त करने की भावना जगाने के लिए ही इतना बड़ा ताना बाना खड़ा किया जाता है। स्कूलों में प्रतियोगिताएं इसी निमित्त होती है। प्रतिस्पर्धाएँ जीतने में जिस प्रतिभा विकास का प्रत्यक्ष प्रोत्साहन है, उसमें परोक्ष रूप से यह भी समाहित है कि पिछड़ी स्थिति में रहने को अस्वीकार किया जाय। पिछड़ेपन में भीरुता, कायरता दीनता आदि की प्रधान भूमिका होती है। इन्हें दुर्गुणों में सम्मिलित किया जाय। भीरुता को दयालुता का आवरण ओढ़ने न दिया जाय तभी शान्ति का चिरस्थायी आधार बन सकेगा। अन्यथा कायरों द्वारा किया जाने वाला क्षमा प्रदर्शन अनेकानेक दुष्प्रवृत्तियों को खुला खेलने के लिए प्रोत्साहित करता रहेगा।

लोकमानस को भ्राँतियों से उबारने, न्याय के समर्थन में अड़ जाने और अनौचित्य के विरुद्ध सीना तानकर खड़े हो जाने का साहस यदि जगाया जा सके, तो इतने भर से वृत्रासुरों, हिरण्याक्षों, भस्मासुरों के सिंहासन हिल जाएंगे और वे जन समर्थन के अभाव में औंधे मुँह गिरने के लिए विवश होंगे। आक्रान्ताओं अपराधियों से भयभीत होकर न तो चुप बैठे रहने की नीति अपनायी जाय और न ही अनीति अवरोध के संदर्भ में अपने मतलब से मतलब रखने की स्वार्थपरता का ही परिचय दिया जाय। दूसरों पर बरती गयी अनीति कल अपने ऊपर भी उसी प्रकार हावी हो सकती है। इसीलिए अच्छा यही है कि अनाचार के उभरते ही उसको आरंभ में ही धर दबोचा जाय। जनशक्ति के सामने मुट्ठी भर आततायियों की शैतानी चालें निरस्त होकर रहेंगी, इस तथ्य पर सभी को विश्वास करना ही चाहिए।


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