हर दृष्टि से नफे का सौदा-दूरदर्शिता

March 1992

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जिनकी आँखों में खराबी होती है उन्हें बहुत पास का तो दीखता है, पर दूर की चीजें साफ नहीं आतीं । यही बात बुद्धिमत्ता पर भी लागू होती है । वह निर्मल और प्रखर होने पर दूरदर्शिता का परिचय देती है और धुँधली होने पर अदूरदर्शी बन जाती है । उसे क्या सोचना और क्या करना चाहिए, यह स्पष्ट रूप से सूझ नहीं पड़ता । नेत्र ज्योति क्षीण हो जाने पर प्रायः रास्ता चलते ठोकरें लगती हैं । काँटे चुभ जाने जैसे संकट भी आ खड़े होते हैं । साँप-बिच्छुओं से बच निकलने में भी चूक होती रहती है और उनका दर्शन सहना पड़ता है । विवेक दृष्टि के धूमिल हो जाने पर भी यही होता है ।

अदूरदर्शिता से तात्पर्य है दूरवर्ती परिणामों को न देख सकना । तात्कालिक लाभ पर आँखें मूँदकर टूट पड़ना । लालच इसी को कहते हैं । तुर्त-फुर्त अधिक मनोवाँछा पूरी करने की उतावली में प्रायः ऐसे अनर्थ बन पड़ते हैं जो पकने पर असाधारण कष्ट देते हैं । उस मक्खी का उदाहरण कितनों को ही विदित होगा, जो भरी कड़ाही की चासनी को एक बारगी उदरस्थ कर जाने के लालची में झपट पड़ी थी और पंख, पैर फँस जाने पर जान गँवाने के लिए विवश हुई थी, और भी ऐसे कितने ही प्राणी हैं । बहेलिये जरा सा दाना बिखेर कर चिड़ियों को जाल में फँसा लेते हैं । मछुए मछलियों को ऐसा ही लालच दिखा कर उन्हें बेमौत मरने के लिए सहमत करते हैं । ठगों का भी यह व्यवसाय है । वे मित्र बनाते हैं, लालच दिखाते हैं और भोले लोगों की बुरी तरह हजामत बनाते हैं । यदि इन फँसने वालों में भविष्य के खतरे समझने की अक्ल रही होती तो वे इतना भारी जोखिम उठाने से बच सकते थे।

उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए दूरगामी परिणति को समझ सकने की पैनी सूझ-बूझ चाहिए । उसके अभाव में अनगढ़ लोग मात्र तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठते हैं और उसी के लिए आकुल-व्याकुल होकर कुछ भी कर बैठने की मूर्खता करने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि स्थायी और महत्वपूर्ण उपलब्धियोँ के लिए आरंभ में धैर्य बरतना और लम्बे समय तक धैर्यपूर्वक प्रयत्नरत रहना पड़ता है । बीज को वृक्ष बनने में देर लगती है । अखाड़े में प्रवेश करके कोई पहलवान नहीं बन जाता । स्कूल में भर्ती होने के दिन से लेकर स्नातक बनने की अवधि लम्बी होती है । इस बीच छात्रों को घण्टों मनोयोगपूर्वक पढ़ना पड़ता है और पुस्तकों का फीस का खर्च उठाना पड़ता है । अध्यापकों की खरी खोटी भी सुननी पड़ती है । इतना धैर्य जिसमें न हो, जो भावी परिणामों की कल्पना न कर सके, उसे व्यायामशाला में, पाठशाला में, उद्यान आरोपण में झंझट ही झंझट दिखाई पड़ेगा । तत्काल तो उनमें प्रत्यक्ष घाटा और श्रम ही है । सत्परिणाम तो इतना कर गुजरने के बाद ही सामने आते हैं ।

अदूरदर्शी अकृत्य करते हैं । इस समय अपनी प्राथमिक सफलता पर फूले नहीं समाते और चतुरता का दावा भी करते हैं, किन्तु यह भ्रम कुछ ही समय में तिरोहित हो जाता है । स्वादिष्ट व्यंजनों को लोलुपतावश अधिक मात्रा में खाया तो जा सकता है, पर इसके कुछ ही समय बाद उदरशूल, उलटी दस्त आदि की जो व्यथा सहनी पड़ती है । यदि प्रारंभ में ही यह परिणाम सोच लिया गया होता तो व्यंजन थोड़ी मात्रा में खाये गये होते । स्वाद भी मिलता और अपच का शिकार होकर पाचन तंत्र को विकृत भी न बनाया गया होता । सभी जानते हैं कि अपच की सड़न ही सभी रोगों का प्रधान कारण है । इस कुचक्र में अदूरदर्शी ही फँसते हैं ।

कामुकता के आवेश में व्याकुल होकर कितने ही व्यक्ति सभी मर्यादाओं को लाँघ जाते हैं और अपने तथा सहयोग के शरीर का सर्वनाश करते हैं । सृष्टि के सभी प्राणी गर्भ-स्थापना के हेतु एक बार यौनाचार करते हैं और इसके बाद मादा की कोई प्रबल माँग न होने तक उस कृत्य से विरत रहते हैं । प्रायः वह संयम की अवधि वर्षों की होती है । उत्तेजक क्षण तो कुछ मिनट के लिए ही आते हैं । यही नियम सृष्टि के समस्त प्राणियों की तरह मनुष्य पर भी लागू होते हैं । पर जो अपनी जुनून को सब कुछ समझते हैं और प्रकृति-अनुशासन का पग-पग पर उल्लंघन करते हैं, उनकी हेकड़ी कुछ दिन तक ही फलित होती है । बाद में तो अपना और पत्नी का शरीर, मस्तिष्क बुरी तरह खोखला होने लगता है । नस-नस में दुर्बलता का प्रकोप चढ़ दौड़ता है और साथ ही अनेकों छोटे-बड़े रोगों का ऐसा सिलसिला चल पड़ता है जो जीवन पर्यन्त दुःख देता रहे । सन्तानें भी अनुवांशिक विकृतियों को लेकर जन्मती हैं और शारीरिक , मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से गये गुजरे स्तर की होती हैं । कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है , उससे जबड़ा छिलने पर जो रक्त निकलता है उसे चाट-चाट कर उसे हड्डी की उपलब्धि मान बैठता है, पर वस्तुतः यह अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा है । पैसों को फुलझड़ी के रूप में जलाकर बच्चे मजा तो लूटते हैं , पर यह भूल जाते हैं कि जेब कितनी खाली हो गई । इसी को कहते हैं अदूरदर्शिता ।

छल, प्रपंच, अपहरण, शोषण, आक्रमण, चोरी, बेईमानी जैसे अपराधी कृत्यों में लगने वाले भी तात्कालिक लाभ पर खुशियाँ मनाते और अपनी चतुराई का ढिंढोरा पीटते देखे जाते हैं, पर जब प्रतिशोध का, सामाजिक , राजनीतिक दण्ड का अवसर आता है तो भूल अनुभव करते हैं । सर्वसाधारण की दृष्टि में इज्जत गिर जाने प्रामाणिकता पर विश्वास उठ जाने के पश्चात् कोई भी व्यक्ति किसी का महत्वपूर्ण सहयोग अर्जित नहीं कर सकता । असहयोग इतना बड़ा अभाव है कि उसकी पूर्ति अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती । इज्जत गँवा बैठने के बाद आदमी के पास और कुछ ऐसा बच ही नहीं रहता जिसे महत्वपूर्ण कहा जा सके । ऐसे व्यक्ति सदा अपने को असुरक्षित और एकाकी अनुभव करते और प्रेत-पिशाच जैसी डरती-डराती जिन्दगी जीते हैं ।

मैला कपड़ा धुल जाता है । टूटे वर्तन दुबारा गल और नये साँचे में ढल जाते हैं, पर बिगड़े हुए मनुष्य का सुधरना मुश्किल पड़ता है । नशेबाजी की आदत यों तो हँसी खेल जैसे कौतूहल में पल्ले बँध जाती है ? पर पीछे उसका छूटना बहुत प्रयत्न करने पर भी संभव नहीं होता । लुच्चे-लफंगे , झूठे-प्रपंची इन आदतों को कुसंग में पड़कर सहज अपना लेते हैं, पर उनसे पीछा छुड़ाना कठिन पड़ता है । छोड़ भी दें तो उनका पुराना इतिहास ही लोगों के मन मस्तिष्क पर छाया रहता है और सुधर जाने पर भी बिगड़ी स्थिति की स्मृति और मान्यता बनी रहती है लोग नई अच्छाई को उतने गौर से को उतने गौर से नहीं देखते जितनी कि पुरानी बुराई का स्मरण रखते हैं । इस प्रकार व्यक्ति के एक बार बुराई के दल दल में फँस जाने पर वह उसमें से बहुत कुछ खोकर ही उबर पाता है । यह इतना बड़ा घाटा है जिसकी क्षति पूर्ति सहज ही नहीं हो सकती ।

यह सब क्या है ? इसे अदूरदर्शिता का प्रतिफल ही कहना चाहिए जिसमें बुरी आदतें अपना ली जाती हैं । यह नहीं सोचा जाता कि आँगन में बबूल विषवृक्ष बो लेने पर उसके कारण सदा खतरा ही बना रहेगा । साँप-बिच्छू पाल कर भी सतर्कतापूर्वक उनके दंशन से बचा जा सकता है, किन्तु कुटेवें तो पल-पल में काटती रहती हैं । वे दूसरों का जितना बिगाड़ करती हैं उससे कहीं अधिक अपने को हानि पहुँचाती हैं । आतुरतावश अनीति अपनाकर जो कुछ कमाया जाता है उससे हजार गुनी हानि अपनी निज की होती है । दूसरा तो एक बार चोट खाकर सँभल जाता है और फिर ऐसे दुरात्माओं के चंगुल में फँसने से सावधान हो जाता है । पर कुटेवें तो अपने को ही बदनाम करती , अप्रामाणिक घोषित करतीं और हर किसी को साथ न देने, दूर रहने के लिए सावधान करती रहती हैं । सहयोग और सम्मान से वंचित रहने वाला व्यक्ति अप्रामाणिक समझा जाता और उपेक्षित रहता है । ऐसे व्यक्तियों के लिए प्रगति का द्वारा एक प्रकार से बंद ही हो जाता है ।

जिन्हें भगवान ने दूरदर्शिता का वरदान प्रदान किया है, वे सदा भविष्य की बात सोचते हैं । उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने योग्य वर्तमान का निर्धारण करते हैं । किसान अपने खेतों के साथ लम्बे समय तक पूरी तरह गुँथा रहता है । खाद पानी , बीज, रखवाली, आदि के लिए पूरी सतर्कता बरतता और जेब से खर्च करता है, क्योंकि उसे यह विश्वास रहता है कि समय आने पर इसका समुचित प्रतिफल हस्तगत होगा । आमतौर से होता भी है । अपवाद तो यदा कदा ही होते हैं । माली अपने बगीचे में पूरी लगन और मेहनत के साथ जुटता है । तत्काल उसे कुछ लाभ नहीं होता, पर समय आने पर फल-फूलों के अम्बार से उसका घर भर जाता है । व्यापारी को भी व्यवसाय में आरंभिक पूँजी फँसानी पड़ती है । सरंजाम जुटाने में काफी दौड़ धूप करनी पड़ती है । कारीगरों से लेकर ग्राहक जुटाने में पैनी दृष्टि से खोज बीन करनी पड़ती है। आरंभ में तो खर्च और हैरानी ही सहन की जाती है किन्तु यह श्रम निरर्थक नहीं जाता । उसका समुचित लाभ समयानुसार मिलकर रहता है ।

विद्यार्थी, व्यायाम करने वाले, कला-कौशलों के अभ्यासी आरंभ के दिनों में मौज मजा करने की बात मस्तिष्क में आने तक नहीं देते, इसी का परिणाम यह होता है कि वे अगले दिनों अपने विषय में प्रवीण पारंगत बनते हैं और आरंभ में किये गये परिश्रम का समुचित लाभ उठाते हैं। यदि इन सबने अदूरदर्शिता अपनाई होती और तत्काल का विनोद-मनोरंजन, आराम और तत्काल का लाभ देखा होता तो किसी को भी बीज बोने और सुविकसित वृक्ष की छाया में बैठकर शीतलता प्राप्त करने का अवसर न मिला होता । बया पक्षी मनोयोग और घोर परिश्रम के साथ शानदार घोंसला बनाता है और उसका प्रतिफल बच्चों समेत धूप-वर्षा से बचकर आराम के दिन काटता है ।

सेवाभावी , परमार्थपरायण इसी नीति को अपनाते हैं और कुछ ही समय में लोकनायक की उच्चस्तरीय प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं । जन सहयोग से ऊँचे पदों पर पहुँचते हैं । अपनी यशोगाथा अभिनंदनीय, अनुकरणीय बनाते हुए इतिहास के पृष्ठो अमर छाप छोड़ जाते हैं । इसके विपरीत जिन्हें आज का, इसी क्षण का मौज-मजा अभीष्ट है, जो तुर्त-फुर्त लम्बा लाभ कमाना चाहते हैं वे चोरी ठगी का रास्ता अपनाते हैं । बदनाम होने से जेल जाने तक की प्रताड़ना भुगतते हैं। आरंभ में दुर्व्यसनी दुराचारी अपनी चतुरता पर प्रसन्न हो सकते हैं, और बढ़-चढ़ कर डींगें हाँक सकते हैं किन्तु यह कुकल्पना देर तक नहीं ठहरती काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती । पोल खुल जाने पर उनका बहिष्कार-तिरस्कार दूध में पड़ी मक्खी की तरह होता है ।

दूरदर्शी ही है, जो भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में समग्र एकाग्रता बरतते हैं । तन्मय, तत्पर होकर उज्ज्वल भविष्य को लक्ष्य मानकर उसकी साधना में एकनिष्ठ होकर जुटते हैं और अभीष्ट सफलता प्राप्त करके कृतकृत्य बनते हैं ।


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