क्यों करता अभिमान देह का, यह माटी की ढेरी रे यह माटी की ढेरी।
दर्पण में हर समय देह की, तूने छटा निहारी, तन तो धोया, मगर न तूने मन की धूल बुहारी, जगा-रोग से घिरी देह ने, किसका साथ निभाया, सत्कर्मों की राह पकड़ ले, करता अब क्यों देरी रे! यह माटी की ढेरी।
पंचतत्व से बना हुआ तन, बड़े भाग्य से पाया, यह धन है अनमोल, कहाँ पर तूने इसे लगाया, पुण्यों का आलोक मिला, तो होगा सुखद सबेरा, दुष्कर्मों की रात, समझ ले, होगी बहुत अँधेरी रे! यह माटी की ढेरी।
कि या न जप-तप तूने मन से, केवल किया दिखावा, साधुवृत्ति न हुई, पहनकर संतों का पहनावा, तिलक लगाकर ऐंठा, निष्ठुर बनकर समय बिताया, अहंकार से भरकर तूने, माया बहुत बखेरी रे! यह माटी की ढेरी।
नगर-गाँव में नहीं निभाया, तूने भाई-चारा, असहायों को कभी किसी पल, तूने नहीं दुलारा, सही-गलत का बिल्कुल तुझको, ध्यान नहीं रह पाया, अपने हित में करीं हजारों, तूने हेरा-फेरी रे! यह माटी की ढेरी।
अपनी चिंता छोड़ सभी की खैर मनानी होगी, जन-मंगल की राह हमें, अब तो अपनानी होगी, गाँव घिरा लपटों में, तब कैसा सिंगार सजाना, झुलस रही सारी धरती है, क्या तेरी क्या मेरी रे! यह माटी की ढेरी।
-शचीन्द्र भटनागर