आत्मसंतोष प्राप्त कर सकूँ (Kahani)

March 1992

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महाभारत समाप्त हो जाने पर विज्ञजनों की गोष्ठी में यह विचार होने लगा कि कौरव 100 थे साथ ही उनकी सेना भी बड़ी तथा समर्थ भी । फिर भी पाँच पाण्डवों की छोटी सेना से क्यों हारे ?

उत्तर देते हुए संजय ने कहा कि कौरवों में से प्रत्येक महत्वाकाँक्षी था और उद्दंड था उनकी आपसी खींचतान में अधिकाँश शक्ति नष्ट होती रही । इसके विपरीत पाण्डव छोटी संख्या में होते हुए भी परस्पर सहयोग और अनुशासन की कड़ी में बँधे रहते थे । उनकी एकजुटता ने उन्हें सफल बनाया ।

सभी सुनने बालों का उचित समाधान हो गया ।

महर्षि मुदगल को उनके अन्त समय में स्वर्गलोक से विमान लेकर देवदूत आये ।

महर्षि ने चलने से पूर्व स्वर्ग की परिस्थितियों का विवरण पूछा । मालूम हुआ कि वहाँ भोग विलास की विविध विधि सामग्री का बाहुल्य है ।

वहाँ कोई सेवा करने योग्य सुयोग है क्या ? ऋषि के इस उत्तर में देवदूतों ने सिर हिला दिया । और कहा वहाँ तो सभी के पास सब कुछ है । कोई दुखी नहीं फिर सेवा को स्वीकार कौन करेगा ?

महर्षि ने स्वर्ग चलने से इनकार कर दिया । और कहा मुझे धरती पर ही जन्म दिया जाय ताकि दीन−दुःखियों की सेवा करने-पिछड़ों को उठाने का आत्मसंतोष प्राप्त कर सकूँ मुझे यही प्रिय है । उनकी इच्छानुसार उन्हें धरती पर ही रहने दिया गया ।


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