परमपूज्य गुरुदेव : लीला प्रसंग

March 1992

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लीला प्रसंग प्रकरण के अंतर्गत परम पूज्य गुरुदेव से जुड़े “ऑकल्ट” विवरणों को उनकी सिद्धि के घटना क्रमों को पढ़कर किसी बुद्धिजीवी वर्ग के पाठक को लगे कि “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका के प्रतिपाद्य विषय से कुछ हटकर यह विवेचना किस कारण प्रस्तुत की जा रही है तो उन्हें हम बताना चाहेंगे कि वस्तुतः यह स्तंभ भी पूरी तरह “अखण्ड ज्योति” के संकल्पों की परिधि के भीतर ही है। 1938 में हाथ से लिखा प्रथम अंक वसंत पंचमी पर निकलने वाले तथा 1940 की वसंतपंचमी से उसका अधिकृत छपा हुआ प्रथम संस्करण प्रकाशित करने वाले परम पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर एक ही विषय को बहुविध रूप में संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया। वह यह कि मानव में अनन्त संभावनाएँ छिपी पड़ी हैं व उन्हें विकसित कर वह देवमानव सिद्धि पुरुष-देवदूत स्तर तक पहुँच सकता है। हर व्यक्ति एक शक्तिपुँज है। यदि आत्महीनता से उबरा जा सके तो वस्तुतः असंभव दीख पड़ने वाला पुरुषार्थ भी संभव है, महामानवों के आप्तवचनों के द्वारा अभिव्यक्त इस संदेश को परम पूज्य गुरुदेव ने बड़े ही व्यावहारिक रूप में अपनी लेखनी के माध्यम से प्रकट किया।

आज जब चमत्कारों के नाम पर नाना प्रकार के जाल धर्मतंत्र के अंदर ही बुने जाते व उनमें अगणित भोले व्यक्ति फँसते देखे जाते हैं तो सर्वसाधारण के शिक्षण के लिए यह जरूरी है कि उन्हें बताया जाय कि सिद्धियाँ विकसित अतिचेतन का ही एक रूप हैं। उनका लक्ष्य व उद्देश्य हर पुरुषार्थपरायण व्यक्ति को लोकमंगल में नियोजित होते हुए आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देने के लिए होना चाहिए। अकारण हर किसी पर सिद्धि चमत्कारों की वर्षा व उनका खुला प्रदर्शन परमपूज्य गुरुदेव ने जीवन भर नहीं किया तथा वस्तुतः इसके विरुद्ध ही लिखते रहे। उनकी “साधना से सिद्धि” उक्ति का अर्थ था-”जीवन का परिष्कार” चिंतन का कायाकल्प व परिस्थितियों का अनुकूलन।” व्यक्ति यदि संकल्पबद्ध पुरुषार्थ करे तो सिद्धियाँ स्वयं उस पर आकर बरसती हैं, यह उनने जीवन भर प्रतिपादित किया। सर्वसाधारण को संभवतः इस तथ्य पर विश्वास न हो अतः हमने यही उचित समझा कि एक साक्षी के रूप में, जीती जागती चित्रकला के रूप में परमपूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़े उन प्रामाणिक प्रसंगों को ही सबके सम्मुख रख दिया जाय ताकि वे स्वयं निर्णय लें कि यह सब क्यों व कैसे हो पाना शक्य बन पड़ा?

स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की विवेचना कई बार ‘अखण्ड-ज्योति’ के पृष्ठो पर की जा चुकी है। फिर भी एक स्पष्टीकरण के नाते स्थूल शरीर तो वह है जो अभिव्यक्त है। जिसमें अन्नमयकोश व उसमें संव्याप्त प्राणसत्ता का अंश आता है। जीवनी शक्ति व विकसित शरीरबल के रूप में यह बहिरंग में दिखाई देता है। सूक्ष्मशरीर मन की प्रसुप्त सामर्थ्यों से संबंधित है जिनकी जाग्रति मनोमयकोश व विज्ञानमयकोश के अनावरण द्वारा अतीन्द्रिय क्षमताओं से लेकर त्रिकालज्ञ स्तर की सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। संकल्पशक्ति, प्रखर जीवट भरा मनोबल तथा बंधक सामर्थ्य द्वारा दूसरों को पढ़कर सब कुछ जान लेना, यह सब इसी के अंतर्गत आता है। इसी शरीर की परिधि में यह भी स्पष्ट होता है कि व्यष्टिमन, समष्टिमन का एक अंग है व देश-काल से परे वह कहीं आ-जा सकता है। विलक्षण स्तर की दीख पड़ने वाली विचार संप्रेषण पूर्वाभास जैसी क्षमताएँ बौनी जान पड़ती है, जब हम सूक्ष्म शरीर के विकास का विराट रूप देखते हैं। तीसरा कारण शरीर है जो भावसंवेदनाओं से भरे सरस अंतःकरण का पर्याय है। रसानुभूति, आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना करुणा का मानव मात्र के लिए जागरण तथा परहितार्थाय अपना सब कुछ होम देने की आकाँक्षा का विकास इसी स्थिति में होता है। जीव-ब्रह्म मिलन से लेकर ईश्वर साक्षात्कार और बंधनमुक्ति से लेकर समाधि के चरम सोपान की स्थिति में जा पाना इसी शरीर के विकास द्वारा संभव बन पड़ता है। यह आनन्दमयकोश के जागरण का सहस्रारदल कमल के प्रस्फुटन व विकास का द्योतक है। संक्षेप में यह सिद्धियों का एक प्रकार से “एनाटॉमीकल” विश्लेषण हुआ।

जब हम परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवन पर एक दृष्टि डालते हैं तो यह सारे प्रसंग उनके 80 वर्षीय लम्बे जीवन में चरितार्थ होते दिखाई देते हैं। नीरोग, दीर्घायुष्य भरा जीवन न केवल स्वयं उनने जिया वरन् अपने जीवनक्रम से अनेकों को प्रेरणा दी व रोगी स्तर के व्यक्तियों से लेकर मृत्यु के मुख में जा पहुँचे परिजनों को भी प्राणदान देकर उन्हें नया जीवन दिया। यह एक ऐसी सिद्धि है जो गिने चुने विकसित स्तर के देवमानवों से लेकर अवतारी स्तर की सत्ता में ही पायी जाती है।

परमपूज्य गुरुदेव का जीवन खुले पृष्ठो की एक किताब के रूप में हम सबके समक्ष रहा है। अर्थ से लेकर समय एवं जिव्हा से लेकर विचारों के संयम का जो भी समग्र आदर्श रूप हो सकता है वह उनके जीवन में देखने को मिला। प्रत्यक्ष जीवन से तो उनने प्रेरणा दी ही, लेखनी से भी यही शिक्षण दिया। उनका व्यावहारिक अध्यात्म यही था। उस स्थूल के साथ जुड़ा कुछ ‘ऑकल्ट’ भी है जो “लीलाप्रसंग“ संदर्भ के तहत हम बताना चाहेंगे। पूज्य गुरुदेव ने चौबीस वर्ष तक चौबीस महापुरश्चरण गौ दुग्ध से बनी छाछ व जौ की रोटी ग्रहण कर एक कड़ी तप तितिक्षा के रूप में खण्ड-खण्ड में संपन्न किए। यह निर्देश उन्हें 1926 में मिला था व पूर्णाहुति जब उनने अंतिम अनुष्ठान पूरा किया, 1953 में सम्पन्न की गयी। बीच-बीच में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण व्यवधान पड़ने से यह सत्ताईस वर्ष में पूरा हुआ परंतु नियम कड़ाई से निभता रहा। इसी अवधि में दो वर्षों के लिए वे नैमिषारण्य तीर्थ जाकर रहे। उनके साथ हरिद्वार के ही कनखल स्थित एक आश्रम के महन्त भी वहाँ थे जो साक्षी देते हैं कि चूँकि वहाँ जौ जो गाय के गोबर से निकली ही उपलब्ध नहीं थी, चक्रतीर्थ सरोवर में भक्तों द्वारा चढ़ाए गए चावलों को बीनकर पूरे चौबीस घण्टों में मात्र एक बार मात्र डेढ़ छटाँक मात्रा में लेते थे व सतत् गायत्री जप में संलग्न रहते थे। बीच में तीन-तीन घण्टे तक सरोवर में कमर तक पानी में खड़े रह सतत् सूर्य की ओर मुख करके ध्यान करते थे। यह प्रसंग संभवतः हममें से बहुतों की जानकारी में नहीं है।

अपनी तपश्चर्या द्वारा जो सिद्धियाँ उनने अर्जित की उन्हें वितरित करने का क्रम जारी रखा। गुजरात की अहमदाबाद की तारा बहन के साथ रहने वाले परिजनों को अभी भी याद है कि किस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने अपनी वरदान द्वारा उन्हें एक ऐसी व्याधि से मुक्त कराया जिसका निदान कोई नहीं कर पाया था। वे जो भी खातीं, तुरंत उलटी हो जाती। चिकित्सकों का कहना था कि बहुत कम मात्रा में बार-बार तरह द्रव्य लें। चूँकि आमाशय के आगे मार्ग सँकरा है। कभी भी ठोस या अर्धतरल द्रव्य उनके पेट में आगे नहीं बढ़ सकेगा, उसके हमेशा उलटी होने या फिर सर्जीकल इमरजेन्सी पैदा होने की संभावना अधिक है। अपने गुजरात प्रवास में वे भी परमपूज्य गुरुदेव के दर्शन को गयीं। चर्चा के दौरान ही मेजबान ने कहा कि “पूज्यवर! आप भोजन करलें। समय हो गया है” गुरुदेव भगवान ने अपने साथ उस बहन को भी लिया व उसके लिए भी एक थाली लगवायी। वह कहती रही मैं भोजन नहीं कर पाऊँगी। सारा भोजन उलटी में बाहर निकल जाएगा। परमपूज्य गुरुदेव ने जोर दे कर कहा कि “तू तो खा बेटा। हम यहाँ बैठे हैं। कोई दिक्कत हो तो हम देखलेंगे।” देखते-देखते वह बहन पूरा भोजन ग्रहण कर गयीं व आश्चर्य कि भोजन बाहर भी नहीं आया न ही वैसा कुछ आभास हुआ कि उलटी हो सकती है। वह दिन उनके कष्टों के समापन का दिन था। उस दिन के बाद से अब तक वे सहज रूप में भोजन करती रहीं हैं। एक “मेकेनिकल” तकलीफ कैसे दूर हो गयी इसका किसी चिकित्सक के पास कोई समाधान नहीं है। क्या कोई बता सकता है कि इस प्रक्रिया का विश्लेषण विज्ञान की किस पद्धति से किया जाय? यह मात्र इसी आशय से कहा जा रहा है कि परमार्थ हितार्थाय ही स्व उपार्जित सिद्धियों का सुनियोजन महामानव करते आए हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने उसी परम्परा का निर्वाह किया।

पनवाड़ी हमीरपुर के श्री कुँजबिहारी लाल गुप्ता के पुत्र रामबिहारी गुप्ता 1982-83 में रुड़की यूनिवर्सिटी के केमिकल इंजीनियरिंग में एम. टेक. कर रहे थे। एक दिन एक वज्रपात सा हो गया। कमर की हड्डी में दर्द व सूजन आ जाने से तुरंत डॉक्टर को दिखाया। 4-5 दिन बिस्तर पर रहना पड़ा। एक्सरे रक्त आदि की जाँच से चिकित्सकों ने निष्कर्ष निकाला कि यह तो जोड़ो व अस्थियों की टी. बी. है एवं इसमें बड़ी तेज औषधियाँ डेढ़ वर्ष तक लेनी ही नहीं होंगी, चलना फिरना भी प्रभावित होगा। अपने माता-पिता को उनने सूचना दी। तकलीफ पता चलने के 10 दिन के अंदर ही श्रीरामबिहारी अपने माता-पिता सहित परमपूज्य गुरुदेव की शरण में आ गए व प्रार्थना की कि अब तकलीफ से मुक्ति दिलाएँ व पढ़ाई में किसी प्रकार का व्यवधान न आने दें। पूज्यवर ने स्थान को स्पर्श करके कहा कि “अरे बेटा। किसी ने गलत डायग्नोसिस कर दी है। तुझे टीबी जैसी कोई बीमारी नहीं है। जा हमारी जड़ी बूटी की दवा एक महीने ले ले व अच्छे नम्बरों से पास होकर विदेश से नाम कमाके आ।” आशीर्वचनों का प्रभाव यह पड़ा कि वे बिना किसी तकलीफ के तो तुरंत चलने लगे, एलोपैथिक औषधियाँ बंद कर दी तथा एक माह तक शाँतिकुँज के चिकित्सकों की बताई दवा ली। दवा तो निमित्त मात्र थी। रोग तो उसी दिन दूर हो गया था। श्रीराम बिहारी ने प्रथम स्थान लेकर अपनी पढ़ाई पूरी की तथा अपनी पत्नी दीप्तिशिखा (सुपुत्री शालिग्राम गुप्ता) के साथ अमेरिका में रहकर पी.एच.डी. कर रहे हैं। साथ ही असोशिएटेड प्रोफेसर की पोस्ट पर हैं व कई अमेरिका निवासी प्रवासी छात्रों के प्रिय अध्यापक हैं। दोनों पति-पत्नी गायत्री का खूब प्रचार करते हैं व स्वयं को उनकी कृपा का जीता जागता नमूना बताते हैं।

उत्तरप्रदेश शासन में इस समय सचिव पद पर कार्यरत एक गायत्री परिजन पूज्यवर की आज्ञा ले कर शासकीय कार्य से दो माह के लिए 1988 में अमेरिका गए। जाते समय की तैयारी पर उन्हें याद आया कि पूज्यवर तथा वंदनीया माताजी ने उन्हें निर्देश दिया था कि विदेश की यात्रा कभी अकेले नहीं सपत्नीक ही करें अतः पत्नी जो चिकित्सक थीं, उनका भी पासपोर्ट, वीसा टिकट आदि बनवाया गया। अमेरिका में पिट्सवर्ग (क्कद्बह्लह्लह्यड्ढह्वह्द्दद्ध) में उन्हें दो माह तक विशेष अध्ययन हेतु संगोष्ठी में भाग लेना था जो दिन भर चलती थी। एक दिन सहसा उन्हें लगा कि एयरपोर्ट पर उतरने पर थोड़ी जो साँस फूलने की शिकायत हुई थी व तुरंत ठीक हो गयी थी अब फिर से हो रही है व साँस लेना उनके लिए अब मुश्किल हो रहा है। साधारण सी तकलीफ मानकर खिड़की के पास जाकर खुली हवा में साँस लेकर फिर मीटिंग में बैठे पर कुछ ही देर में बेहोशी सी आने लगी। उन्हें होश अस्पताल में आया, जहाँ चिकित्सकों ने उन्हें बताया कि उन्हें बड़ा तेज स्तर का दिल का दौरा पड़ा था तुरंत उनकी पत्नी को सूचित कर उन्हें समीप के ही एक अस्पताल की “इन्टेन्सिव केयर यूनिट” में भर्ती किया गया। परीक्षण पर ज्ञात हुआ कि हृदय की धमनियों में प्रमुख में 99 ' ब्लाकेड था। उनने बैलून डालकर तुरंत उसे कम कर धमनियों के रक्तप्रवाह को ठीक कर दिया गया। एक सप्ताह में ही अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। चूँकि उनकी चिकित्सक श्रीमती जी साथ थीं व वे तकनीकी दृष्टि से अतिविकसित अमेरिका में थे, उन्हें चिकित्सा सेवा तुरंत सुलभ हो गयी व देख−रेख भी उनकी पत्नी करती रहीं। उन्हें आश्चर्य था कि कभी भी भारत में ऐसी तकलीफ उन्हें नहीं हुई व जब पहली बार यह हुई तो ऐसे स्थान पर जहाँ कुछ ही दूरी पर कुशल चिकित्सा ही नहीं परिपूर्ण सघन देख−रेख संबंधी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। वे सोच रहे थे कि यदि परम पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद न होता तथा वे अकेले होते तो अपने देश से 10 हजार किलोमीटर दूर इस स्थान पर कैसे यह सब हो पाता। वे आज पूर्ण स्वस्थ हैं व अपनी दीर्घायुष्य के लिए परमपूज्य गुरुदेव व वंदनीया माताजी का आशीर्वाद ही मूल में पाते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से उन्हीं के निर्देशों के अनुरूप जीवन जीने को संकल्पित यह अधिकारी महोदय क्रमशः उच्चतम सोपानों पर बढ़ते ही चले जा रहे हैं। हाँ, पूर्णतः स्वस्थ तो है ही।

यह कुछ प्रसंग मात्र कौतुक-कौतूहल पैदा करने के लिए नहीं एक परोक्ष सत्ता का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए उद्धत किए गये हैं। एक ऐसी सत्ता जो समाज को समर्पित हर श्रेष्ठ संस्कारवान आत्मा के लिए एक सुरक्षा कवच का प्रावधान बनाए रखती हैं। तप से अर्जित यह पूँजी परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद भी उतनी ही नहीं, और भी सशक्त रूप में व व्यापक रूप में सक्रिय है। इस संबंध में अगणित प्रमाण अगले कुछ अंकों में परिजन पढ़ेंगे। (क्रमशः)


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