“मैं स्पष्ट देख रही हूँ उत्तरी भारत का वह पवित्र स्थल, जहाँ एक प्रचण्ड पुरुषार्थ संत अपनी सतत् साधना में संलग्न रह कर ऐसे दिव्य आध्यात्मिक प्रवाह विकीर्ण कर रहे हैं, जो अगले दिनों समस्त संसार में युगान्तरकारी परिवर्तन लाने में समर्थ सिद्ध होंगे। उनके आध्यात्मिक विचार इतने क्रान्तिकारी होंगे कि उस चिनगारी के ज्वालमाल में बदलने और देखते-देखते पूरी दुनिया में फैल जाने का दृश्य लोगों को आश्चर्य में डाले बिना न रहेगा। लोग उनकी सशक्त, प्रगतिशील और वर्तमान समस्याओं का सर्वमान्य हल सुझाने वाली विचारधारा को अपनाने में ही अपनी एवं सम्पूर्ण विश्व की भलाई समझेंगे। इस प्रकार विश्व धीरे-धीरे अध्यात्म की ओर झुकता चला जायेगा और पूर्णतः अध्यात्मवादी बन जायेगा, जो लम्बे काल तक लोगों को इस धरित्री में ही स्वर्ग की सुखद अनुभूति कराता रहेगा।”
यह उद्गार हैं, न्यूजर्सी (अमेरिका) की मूर्धन्य भविष्यद्रष्टा फ्लोरेंस के अब से तीन दशक पूर्व देखे भविष्य को पुस्तकाकार रूप देते हुए “गोल्डन लाइट आफ न्यू एरा” में वे लिखती हैं-”जब मैं ध्यान की अतल गहराई में उतरती हूँ, तो मुझे हमेशा एक गौर वर्ण श्वेत केशों वाले दाढ़ी-मूंछ रहित ऐसे महापुरुष के दर्शन होते हैं, जिनका चेहरा दिव्य तेज से उद्भासित दिखाई पड़ता है। प्रतीत ऐसा होता है, मानों सैंकड़ों टिमटिमाते दीपकों के मध्य कोई अति प्रकाशवान महासूर्य विद्यमान हो, जो अपनी आभा और ऊर्जा से न सिर्फ आस-पास के दीपकों को अनुप्राणित कर रहे हों, वरन् समस्त संसार में अपनी किरणें बिखेर कर उसे प्रकाशित करने में संलग्न हों। इस प्राणदायी प्रकाश से लोग उस ओर ऐसे खिंचते दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे पतंगे दीपक प्रकाश की ओर आकर्षित होते चले जाते हैं। इस प्रकाश-प्रेरणा से लोग स्वयं में एक असाधारण परिवर्तन अनुभव करेंगे, जिससे एक ऐसी महाक्रांति का उद्भव होगा, जिसे तत्कालीन लोग ‘विचार-क्राँति’ के नाम से अभिहित करेंगे।”
“इस क्रान्ति से भौतिकवादी मान्यताएँ बदलेंगी और बुद्धिजीवियों में ऐसी चिन्तन चेतना का विकास होगा, जिसे अध्यात्मवादी सोच कहने में किसी को कदाचित ही संकोच हों। इस नयी सोच के उन्नयन से अध्यात्मवाद एक बार पुनः सम्पूर्ण विश्व में प्रतिष्ठित होगा। तब सब एक धर्म (मानव धर्म) एक राष्ट्र (विश्व राष्ट्र) के पक्षधर होते दिखाई पड़ेंगे। पूरी दुनिया में उक्त संत की विचारधारा की धूम मच जायेगी। विभिन्न धर्मावलम्बी उन्हें अपने-अपने धर्म व जाति के मार्गदर्शक मानेंगे। मुसलमानों में उनकी प्रतिष्ठा पैगम्बर मुहम्मद के रूप में होगी। ईसाई लोग उन्हें प्रभु ईशु का ही दूसरा रूप मानेंगे, जबकि हिन्दुओं में वे भगवान के दशम अवतार के रूप में पूजित होंगे। उनकी शक्ति इतनी असाधारण और अद्भुत होगी कि जन-चेतना में नवीन प्रेरणा भरना और प्रकृति के बिगड़ते संतुलन को नियमित-नियंत्रित करना उनके लिए सामान्य सी बात होगी एवं देखते-देखते सम्पादित हो जायेगी। उनका बालसुलभ व्यवहार और धवल व्यक्तित्व लोगों को घसीटते हुए अपने निकट ऐसे इकट्ठा कर लेगा कि एक विशाल चतुरंगिणी सेना देखते-देखते गठित हो जायेगी तथा सृजन-सेनानियों की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आयेगी।”
इसके अतिरिक्त फ्लोरेंस ने अन्य अनेक भविष्यवाणियाँ की हैं, जिनमें मध्यपूर्व एशिया, यूरोप एवं अमेरिका के विविध देश सम्मिलित हैं। इनमें से अधिकाँश सत्य सिद्ध हो चुकी हैं, किन्तु अनेक अभी भी ऐसी हैं, जिनकी सत्यता प्रमाणित होनी बाकी है। हमें आशा करनी चाहिए कि आगामी समय के संबंध में उनके द्वारा की गई भविष्यवाणी भी सही सिद्ध होकर रहेगी। इसी से संबंधित उनने एक दूसरी पुस्तक लिखी है, जिसमें सन् 2000 एवं इससे आगे आने वाले समय की चर्चा है। अपनी उक्त बेस्ट सेलर पुस्तक “दि फाल ऑफ सेंसेशनल कल्चर” में लिखतीं हैं-”सन 2000 के आस-पास प्राकृतिक विपदाओं का ऐसा क्रम चल पड़ेगा जिसे देखते हुए यह कह सकना कठिन हो जायेगा कि यह सृष्टि सुरक्षित बची रह जायेगी, किन्तु बाद में लोगों की यह आशंका निर्मूल साबित होगी। वे देखेंगे कि इन्हीं विभीषिकाओं के बीच सृजन की संभावना भी छिपी हुई है, जो धीरे-धीरे पूर्व के अरुणोदय की तरह निकलती हुई कालक्रम में प्रचण्ड दिनमान का रूप धारण कर अपनी ऊष्मा से पूरी धरती को ओतप्रोत कर देगी। फिर न कहीं अराजकता दिखाई पड़ेगी , न अशान्ति वरन् सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य दृष्टिगोचर होगा। गरीब- अमीर और ऊँच नीच की भौतिकवादी दीवार ढह जायेगी तथा एकता-समता परक अध्यात्मवादी दृष्टिकोण का विकास होगा। लोग परस्पर सौहार्द्रपूर्वक रह सकेंगे। उनमें एक ऐसी भावना पनपेगी, जो एक वृहत्तर परिवार को जन्म देगी जिसमें रहते हुए लोग “आत्मवत् सर्वभूतेषु” एवं “वसुधैव कुटुँबकम्” का साकार स्वरूप मूर्तिमान होते देख सकेंगे, किन्तु यह दिन देखने से पूर्व मनुष्य को प्रसव-पीड़ा की असह्य वेदना भी झेलनी पड़ेगी, उसी के उपरान्त
उसके सौभाग्य-सूर्य का उदय होगा।”
सन् 2000 से पहले के कुछ दशक ऐसे ही संत्रासों एवं विक्षोभों से भरे होंगे। लोग एक-दूसरे की जान का ग्राहक बनते दिखाई पड़ेंगे। अराजकता अपनी चरमसीमा पर होगी। चहुँ ओर ईर्ष्या-द्वेष का बोलबाला होगा? अशान्ति इस कदर बढ़ेगी, जिसकी तुलना जल से बाहर तड़पती मछली से की जा सके। मत्स्य-न्याय के जंगली कानून के अंतर्गत लोग मरते-मारते नजर आयेंगे। नीतिमत्ता को ताक पर रख दिया जायेगा और ‘जिसकी लाठी तिसकी भैंस’ की अनीति बरतते किसी को संकोच न होगा। मनुष्य की दुर्बुद्धि से उपजा पर्यावरण-प्रदूषण इस संकट में आग में घी का काम करेगा व मनुष्य जाति को सामूहिक मरण के कगार पर ला खड़ा करेगा, किन्तु साथ-साथ चलने वाली निर्माण प्रक्रिया के अंतर्गत उत्तरी भारत से उठने वाली आध्यात्मिक चेतना की लहर 21 वीं सदी के प्रारंभ में इतनी तीव्र व प्रबल हो उठेगी, कि एक समय में काली घटा से गहराते संकट देखते-देखते तूफान में पड़े तिनके की भाँति अपना अस्तित्व गँवाते नजर आयेंगे। लोगों को एकता-समता का महत्व समझ में आने लगेगा तथा परस्पर भ्रातृभाव विकसित करने को उत्सुक प्रतीत होंगे। उस विचार-चेतना से मध्यम वर्ग सर्वाधिक प्रभावित होता दीख पड़ेगा किन्तु यह भी बात नहीं कि सम्पन्न वर्ग इससे अछूता रह जायेगा। धन के दुरुपयोग का दुष्परिणाम उसे स्पष्ट नजर आने लगेगा। तथाकथित बुद्धिजीवियों की तर्कबुद्धि विश्वास बुद्धि में परिणत हो जायेगी। उनमें श्रद्धा, आस्था और बुद्धि का सहज समन्वय भासने लगेगा। यह विचारधारा बुद्धिवादी नास्तिकों में भी यह विश्वास पैदा करने में समर्थ हो सकेगी कि धर्म और विज्ञान एक-दूसरे से पृथक नहीं, वरन् एक दूसरे के पूरक हैं। गाड़ी के दो पहिये की तरह इनका साथ-साथ रहना ही मानवी प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है, अन्यथा एकाकी प्रगति मानवी अवगति का कारण बन सकती है। उपरोक्त चिन्तनधारा से लोगों को यह समझते देर न लगेगी कि उच्च आध्यात्मिकता के आगे भौतिकता की चमक-दमक न सिर्फ फीकी है, वरन् चमकीले साँप की भाँति आकर्षक लगते हुए भी घातक है। संत की यह विचारधारा उनके मत्स्यावतार की तरह बढ़ते शिष्य-समुदाय द्वारा विश्व के कोने-कोने तक में पहुँचायी जायेगी, और इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य की संरचना करेगी।”
फ्लोरेंस ने कई ऐसी भविष्यवाणियाँ की हैं जो सामयिक हैं और प्रासंगिक भी, अस्तु उनका उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। उन्होंने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि सन् 88-89 के उपरान्त विश्व के अनेक हिस्से में ऐसे कितने ही भूकम्प आयेंगे, जिनमें जान-माल की व्यापक हानि होगी। द्रष्टव्य है कि इन्हीं दिनों उत्तराखंड क्षेत्र में इतना जबरदस्त भूचाल आया है, जिसमें हुई हानि का सही-सही अनुमान अब तक नहीं लगाया जा सका है। इससे पूर्व अगस्त 88 में उत्तरी बिहार और नेपाल में आये भूकम्प में हजार से भी अधिक लोगों की जानें गई। अक्टूबर 1990 में चीन में व फरवरी 91 में पाकिस्तान में आयी इस प्राकृतिक आपदा में पाँच सौ के करीब मौतें हुई। इससे फ्लोरेंस की भविष्यवाणी की सच्चाई प्रमाणित होती है।
उल्लेखनीय है कि फ्लोरेंस ने अपनी दोनों पुस्तकों में स्थान-स्थान पर उत्तर भारत के एक स्थल एवं ऐसे सन्त की चर्चा की है, जहाँ से व जिनके द्वारा आध्यात्मिक विचारक्रान्ति के सूत्रपात की बात कही गई है, किन्तु फ्लोरेंस ने दोनों में से किसी का भी नामोल्लेख नहीं किया है, परन्तु विज्ञ पाठकों को यह समझते कदाचित तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि प्रस्तुत पंक्तियों में उनका संकेत किस ओर है? आने वाले समय में उत्कृष्टता के पक्षधर सृजन शिल्पी सौंपी गयी भूमिका सम्पन्न करते हुए अपना प्रयोजन पूरा कर दिखायें, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए, वरन् इसे नियन्ता का सुनिश्चित पूर्वनिर्धारण मानना चाहिए।